जहँ राम तहँ नहीं काम….

जहँ राम तहँ नहीं काम….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

मन की पाँच अवस्थाएँ होती हैं- क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, एकाग्र और निरूद्ध। क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ ये आम मन की अवस्थाएँ हैं एवं एकाग्र और निरूद्ध ऊँचे मन की अवस्थाएँ हैं। भारत के ऋषि-मुनियों ने एकाग्र और निरूद्ध मन का अनुसंधान करके ही समाधिसुख पाया है, दिव्य सृष्टि का अनुभव एवं आत्मदेव का साक्षात्कार किया है जबकि आज के मनोवैज्ञानिकों ने केवल मानव मन की क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ इन तीन अवस्थाओं पर ही ध्यान दिया है।

इस प्रकार रूग्ण मन का अनुसंधान करके मनोवैज्ञानिकों ने अपने निष्कर्ष में संयम, ब्रह्मचर्य इत्यादि बातों को व्यर्थ बताकर सांसारिक काम-व्यवहार को सत्य साबित करना चाहा है। मनोवैज्ञानिकों की कल्पना ʹसंभोग से समाधिʹ को यदि हम सच मान लें तो क्या सांसारिक काम-चेष्टा में दिन रात रत रहने वाले सूअर, कबूतर, बकरियाँ आदि समाधि के आनंद में होते हैं ? क्या मनुष्य शादी करके, काम-विकार की मायाजाल में फँसकर दिव्य तत्त्व का साक्षात्कार करता है ? नहीं।

जीवन में संयमरूपी ʹब्रेकʹ और विवेकरूपी ʹलाल बत्तीʹ की खूब आवश्यकता है। संयम और विवेक से शादी करके बच्चों को जन्म देकर शास्त्रकथनानुसार जीवन बिताना ठीक है, अच्छा है किंतु खुद को तथा पत्नी को भोग की मशीन बनाकर स्वयं को रोगी बनाना कहाँ तक उचित है ?

तुलसीदास जी ने कहा हैः

जहँ काम तहँ नहीं राम जहँ राम तहँ नहीं काम।

तुलसी दोनों रह न सके रवि-रजनी एक ठाम।।

रामायण में एक प्रसंग आता हैः जब रावण श्रीरामचन्द्रजी की सेना से परेशान हो गया तब आखिर में दूसरा रास्ता न मिलने पर उसने भाई कुंभकर्ण को नींद में से जगाया। इस अवसर पर कुंभकर्ण ने रावण से कहाः

“एक सीता के लिए तुम इतने सारे योद्धाओं को मरवा रहे हो एवं मेरी भी नींद बिगाड़ रहे हो ? तुम्हारे पास तो कितनी सारी कलाएँ हैं। कोई भी आजमा ली होती ?”

रावणः “मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा। मैं सब युक्तियाँ आजमाकर थक गया हूँ। तुम्हें नींद से जगाने पर तुम नाराज होते हो यह मैं जानता हूँ, किंतु मेरे भाई ! दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।”

कुंभकर्णः “तुम्हारे पास तो रूप बदलने की कला है और सीता तुम्हारी ही अशोक वाटिका में है। तुम राम का रूप लेकर सीता के पास सरलता से पहुँच सकते थे।”

रावणः “मैं यह पापड़ भी बेलकर आया हूँ। मैं जब राम का रूप लेने के लिए राम का चिंतन करता हूँ तब तेरी भाभी (पत्नी मंदोदरी) भी मुझे देवी जैसी लगती है तो फिर मैं सीता के पास कैसे जा सकता हूँ ?”

राम नाम इतना पवित्र है कि उसके चिंतनमात्र से रावण जैसे दुष्ट, पापी, अधम का हृदय भी परिवर्तित हो जाता है। राम नाम लेने से मोह, वासना आदि शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और  हृदय में भगवदभक्ति का संचार होने लगता है।

योगियों ने यही बात अपने ढंग से बतायी है। हमारे शरीर में सात मुख्य केन्द्र हैं। प्रथम केन्द्र को मूलाधार केन्द्र, काम-केन्द्र कहते हैं, जो शरीर की नींव बनाने वाला है। प्रारंभ के सात वर्ष तक मूलाधार केन्द्र का विकास होता है। मूलाधार केन्द्र के विकास के बाद ऊपर के केन्द्रों का विकास होता है। मनुष्य धीरे-धीरे ईश्वरीय दिव्यता का अनुभव करने लगता है। जब सहस्रार केन्द्र का विकास होता है तब राम की समाधि का सुख प्राप्त होता है। जीव जब काम-विकाल में लीन होता है तब शरीर से दुर्गन्ध निकलती है और जब जीव राम के रस में लीन होता है तब शरीर से दिव्य प्रकाश, दिव्य दुर्गन्ध निकलती है।

ये तो हुई मन की अवस्थाएँ लेकिन जो तुम्हारे मन को देख रहा है वह साक्षी, चैतन्य, तुम्हारे रोम-रोम में रमने वाला राम तुम्हारा आत्मा है। अगर उस रामतत्त्व को जान लिया तो फिर काम की क्या ताकत है कि तुम्हें विचलति कर सके….. परेशान कर सके ?

संतों की सहिष्णुता

सिंधी जगत के महान तपोनिष्ठ ब्रह्मज्ञानी संत श्री टेऊंरामजी ने जब अपने चारों ओर समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को हटाने का प्रयत्न किया, तब अनेकानेक लोग आत्मकल्याण के लिए सेवा में आने लगे। जो अब तक समाज के भोलेपन और अज्ञान का अनुचित लाभ उठ रहे थे, समाज का शोषण कर रहे थे, ऐसे असामाजिक तत्त्वों को तो यह बात पसन्द ही न आई। कुछ लोग डोरा, धागा, तावीज का धन्धान करने वाले थे तो कुछ शराब, अंडा, माँस, मछली आदि खाने वाले थे तथा कुछ लोग ईश्वर पर विश्वास न करने वाले एवं संतों की विलक्षण कृपा, करूणा व सामाजिक उत्थान के उनके दैवी कार्यों को न समझकर समाज में अपने को मान की जगह पर प्रतिष्ठित करने की इच्छावाले क्षुद्र लोग थे। वे संत गी प्रसिद्धि और तेजस्विता नहीं सह सके। वे लोग विचित्र षडयंत्र बनाने एवं येन केन प्रकारेण लोगों कीक आस्था संत जी पर से हटे ऐसे नुस्खे आजमा कर संत टेऊँरामजी के ऊपर कीचड़ उछालने लगे। उनको सताने में उन दुष्ट हतभागी पामरों ने जरा भी कोरकसर न छोड़ी। उनके आश्रम के पास मरे हुए कुत्ते, बिल्ली और नगरपालिका की गन्दगी फेंकी जाती थी। संतश्री एवं उनके समर्पित व भाग्यवान शिष्ट चुपचाप सहन करते रहे और अन्धकार में टकराते हुए मनुष्यों को प्रकाश देने की आत्मप्रवृत्ति उऩ्होंने न छोड़ी।

संत कंवररामजी उस समय समाज-उत्थान के कार्यों में लगे हुए थे। हतभागी, कृतघ्न, पापपररायण एवं मनुष्यरूप में पशु बने हुए लोगों को उनकी लोक-कल्यामकारक उदात्त सत्प्रवृत्ति पसन्द न आई। फलतः उनकी रुफसु स्टेशन पर हत्या कर दी गई। फिर भी संत कंवररामजी महाराज महान संत के रूप में अभी भी पूजे जा रहे हैं। सिंधी जगत बड़े आदर के साथ आज भी उऩ्हें प्रणाम करता है लेकिन वे दुष्ट, पापी व मानवता के हत्यारे किस नरक में अपने नीच कृत्यों का फल भुगत रहें होंगे तथा कितनी बार गंदी नाली के कीड़े व मेढक बन लोगों का मल-मूत्र व विष्ठा खाकर सड़कों पर कुचले गये होंगे, पता नहीं। इस जगत के पामरजनों की यह कैसी विचित्र रीति है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 21,21 अंक 49

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *