पूज्य बापू जी
मन में कुछ आया और वह कर लिया तो इससे आदमी अपनी स्थिति में गिर जाता है लेकिन शास्त्र-सम्मत जीवन जीकर, सादगी और संयम से रह के आवश्यकताओं को पूरी करे, मन के संकल्प-विकल्पों को काटता रहे और आत्मा में टिक जाये तो वह आशारहित पद में, आत्मपद में स्थित हो जाता है। फिर तो उससे संसारियों की भी मनोकामनाएँ पूरी होने लगती हैं।
पतिव्रता स्त्री का सामर्थ्य क्यों बढ़ता है ? क्योंकि उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती। पति की इच्छा में उसने अपनी इच्छा मिला दी। सत्शिष्य का सामर्थ्य क्यों बढ़ता है ? सत्शिष्य को ज्ञान क्यों अपने-आप स्फुरित हो जाता है ? क्योंकि सदगुरु की इच्छा में वह अपनी इच्छा मिला देता है। शिष्य लाखों-करोड़ों हो सकते हैं पर सत्शिष्यों की संख्या अत्यंत कम होती है। सत्शिष्य वह है जो गुरु की परछाई बन जाय, अपने को गुरु के अनुसार पूरा ढाल दे। उसको ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता। तोटकाचार्य शंकराचार्य जी के ऐसे सत्शिष्य थे और कबीर जी के ऐसे सत्शिष्य थे सलूका, मलूका।
सती और सत्शिष्य को वह सामर्थ्य प्राप्त होता है जो योगियों को तमाम प्रकार की कठिन योग-साधनाएँ करने के बाद भी मुश्किल से प्राप्त होता है। योग साधना करने के बाद जो उनकी अवस्था आती है, वह सती और सत्शिष्य को सहज में ही प्राप्त हो जाती है। सत्शिष्य अपनी इच्छा गुरु की इच्छा में मिला देता है। पतिव्रता स्त्री अपनी इच्छा पति की इच्छा में मिला देती है।
कोई सोचेगा, ‘यदि गुरु की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दे तो गुरु की भी तो इच्छा हुई और जब तक इच्छा है तो गुरु नहीं….’। हाँ, गुरु के अंदर इच्छा तो है लेकिन वह इच्छा कैसी है ? गुरु की इच्छा शिष्य के हृदय में ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की है। गुरु इच्छा के दास नहीं, इच्छाओं के स्वामी हैं। उनकी इच्छा व्यवहार काल में दिखती है लेकिन अंतःकरण में उस इच्छा की सत्यता नहीं होती। गुरु की इच्छा कैसी होती है ? गुरु की इच्छा होती है कि शिष्य उन्नत हो। अतः गुरु की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देने से शिष्य का कल्याण हो जाता है।
अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए अपने से उच्च पुरुषों की देखरेख में होना चाहिए। अपनी इच्छा पूरी करने से साधक की साधना में बरकत नहीं आती। संत कबीर जी ने कहा हैः
मेरो चिंत्यो होत नहिं, हरि को चिंत्यो होत।
हरि को चिंत्यो हरि करे, मैं रहूँ निश्चिंत।।
24 घंटे… केवल 24 घंटे यह निर्णय कर लो कि ‘मेरी कोई इच्छा नहीं। जो तेरी मर्जी हो वह स्वीकार है….’ तो आपको जीने का मजा आ जायेगा।
साधारण आदमी और संत में यही फर्क होता है कि संत बाधित इच्छा से कर्म करते हैं, इच्छारहित कर्म करते हैं। अतः उनके कर्म शोभा देते हैं और साधारण आदमी इच्छाओं के गुलाम होकर कर्म करते हैं। आशा करनी है तो राम की करो।
आशा तो एक राम की, और आश निराश।
‘ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपने राम-स्वभाव में जगूँगा, सुख-दुःख में सम रहूँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे संसार स्वप्न जैसा लगेगा ? ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपनी देह में रहते हुए भी विदेही आत्मा में जगूँगा ?’ ऐसा चिंतन करने से निम्न (तुच्छ) इच्छाएँ शांत होती जायेंगी और बाद में उन्नत इच्छाएँ भी शांत हो जायेंगी। फिर तुम इच्छाओं के दास नहीं, आशाओं के दास नहीं, आशाओं के राम हो जाओगे। ॐ…ॐ…ॐ….
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 20 अंक 278
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