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जब देवी ने ली दीक्षा


श्री नाभा जी महाराज कृत ‘भक्तमाल’ में कथा आती है कि श्री हरिव्यास जी संतों के साथ विचरण करते हुए चटथावल नामक ग्राम पहुँचे। वहाँ एक सुंदर वाटिका देख के वहीं अपना नित्य-नियम करके भोजन प्रसाद ग्रहण करने का विचार कर रहे थे। तभी वाटिका में देवी के मंदिर पर किसी ने बकरा मार के देवी को चढ़ाया। संतों के मन में अति पीड़ा व ग्लानि हुई। सभी ने निश्चय किया कि ‘इस स्थान पर प्रसाद तो क्या, पानी की एक बूँद भी नहीं पियेंगे।’ सब संतों के साथ श्री हरिव्यास जी भूखे ही रह गये।

दुष्ट भले संतों की निंदा करके, उन्हें सताकर अपना सर्वनाश करते हैं लेकिन पुण्यात्मा, समाज के सज्जन-समझदार लोग तो उनकी सेवा करके अपने कल्याण कर लेते हैं। यहाँ तक कि भगवान एवं देवी-देवता भी संतों और भक्तों की सेवा करने के लिए सदैव लालायित रहते हैं।

जैसे कुछ मूढ़ लोगों ने देवी के समक्ष ब्रह्मज्ञानी महापुरुष जड़भरत की बलि देने का प्रयास किया तो देवी ने प्रकट होकर बलि देने वालों का संहार किया व जड़भरत जी का अभिवादन किया, वैसे ही यहाँ देवी एक नवीन देह धारण करके संतों के पास आ के बोलीः “महात्मन् ! आप लोग भूखे क्यों हो ? भोजन-प्रसाद पाइये।”

श्री हरिव्यास जीः “यह हिंसा देख मन में अति ग्लानि हो रही है। अब प्रसाद कौन पाये !”

मानव-तनधारी देवी ने विनय कियाः “वह देवी मैं ही हूँ। अब मुझ पर कृपा कर मुझे अपनी शिष्या बनायें व प्रसाद ग्रहण करें।”

देवी की विनय व प्रार्थना से द्रवीभूत होकर श्री हरिव्यास जी ने उन्हें अपनी शिष्या बनाना स्वीकार किया। देवी भगवन्मंत्र सुन नगर की ओर दौड़ीं। उस नगर का जो मुखिया था, उसे खाटसमेत भूमि पर पटक के उसकी छाती पर चढ़कर कहने लगीं- “मैं तो श्री हरिव्यास जी की शिष्या, दासी हूँ। तुम लोग भी अगर उनके शिष्य, दास न होओगे तो अभी सबको मार डालूँगी।”

देवी की आज्ञा सुन के वे सबके सब श्री हरिव्यास जी के शिष्य बन गये। मंत्र, जप-माला, तिलक, मुद्रा ग्रहण कर मानो सबको नया जीवन प्राप्त हुआ। श्री हरिव्यास जी के कृपा-प्रसाद से गाँव के सभी लोग हलकी आदतें और बुरे कर्म छोड़कर दुःख, पाप, संताप मिटाने वाले प्रभुरस का पान करने के रास्ते चल पड़े।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 13, अंक 278

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सदगुरु से ही ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है


संत एकनाथ जी महाराज सदगुरु स्तुति करते हुए लिखते हैं- ‘हे सदगुरु परब्रह्म ! तुम्हारी जय हो ! ब्रह्म को ‘ब्रह्म’ यह नाम तुम्हारे कारण ही प्राप्त हुआ है। हे देवश्रेष्ठ गुरुराया ! सारे देवता तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं।

हे सदगुरु सुखनिधान ! तुम्हारी जय हो। सुख को सुखपना भी तुम्हारे कारण ही मिला है। तुमसे ही आनंद को निजानंद प्राप्त होता है और बोध को निजबोध का लाभ प्राप्त होता है। तुम्हारे ही कारण ब्रह्म ब्रह्मत्व प्राप्त होता है। तुम्हारे जैसे समर्थ एक तुम ही हो। ऐसे श्रीगुरु तुम अनंत हो। तुम कृपालु होकर अपने भक्तों को निजात्मस्वरूप का ज्ञान प्रदान करते हो। अपने निजस्वरूप का बोध कराकर देव-भक्त का भाव नहीं रहने देते हो।

जिस प्रकार गंगा समुद्र में मिलने पर भी उस पर चमकती रहती है, उसी प्रकार भक्त तुम्हारे साथ मिल जाने पर भी तुम्हारे ही कारण तुम्हारा भजन करते हैं। अद्वैत भाव से तुम्हारी भक्ति करने से तुम्हें परम संतोष होता है और प्रसन्न होने पर तुम शिष्यों के हाथों में आत्मसम्पत्ति अर्पण करते हो। शिष्य को निजात्मस्वरूप-दान से गुरुत्व देकर उसे महान बनाते हो, यह तुम्हारा अतिशय विलक्षण चमत्कार है !

जो वेद-शास्त्रों की समझ में नहीं आता, जिसके लिए वेद रात-दिन वार्ता कर रहे हैं, वह आत्मज्ञान तुम सत्शिष्य को एक क्षण में करा देते हो। करोड़ों वेद एवं वेदान्त का पठन करने पर भी तुम्हारे आत्मोपदेश की शैली किसी को भी नहीं आ सकती। अदृष्ट वस्तु ध्यान में आना सम्भव नहीं है। तुम्हारी कृपा-युक्ति का लाभ होने पर ही दुर्गम सरल होता है।

‘श्रीमद्भागवत’ अगम्य है, उस पर एकादश स्कंध का अर्थ अत्यंत गहन है लेकिन तुम सदगुरु समर्थ और कृपालु हो, इसलिए तुमने मुझसे उसका अर्थ प्राकृत भाषा में करवाया। जिस प्रकार माँ दही को मथकर उसका मक्खन निकाल के बालक को देती है, उसी प्रकार मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी ने यहाँ किया है। वेद-शास्त्रों का मंथन कर व्यास जी ने ‘श्रीमद्भागवत’ निकाला, उस भागवत का  मथितार्थ (मथ के निकाला गया) यह ग्यारहवाँ स्कंध है, ऐसा निश्चित समझना चाहिए। उस एकादश स्कंध का माधुर्य स्वयं मेरी समझ में नहीं आया इसलिए मेरे सदगुरु जनार्दन स्वामी जी ने उसका मंथन कर उसका सार तत्त्व मुझे निकाल कर दिया। उसे सहज ही मुख में डाला तो एकादश की माधुरी मेरी समझ में आयी। उसी माधुर्य की चाह से यह टीका तैयार हो रही है। इसलिए एकादश स्कंध पर की यह टीका अकेले एक एकनाथ से नहीं बल्कि एक से एक मिलकर बाहर आ रही है। एक पीछे और एक आगे – यही एकादश अर्थात् ग्यारह का स्वरूप है।

सदगुरु जनार्दन स्वामी ने अपना एकपन एक में (अद्वैत) में दृढ़ किया। वही एकादश स्कंध के अर्थ में आया है। एका (एकनाथ) में एकत्व घुल-मिल गया। भोजन में जिस प्रकार मिष्टान्न का ग्रास होता है, उसी प्रकार भागवत में यह एकादश स्कंध है।

गुण-दोषों का दर्शन साधक के लिए घातक

भगवान श्री कृष्ण का उपदेश सुनकर उद्धवजी ज्ञानसम्पन्न हो गये। इससे अत्यधिक ज्ञातृत्व हो जाने के कारण ज्ञान-अभिमान होने की सम्भावना हुई। ‘सारा संसार मूर्ख है और एक मैं ज्ञाता हूँ’ – ऐसा जो अहंकार बढ़ता रहता है, वही गुण-दोषों की सर्वदा एवं सर्वत्र चर्चा कराता है। जहाँ गुण-दोषों का दर्शन होता है, वहाँ सत्य, ज्ञान का लोप हो जाता है।

साधकों के लिए इतना ज्ञान-अभिमान बाधक है। ईश्वर भी यदि गुण-दोष देखने लगें तो उनको भी बाधा आयेगी। इस प्रकार गुण दोषों का दर्शन साधक के लिए पूरी तरह घातक है। इसलिए प्रश्न किये बिना ही श्रीकृष्ण उद्धव को उसका उपाय बताते हैं। जिस प्रकार बालक को उसका हित समझ में नहीं आता, अतः उसकी माँ ही निष्ठापूर्वक उसका ख्याल रखती है, उसी प्रकार उद्धव के सच्चे हित की चिंता श्रीकृष्ण को थी। उद्धव का जन्म यादववंश में हुआ था और यादव तो ब्रह्मशाप से मरने वाले थे। उनमें से उद्धव को बचाने के लिए श्रीकृष्ण उसे सम्पूर्ण ब्रह्मज्ञान बता रहे हैं। जहाँ देहातीत ब्रह्मज्ञान रहता है, वहाँ श्राप का बंधन बाधक नहीं होता। यह जानकर ही श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगे।

श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘हे उद्धव ! संसार में मुख्यरूप से 3 गुण हैं। उन गुणों के कारण लोग भी 3 प्रकार के हो गये हैं। उनके शांत, दारुण और मिश्र – ऐसे स्वाभाविक कर्म हैं। उन कर्मों की निंदा या स्तुति हमें कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि एक के भलेपन का वर्णन करने से उन्हीं शब्दों से दूसरों को बुरा बोलने जैसा हो जाता है।

संसार परिपूर्ण ब्रह्मत्व स्वरूप है इसलिए निंदा या स्तुति किसी भी प्राणी की कभी नहीं करनी चाहिए। सभी प्राणियों में आत्माराम है इसलिए प्राण जाने पर भी निंदा या स्तुति नहीं करें। उद्धव ! निंदा स्तुति की बात सदा के लिए त्याग दो, तभी तुम्हें परमार्थ साध्य होगा और निजबोध से निज स्वार्थ प्राप्त होगा। उद्धव ! समस्त प्राणियों में भगवद्भाव रखना, यही ब्रह्मस्वरूप होने का मार्ग है। इसमें कभी भी धोखा नहीं है। जहाँ से अपाय (खतरे) की सम्भावना हो, यदि वहीं भगवद्भावना दृढ़ता से बढ़ायी जाये तो जो अपाय है, वही उपाय हो जायेगा। इस स्थिति को दूर छोड़ जो ‘मैं ज्ञाता हूँ’ ऐसा अहंकार करेगा और निंदा स्तुति का आश्रय लेगा वह अनर्थ में पड़ेगा।’

(श्रीमद् एकनाथी भागवत से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 278

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आठ प्रकार के सुखों से भी ऊँचा सुख


पूज्य बापू जी

आठ प्रकार के सुख होते हैं। देखने, सूँघने, चखने, सुनने और स्पर्श का सुख – ये पाँच विषय सुख हुए। दूसरा, मान मिलता है तो सुख होता है, अपनी कहीं बड़ाई हो रही हो तो सुख होता है। अगर आपको बढ़िया आराम मिल रहा हो तो सुख होता है। तो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान, बड़ाई और आराम – ये आठ प्रकार के सुख होते हैं। इनमें अगर कोई नहीं फँसा तो उसे कौन सा सुख मिलता है ? भगवत्सुख, भगवद्ज्ञान, भगवद् बड़ाई, भगवद्-आराम।

भगवत्-सत्संग का सुख भगवद्भाव का सुख, भगवन्नाम का सुख – ये सुख जीव को तारने वाले हैं और 8 प्रकार के सुख जीव को मारने वाले हैं। जैसे भँवरा सुगंध के सुख में कमल में बैठ जाता है, आराम भी मिलता है, सुगंध भी मिलती है। सुबह जंगली जानवर कमल को तोड़कर खा जाते हैं अथवा तो हाथी कुचल देते हैं तो वह मर जाता है। ऐसे ही देखने के सुख में पतंगे सड़कों पर लगी बत्तियों के आसपास मँडराते हैं और यातायात के साधनों से टकरा के या कुचल कर मर जाते हैं। चखने के सुख में मछली कुंडे में फँसती है। सुनने के सुख में हिरण फँस जाता है और शिकारी उसे बाण मारता है। हाथी हथिनी के सुख में गड्ढे में गिरता है। घास-फूस की नकली हथिनी गड्ढे के ऊपर बनाते हैं, हाथी उसको स्पर्श करने, विकार भोगने जाता है तो गड्ढे में गिर जाता है, फिर दर-दर की ठोकरें खाता है, भीख माँगता है। मनुष्य को तो पकड़ के पैर तले दबा दे हाथी लेकिन मनुष्य के अधीन हो जाता है क्योंकि हथिनी के सुख में फँस गया। कितना बड़ा हाथी और कितना छोटा मनुष्य ! किंतु हाथी उसका गुलाम हो गया।

अलि पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच।

तुलसी तिनकी कौन गति, जिनको व्यापे पाँच।।

अलि माना भँवरा, पतंग माना पतंगे, मृग माना हिरण, मीन माना मछली, गज माना हाथी। एक एक विषय में मूर्ख प्राणी, मूर्ख जंतु अपनी जान गँवा देते हैं तो जो पाँचों इन्द्रियों के पीछे घसीटा जा रहा है, उस मनुष्य की गति क्या होगी ! तो क्या करना चाहिए ? भगवत्सुख, भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रेम, भगवद्रस पा के भगवत्प्राप्ति कर लेनी चाहिए।

इन्हें पाने के लिए चलते हैं लेकिन सफल क्यों नहीं होते ? बोले, इन 7 चीजों की खबरदारी नहीं रखते हैं इसलिए सफल नहीं होतेः

भगवत्प्राप्ति का उत्साह नहीं है।

श्रद्धा की कमी।

जिनको भगवत्प्रीति, भगवद्-श्रद्धा नहीं है ऐसे लोगों का संग।

दृढ़ निश्चय नहीं है।

सत्संग का अभाव। सत्संग का महत्त्व नहीं, सत्संग के वचनों को धारण नहीं करते।

आठ सुखों में से किसी-न-किसी का चिंतन, विषय-चिंतन। गंदी वेबसाइटों ने तो युवाधन की तबाही कर दी। इस युग में युवक युवतियों का सत्यानाश गंदी फिल्मों और वेबसाइटों ने जितना किया है, उतना किसी ने नहीं किया।

लापरवाही…. ‘चलो कोई बात नहीं….’ अरे, जो खाना चाहिए वह खाओ, जो नहीं खाना चाहिए नहीं खाओ। जो करना चाहिए वह करो, जो नहीं करना चाहिए वह नहीं करो लेकिन लापरवाही से वह भी कर लेते हैं। जानते हैं कि ‘यह ठीक नहीं है’, फिर भी थोड़ा…। इससे भगवत्प्रीति का रास्ता लम्बा हो गया। साधन तो करते हैं, श्रद्धा भी रखते हैं लेकिन दृढ़ श्रद्धा नहीं है। उत्साह है लेकिन पूरा उत्साह नहीं है। इसलिए भी भगवत्प्राप्ति का रास्ता लम्बा हो गया। अच्छा संग तो करते हैं लेकिन साथ-साथ में ‘घटिया संग की भी थोड़ी दोस्ती निभा लो…..’ इसलिए तबाही हो रही है। तो अपने जीवन में गुरुदीक्षा ले कर नियम से 15 मिनट रोज ॐकार का गुंजन करेगा और गुरुमंत्र की 10 माला जपेगा, उसको फिसलाने वाली इन 8 प्रकार की विषय-वासनाओं की गंदी आदतें छोड़ने में बल मिलेगा और भगवान की शांति, भगवान का मंगल स्वभाव, भगवान का औदार्य सुख मिलेगा और इन 8 प्रकार के सुखों का उपभोग नहीं, औषधवत् उपयोग करने की युक्ति आ जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 12, 13, अंक 278

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