करो सेवा मिले मेवा….

करो सेवा मिले मेवा….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

बड़ौदा में गायकवाड़ का राज्य था। उनके कुल की महिला शांतादेवी स्वामी शांतानंद जी के दर्शन करने गयी। आश्रम में जाकर उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति गौशाला में सफाई कर रहा है। शांतादेवी ने उससे कहाः “मुझे पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने हैं।”

उसने कहाः “यहाँ कोई गुरुदेव नहीं रहते।”

आगे जाकर उन्होंने किसी दूसरे से पूछाः “स्वामी शांतानंदजी महाराज क्या इधर नहीं हैं?”

वह बोलाः “इधर ही है। क्या आपने उन्हें गौशाला में नहीं देखा ?”

शांतादेवीः “वे तो मना कर रहे हैं ?”

उसने कहाः “गौशाला में सेवा करने वाले स्वयं ही पूज्यपाद स्वामी शांतानंद जी महाराज हैं।”

यह सुनकर वह पुनः गौशाला की ओर दौड़ी एवं प्रणाम करते हुए बोलीः “मुझे पता नहीं था की आप ही पूज्यपाद गुरु देव हैं और गौशाला में इतनी मेहनत कर रहे हैं।”

स्वामी शांतानंदः “तो क्या साधु या संन्यासी वेश परिश्रम से इऩ्कार करता है ?”

“आज मैं आपके दर्शन करने एवं सत्संग सुनने के लिए आयी हूँ।”

“अच्छा ! सत्संग सुनना है तो सेवा कर। ले यह लकड़ी का टुकड़ा और मिट्टी का तेल। इन छोटे-छोटे बछड़ों के खुरों में कीड़े पड़ गये हैं। उन्हें लकड़ी से साफ करके मिट्टी का तेल डाल।”

शांतादेवी ने बड़े प्रेम से बछड़ों के पैर साफ किये और हाथ-पैर धोकर स्वामी शांतानंदजी के चरणों में सत्संग सुनने जा बैठी। उनके दो वचन सुनकर शांतादेवी ने कहाः “महाराज ! आज सत्संग से मुझे जो शांति मिली है, जो लाभ मिला है ऐसा लाभ, ऐसी शांति जीवन में कभी नहीं मिली।”

स्वामी शांतानंदजीः “आज तक तूने मुफ्त में सत्संग सुना था। आज कुछ देकर फिर पाया है, इसलिए आनंद आ रहा है।”

गुरु तो अपना पुरा खजाना लुटाना चाहते हैं किन्तु…

शिष्य को चाहिए कि तत्परता से सेवा करके अपना भाग्य बना ले तो वह दिन दूर नहीं, जब वह गुरु के पूरे खजाने को पाने का अधिकारी हो जायेगा। सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय भी हो तो फिर उतने परिश्रम की आवश्कता भी नहीं होती। सेवा से अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है।

कर्मों का फल

एक बार महर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे। गर्मियों के दिन थे। एक प्याऊ से उऩ्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहाँ से पच्चीस तीस बकरों को लेकर गुजरा। उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था ʹशगालचन्द सेठ।ʹ दुकानदार का ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो चार घूँसे मार दिये। बकरा ʹबैंઽઽઽ बैंઽઽઽʹ करने लगा और उसके मुँह से सारे मठ गिर पड़े।

देवर्षि नारद ने जरा सा ध्यान लगाकर देखा और जोर से हँस पड़े। तुम्बरू पूछने लगाः ʹʹगुरुजी ! आप क्यों हँसे ? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप  दुःखी हो गये थे किन्तु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इसमें क्या रहस्य है ?”

नारदजी ने कहाः “छोड़ो भी.. यह सब तो कर्मों का फल है, छोड़ो।”

तुम्बरूः “नहीं गुरूजी ! कृपा करके बताइये।”

नारदजी कहते हैं- “इस दुकान पर जो नाम लिखा है ʹशगालचंद सेठʹ वह शगालचंद सेठ स्वयं बकरा होकर आया है। यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। शगालचंद सेठ मरकर बकरा हुआ है और अपना पुराना संबंध समझकर दुकान पर मठ खाने गया। उसके बेटे ने ही उसको मारगर भगा दिया। मैंने देखा की बीस बकरों में से कोई नहीं गया और यह क्यों गया कम्बख्त ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना संबंध था।”

पुत्र ने तो बकरे के कान पकड़कर घूँसे जमा दिये और कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः “जब इस बकरे को तू हलाल करे तो मुण्डी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मठ खा गया है।”

जिस बेटे के लिए शगालचंद ने इतना कमाया था, वही बेटा मठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिया है तो मुण्डी माँग रहा है बाप की। इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही है कि अपने-अपने कर्मों का फल तो प्रत्येक प्राणी को भुगतना ही पड़ता है और इस जन्म के रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 49

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