Monthly Archives: October 2000

संतों से कुछ न माँगिये


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

ʹयदि संतों से कुछ भी न माँगिये तो भी वे अमृतरूपी वचनों की वर्षा कर देते हैं। जैसे पुष्पों से बिना माँगे सुगंध प्राप्त होती है ऐसे ही संतजनों से बिना माँगे ही ज्ञान का अमृत प्राप्त हो जाता है।ʹ

यह जरूरी नहीं कि भगवान एवं संतों से माँगते ही रहें। न माँगें तब भी देना उनका स्वभाव है। फूलों से कुछ नहीं माँगते, फिर भी सुगंध देना उनका स्वभाव है। चाँद से कुछ नहीं माँगते, फिर भी चाँदनी बरसाना उसका स्वभाव है। गंगाजी से कुछ नहीं माँगते फिर भी शीतलता देना उनका स्वभाव है।

जरूरी नहीं कि माँगे तभी मिले। कुछ लोग कहते हैं- ʹमुझे आशीर्वाद दीजिये… मुझे तो थोड़ा-सा आशीर्वाद दीजिये, महाराज !… मुझे तो स्पेशियलʹ आशीर्वाद दीजिए।ʹ आशीर्वाद भी कभी ʹस्पेशियलʹ और ʹआर्डिनरीʹ होता है ? खाने-पीने आदि की चीजें ʹस्पेशियलʹ और आर्डिनरी होती हैं, आशीर्वाद थोड़े ही स्पेशियल होता है।

संतों के पास जाकर लोग कहते हैं- ʹमुझे यह दीजिए…. मुझे वह दीजिये….ʹ ये सब बहुत छोटी बातें हैं, तुच्छ चीजों की माँगें हैं। जैसे राजा से कोई माँगे किः ʹमुझे बिस्किट दे दीजिये… डबलरोटी दे दीजिये… मुझे एक कप दूध दे दीजिये….ʹ तो राजा को होगा किः ʹकैसा आदमी है ?ʹ वह अपने सेवकों से कहेगाः ʹअरे भाई ! इसे दे दो, जो माँग रहा है।ʹ

ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों से भी जगत की नश्वर चीजों की याचना करते हैं। अरे ! आप स्वयं ध्यान-भजन में लग जाओ तो जगत की चीजें दासी की नाईं आपकी सेवा में लग जायेंगी। ध्यान-भजन तो करते नहीं, फिर टोने-टोटके करवाकर, दवाइयाँ खाकर मर रहे हैं। ध्यान का, शक्तिपात शिविर का लाभ तो उठाते नहीं और पड़ जाते हैं टोने-टोटके के चक्कर में।

टूना-फूना टोटका, सभी दीजै धोये।

गुरु कहे सो कीजिये, आपे ही फल होय।।

यहाँ जो मंत्र बताते हैं उसे भी काटकर अपना अगर-मगर चलाने लग जाते हैं। गुरु के वचन को भी काट देते हैं फिर भटकते रहते हैं। संतों के वचनों की कीमत नहीं समझते। मूर्खों को संतों का सान्निध्य मुफ्त में मिलता है तो उससे प्राप्त पुण्यों को वे दुनिया के भोग-पदार्थ में ऐसे ही खर्च कर देते हैं फिर दुबारा भिखमंगों की नाईं संसार की वस्तुएँ माँगते रहते हैं। संत हीरे-मोती लेकर बैठे हैं उनका तो कोई ग्राहक नहीं मिलता और लोग सब्जी-भाजी माँगने लगते हैं। जौहरी से, आत्म-खजाने के मालिक से हीरे-मोती लो, सब्जी-भाजी क्यों लेते हो ?

मुख्य कारण है विचार एवं तड़प की कमी…. तभी ऐसा होता है। गुरु की, भगवान की कृपा तो ठीक है लेकिन साथ ही अपना विचार एवं तड़प भी चाहिए। अगर स्वयं विचार किये बिना और तड़प के बिना आत्म-साक्षात्कार हो जाये तो अर्जुन के सिर पर अपना हाथ रख देते श्रीकृष्ण। संत-महापुरुष अपने को इतना क्यों खपाते ? गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख देते और कह देतेः ʹजा बेटा ! आत्म-साक्षात्कारी भव।ʹ ऐसा करके निपटारा कर लेते। नहीं… सिर पर हाथ रखने से आत्म-साक्षात्कार नहीं होता।

आशीर्वाद से संसार की चीजें और छोटी-मोटी परिस्थितियाँ तो मिल सकती हैं, पर ब्रह्मज्ञान तो अपने विचार से ही होगा। माँ कृपा करके भोजन के कौर मुँह में भी रख सकती है लेकिन चबाने के लिए तो अपने को ही मेहनत करनी पड़ेगी। बालक स्वयं नहीं चबायेगा तो पुष्ट कैसे होगा ? ऐसे ही साधक विचार नहीं करेगा तो ज्ञान कैसे होगा ?

यदि विचार के बिना ही आदिनारायण मुक्ति दे दें तो फिर वृक्षों एवं पशु-पक्षियों को मुक्त क्यों नहीं कर देते ? हम तो चाहते हैं कि सब मुक्त हो जायें। जैसे शराबी चाहता है कि दूसरा शराबी हो, जुआरी चाहता है कि दूसरा जुआरी हो ऐसे ही भगवान और संत चाहते हैं कि दूसरे भी मुक्त हों। लेकिन भगवान और संत भी क्या करें ? दूसरा जब विचार करेगा तभी तो मुक्त होगा। मुक्ति की जिसको प्यास होगी, तड़प होगी, वही मुक्त होगा।

संसार का पूरा राजपाट एक व्यक्ति को मिल जाये लेकिन मुक्ति की प्यास नहीं है तो वह बड़ा अभागा है। जिसको मुक्ति की प्यास है और संसार की वस्तुओं में अरुचि है वह भाग्यशाली है क्योंकि मुक्ति की प्यास ही उसको संतों के निकट ले जायेगी।

मुक्ति की प्यास जगती है संतों के दैवी कार्य में सहभागी होने पर। निष्काम कर्म एवं भगवद भक्ति से मुक्ति की प्यास जगती है। सत्संग के द्वारा धीरे-धीरे मुक्ति की प्यास जगती है तो काम बन जाता है, नहीं तो करोड़ों जन्म ऐसे ही व्यर्थ चले जाते हैं।

जगत के सुख आदमी को इतना बेवकूफ बना देते हैं कि व्यावहारिक तौर पर तो वह भोग भोगता ही है, चित्र देखकर भी भोग-भोगने की कल्पना में मारा जाता है। आदमी कितना पराधीन हो जाता है ! वह जिन्दा मनुष्य से तो भीख माँगता ही है, मुर्दे से भी, मजारों से भी माँगता रहता है किः “हे फलाने पीर ! मुझे यह दे दे, वह दे दे….”

अखा भगत ने कहा हैः

सजीवाए निर्जीवाने घड़यो, पछी कहे के मने कंईक दे।

अखो तमने ई पूछे के, तमारी एक फूटी के बे ?

ʹसजीव व्यक्ति ने निर्जीव मूर्ति को बनाया और फिर उसी के आगे गिड़गिड़ाता है कि मुझे कुछ दे। अखा भगत पूछता है कि तुम्हारी एक (आँख) फूट गयी है कि दो ?ʹ

भगवान से भी दिन-रात माँगते रहते हैं। जो बिना माँगे दिन-रात आपकी खबर ले रहा है उसको भी माँग-माँगकर परेशान करते रहते हैं। भगवान झूलेलाल, अम्बे माता, भगवान नारायण आदि की मूर्तियों के आगे गिड़गिड़ाते रहते हैं किन्तु वे अपने अंतर्यामी परमात्मा को क्यों नहीं रिझाते ? मंदिर के देवता की मूर्ति के तो तब दर्शन होंगे जब पुजारी दरवाजा खोलेगा। अज्ञान से इधर-उधर भगवान को खोजते हैं और जो हाजरा-हजूर है, दिल में बैठा है उसका विचार तक नहीं करते। दिल में बैठे हुए देवता को नहीं रिझाया तो मंदिर में बैठे हुए देवता को कब तक रिझाते रहोगे ? मंदिर के देवता को रिझाने का फल यही है कि दिल के देवता को रिझाने की युक्ति बताने वाले किन्हीं संत-महापुरुष का सत्संग मिल जाये।

विचार करने की कला आ जाये किः ʹमैं कौन हूँ ? सुख-दुःख का अनुभव किसे होता है ? कान ठीक से सुनते हैं कि नहीं, उसको देखने वाला मैं कौन हूँ ? जिह्वा को खट्टा-मीठा, खारा-खट्टा आदि स्वाद का ज्ञान किसकी सत्ता से मिलता है ? नाक को सूँघने की सत्ता कहाँ से मिलती है ?ʹ ऐसा विचार करते-करते अपने को खोजें।

जिन खोजा तिन पाइयाँ….

जो साधारण जीव हैं उनके लिए सामान्य पूजा कही गयी है – मंदिर की, वृक्ष की, गंगा-यमुना-सरस्वती आदि पवित्र नदियों की पूजा लेकिन जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो विचारवान् है उसके लिए अपनी आत्मा ही देव है। वह रोम-रोम में रम रहा है इसलिए उसको ʹरामʹ कहते हैं। वह सबको कर्षित-आकर्षित करता है इसीलिए उसको ʹकृष्णʹ बोलेत हैं। वह शक्ति का उदगम स्थान है इसीलिए उसे आद्यशक्ति जगदंबा बोलते हैं। वह इन्द्रियगणों का स्वामी है
इसीलिए उसको ʹगणपतिʹ बोलते हैं, उसके सिवा और कुछ नहीं है। ʹला इल्लाह इल इल्लाह इसीलिए उसको ʹअल्लाहʹ बोलते हैं… है वही आत्मदेव, जो अपना-आपा होकर बैठा है।

उस अंतर्यामी आत्मदेव को छोड़कर जो उसे बाहर ढूँढता फिरता है,  वह ʹकर्मलेढ़ीʹ है। हाथ में आये हुए मक्खन के पिण्ड को छोड़कर छाछ चाटता है। ʹकर्मलेढ़ीʹ न बनें। अपने आत्मदेव का ध्यान करें, चिंतन करें, स्मरण करें तो संसार की असारता का अनुभव हो जायेगा और आत्ममस्ती बढ़ जायेगी। ऐसी आत्ममस्ती में मस्त फकीर स्वामी रामतीर्थ ने ही गाया हैः

मस्त पड़ा है अपनी महिमा में, गैर राम अब और नहीं।

क्या हमसे भेद छुपाते हैं ? हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ऋषियों के आइने में, मेरा ही नूर दर्शाया था।

मुझ से ही शायर लाते हैं, हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ज्ञानवानों का अनुभव होता है किः “वैद्यों का वैद्यकीय ज्ञान भी मुझ आत्मा से आता है, विज्ञानियों का विज्ञान भी मुझ आत्मा से निकलता है, बुद्धिमानों की बुद्धि भी मुझ आत्मा से फुरती है, जिह्वा से मैं ही चखता हूँ, कानों से मैं ही सुनता हूँ, नाक से मैं ही सूँघता हूँ और मन से संकल्प-विकल्प भी मैं ही करता हूँ। ये सब करते हुए भी मैं इन सबसे असंग अमर आत्मा हूँ। ऐसा जो मुझको जानता है वह स्वयं को भी अमर आत्मा जानकर मुक्त हो जाता है। अगर मुझे कोई देहधारी मानता है तो वह भी देहधारी के भाव में फँस मरता है। मैं देह में होते हुए भी देहातीत हूँ। दिखता हूँ फिर भी अदृश्य हूँ और अदृश्य हूँ फिर भी सदृश्य हूँ। यह सच्चिदानंदस्वरूप लाबयान है। इस लाबयान का बयान मैं क्या करूँ ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 94

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काश ! यदि आज के नेता भी ऐसे होते….


(लाल बहादुर शास्त्री जयंतीः 2 अक्तूबर)

संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

सन् 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने देश की जनता से  अपील की थीः “घर का खर्चा कम कर दो क्योंकि युद्ध के समय सरकार को धन की अधिक आवश्यकता होती है।”

देश की जनता से तो ऐसी अपील की परन्तु इससे पहले ही स्वयं शास्त्री जी ने अपने घर के खर्चों में कटौती कर दी थी। उनकी पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री प्रायः अस्वस्थ रहती थीं। उनके घर में सफाई करने तथा कपड़े धोने के लिए एक बाई आती थी। शास्त्री जी ने उस बाई को दूसरे दिन से आने के लिए मना कर दिया। जब बाई ने पूछा किः “कपड़े धोने और सफाई का काम कौन करेगा ?” तब शास्त्री जी ने कहाः “अपने कपड़ों और कमरे की सफाई मैं स्वयं कर लूँगा तथा बाकी के घर की सफाई अपने बच्चों से करवा लूँगा।”

शास्त्री जी के सबसे बड़े बेटे को ʹअंग्रेजीʹ का टयूशन पढ़ाने के लिए एक अध्यापक उनके घर आता था। शास्त्री जी ने उसे भी आने से मना कर दिया। अध्यापक ने कहाः “आपका बेटा अंग्रेजी में बहुत कमजोर है। यदि परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होगा तो उसका एक साल बर्बाद हो जायेगा।” इस पर शास्त्री जी ने कहाः “इस देश के लाखों बच्चे हर साल अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। यदि मेरा बेटा भी अनुत्तीर्ण हो जायेगा तो इसमें कौन सी बड़ी बात है ? मैं कोई विशेष व्यक्ति तो हूँ नहीं।”

एक दिन शास्त्री जी की पत्नी ललिता जी ने कहाः “आपकी धोती फट गयी है। आप नहीं धोती ले आइये।” शास्त्री जी बोलेः “अच्छा तो यह होगा कि तुम सुई-धागे से इसकी सिलाई कर दो। अभी नयी धोती लाने के बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैंने ही अपने देशवासियों से बचत का आह्वान किया है अतः मुझे स्वयं भी इसका पालन करना चाहिए। मैं भी इस देश का एक नागरिक हूँ और देश के मुखिया के पद पर आसीन होने के नाते यह नियम सबसे पहले मेरे ही घर से लागू होना चाहिए।”

धन्य हैं ऐसे प्रधानमंत्री ! ऐसी निःस्वार्थ महान आत्माएँ जब किसी पद पर बैठती हैं तो उस पद की शोभा बढ़ती है। यदि देश की सम्पत्ति को घोटालेबाजी से स्विस बैंकों में जमा करने वाले भारत के घोटालेबाज नेता शास्त्री जी की सीख को अपने जीवन में अपनाते तो देश और अधिक उन्नति की राह पर होता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 17, अंक 94

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आत्मज्ञान के प्रकाश से अँधेरी अविद्या को मिटाओ


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मिथ्या प्रपंचच देख दुःख जिन आन जीय।

देवन को देव तू तो सब सुखराशि है।।

अपने अज्ञान ते जगत सारो तू ही रचा।

सबको संहार कर आप अविनाशी है।।

यह संसार मिथ्या व भ्रममात्र है लेकिन अविद्या के कारण सत्य भासता है। नश्वर शरीर में अहंबुद्धि तथा परिवर्तनशील परिस्थितियों में सत्यबुद्धि हो गयी है इसीलिए दुःख एवं क्लेश होता है। वास्तव में देखा जाये तो परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं लेकिन परिस्थितियों का जो आधार है, अधिष्ठान है वह नहीं बदलता।

ʹबचपन बदल गया। किशारावस्था बदल गयी। जवानी बदल गयी। अब बुढ़ापे ने घेर रखा है… लेकिन यह भी एक दिन बदल जायेगा। इन सबके बदलने पर भी जो नहीं बदलता, वह अबदल चेतना आत्मा ʹमैंʹ हूँ और जो बदलता है वह माया है….ʹ सदाचार व आदर के साथ ऐसा चिन्तन करने से बुद्धि स्वच्छ होती है और बुद्धि के स्वच्छ होने से ज्ञान का प्रकाश चमकने लगता है।

जिनके भाल के भाग्य बड़े, अस दीपक ता उर लसके।

ʹयह ज्ञान का दीपक उन्हीं के उर-आँगन में जगमगाता है, जिनके भाल के भाग्य-सौभाग्य ऊँचे होते हैं।ʹ उन्हीं भाग्यशालियों के हृदय में ज्ञान की प्यास होती है और सदगुरु के दिव्य ज्ञान व पावन संस्कारों का दीपक जगमगाता है। पातकी स्वभाव के लोग सदगुरु के सान्निध्य की महिमा क्या जानें ? पापी आदमी ब्रह्मविद्या की महिमा क्या जाने ? संसार को सत्य मानकर अविद्या का ग्रास बना हुआ, देह के अभिमान में डूबा हुआ यह जीव आत्मज्ञान की महिमा बताने वाले संतों की महिमा क्या जाने ?

पहले के जमाने में ऐसे आत्मज्ञान में रमण करने वाले महापुरुषों की खोज में राजा-महाराजा अपना राज-पाट तक छोड़कर निकल जाते थे और जब ऐसे महापुरुष को पाते थे तब उन्हें सदा के लिए अपने हृदय-सिंहासन पर स्थापित करके उनके द्वार पर ही पड़े रहते थे। गुरुद्वार पर रहकर सेवा करते, झाड़ू-बुहारी लगाते, भिक्षा माँगकर लाते और गुरुदेव को अर्पण करते। गुरु उसमें से प्रसाद के रूप में जो उन्हें देते, उसी को वे ग्रहण करके रहते थे। थोड़ा बहुत समय बचता तो गुरु कभी-कभार आत्मविद्या के दो वचन सुना देते। इस प्रकार वर्षों की सेवा-साधना से उनकी अविद्या शनैः-शनैः मिटती और उनके अंतर में आत्मविद्या का प्रकाश जगमगाने लगता।

आत्मविद्या सब राजाओं में सर्वोपरि विद्या है। अन्य विद्याओं में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियाँ बड़ी ऊँची चीजे हैं। पूरी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट से भी अष्टसिद्धि-नवनिधि का स्वामी बड़ा होता है लेकिन वह भी आत्मविद्या पाने के लिए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की शरण में रहता है।

हनुमान जी के पास अष्टसिद्धियाँ एवं नवनिधियाँ थीं फिर भी आत्मविद्या पाने के लिए वे श्रीरामजी की सेवा में तत्परता से जुटे रहे और अंत में भगवान श्रीराम द्वारा आत्मविद्या पाने में सफल भी हुए। इससे बड़ा दृष्टांत और क्या हो सकता है ? हनुमान जी बुद्धिमानों में अग्रगण्य थे, संयमियों में शिरोमणि थे, विचारवानों में सुप्रसिद्ध थे, व्यक्तियों को परखने में बड़े कुशल थे, छोटे बड़े बन जाना, आकाश में उड़ना आदि सिद्धियाँ उनके पास थीं, फिर भी आत्म-साक्षात्कार के लिए उन्होंने श्रीरामजी की जी-जान से सेवा की। हनुमान जी कहते हैं-

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम….

हनुमान जी की सारी सेवाएँ तब सफल हो गयीं जब श्रीरामजी का हृदय छलका और उन्होंने ब्रह्मविद्या देकर हनुमानजी की अविद्या को सदा-सदा के लिए दूर कर दिया।

मानव संसार को सत्य मानकर उसी में उलझा हुआ है और अपना कीमती जीवन बरबाद कर रहा है। जो वास्तव में सत्य है उसकी उसे खबर नहीं है और जो मिथ्या है उसी को सत्य मानकर, उसी में आसक्ति रखकर फँस गया है।

जो विद्यमान न हो किन्तु विद्यमान की नाईं भासित हो, उसको अविद्या कहते हैं। इस अविद्या से ही अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश पैदा होते हैं। अविद्या ही सब दुःखों की जननी है।

अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश-इनको ʹपंच-क्लेशʹ भी कहते हैं। पंच-क्लेश आने से षडविकार भी आ जाते हैं। उत्पत्ति (जन्मना), स्थिति (दिखना), वृद्धि (बढ़ना), रूग्णता (बीमार होना), क्षय (वृद्ध होना) और नष्ट होना – ये षडविकार अविद्या के कारण ही अपने में भासते हैं। इन षडविकारों के आते ही अनेक कष्ट भी आ जाते हैं और उन कष्टों को झेलने में ही जीवन पूरा हो जाता है। फिर जन्म होता है एवं वही क्रम शुरु हो जाता है। इस प्रकार एक नहीं, अनेकों जन्मों से जीव इसी श्रृंखला में, जन्म-मरण के दुष्चक्र में फँसा है।

गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक गंगा नदी में जितने रेत के कण होंगे उसे कोई भले ही गिन ले लेकिन इस अविद्या के कारण यह जीव कितने जन्म भोगकर आया है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

इस जन्म मरण के दुःखों  से सदा के लिए छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि अविद्या को आत्मविद्या से हटाने वाले सत्पुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए लग जाना चाहिए। जैसे, भूख को भोजन से तथा प्यास को पानी से मिटाया जाता है, ऐसे ही अज्ञान को, अँधेरी अविद्या को आत्मज्ञान के प्रकाश से मिटाया जा सकता है।

ब्रह्मविद्या के द्वारा अविद्या को हटाने मात्र से आप ईश्वर में लीन हो जाओगे। फिर हवाएँ आपके पक्ष में बहेंगी, ग्रह और नक्षत्रों का झुकाव आपकी ओर होगा, पवित्र लोकमानस आपकी प्रशंसा करेगा एवं आपके दैवी कार्य में मददगार होगा। बस, आप केवल उस अविद्या को मिटाकर आत्मविद्या में जाग जाओ। फिर लोग आपके दैवी कार्य में भागीदार होकर अपना भाग्य सँवार लेंगे, आपका यशोगान करके अपना चित्त पावन कर लेंगे। अगर अविद्या हटाकर उस परब्रह्म परमात्मा में दो क्षण के लिए भी बैठोगे तो बड़ी-से-बड़ी आपदा टल जायेगी।

जो परमात्मदेव का अनुभव नहीं करने देती उसी का नाम अविद्या है। ज्यों-ज्यों आप बुराइयों को त्यागकर उन्हें दुबारा न करने का हृदयपूर्वक संकल्प करके ब्रह्मविद्या का आश्रय  लेते हैं, ईश्वर के रास्ते पर चलते हैं त्यों-त्यों आपके ऊपर आने वाली मुसीबतें ऐसे टल जाती हैं जैसे कि सूर्य को देखकर रात्रि भाग जाती है।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! जिनको संसार में रहकर ही ईश्वर की प्राप्ति करनी हो, उन्हें चाहिए कि अपने समय के तीन भाग कर दें- आठ घंटे खाने-पीने, सोने नहाने-धोने आदि में लगायें, आठ घंटे आजीविका के लिए लगायें एवं बाकी के आठ घंटे साधना में लगायें…. सत्संग-सत्शास्त्र-विचार, संतों की संगति एवं सेवा में लगायें। जब शनैः शनैः अविद्या मिटने लगे तब पूरा समय अविद्या मिटाने के अभ्यास में लगा दें।”

इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के कृपा-प्रसाद को पचाकर तथा आत्मविद्या को पाकर अविद्या के अंधकार से, जगत के मिथ्या प्रपंच से सदा के लिए छूट सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 94

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