संतों से कुछ न माँगिये

संतों से कुछ न माँगिये


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

ʹयदि संतों से कुछ भी न माँगिये तो भी वे अमृतरूपी वचनों की वर्षा कर देते हैं। जैसे पुष्पों से बिना माँगे सुगंध प्राप्त होती है ऐसे ही संतजनों से बिना माँगे ही ज्ञान का अमृत प्राप्त हो जाता है।ʹ

यह जरूरी नहीं कि भगवान एवं संतों से माँगते ही रहें। न माँगें तब भी देना उनका स्वभाव है। फूलों से कुछ नहीं माँगते, फिर भी सुगंध देना उनका स्वभाव है। चाँद से कुछ नहीं माँगते, फिर भी चाँदनी बरसाना उसका स्वभाव है। गंगाजी से कुछ नहीं माँगते फिर भी शीतलता देना उनका स्वभाव है।

जरूरी नहीं कि माँगे तभी मिले। कुछ लोग कहते हैं- ʹमुझे आशीर्वाद दीजिये… मुझे तो थोड़ा-सा आशीर्वाद दीजिये, महाराज !… मुझे तो स्पेशियलʹ आशीर्वाद दीजिए।ʹ आशीर्वाद भी कभी ʹस्पेशियलʹ और ʹआर्डिनरीʹ होता है ? खाने-पीने आदि की चीजें ʹस्पेशियलʹ और आर्डिनरी होती हैं, आशीर्वाद थोड़े ही स्पेशियल होता है।

संतों के पास जाकर लोग कहते हैं- ʹमुझे यह दीजिए…. मुझे वह दीजिये….ʹ ये सब बहुत छोटी बातें हैं, तुच्छ चीजों की माँगें हैं। जैसे राजा से कोई माँगे किः ʹमुझे बिस्किट दे दीजिये… डबलरोटी दे दीजिये… मुझे एक कप दूध दे दीजिये….ʹ तो राजा को होगा किः ʹकैसा आदमी है ?ʹ वह अपने सेवकों से कहेगाः ʹअरे भाई ! इसे दे दो, जो माँग रहा है।ʹ

ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों से भी जगत की नश्वर चीजों की याचना करते हैं। अरे ! आप स्वयं ध्यान-भजन में लग जाओ तो जगत की चीजें दासी की नाईं आपकी सेवा में लग जायेंगी। ध्यान-भजन तो करते नहीं, फिर टोने-टोटके करवाकर, दवाइयाँ खाकर मर रहे हैं। ध्यान का, शक्तिपात शिविर का लाभ तो उठाते नहीं और पड़ जाते हैं टोने-टोटके के चक्कर में।

टूना-फूना टोटका, सभी दीजै धोये।

गुरु कहे सो कीजिये, आपे ही फल होय।।

यहाँ जो मंत्र बताते हैं उसे भी काटकर अपना अगर-मगर चलाने लग जाते हैं। गुरु के वचन को भी काट देते हैं फिर भटकते रहते हैं। संतों के वचनों की कीमत नहीं समझते। मूर्खों को संतों का सान्निध्य मुफ्त में मिलता है तो उससे प्राप्त पुण्यों को वे दुनिया के भोग-पदार्थ में ऐसे ही खर्च कर देते हैं फिर दुबारा भिखमंगों की नाईं संसार की वस्तुएँ माँगते रहते हैं। संत हीरे-मोती लेकर बैठे हैं उनका तो कोई ग्राहक नहीं मिलता और लोग सब्जी-भाजी माँगने लगते हैं। जौहरी से, आत्म-खजाने के मालिक से हीरे-मोती लो, सब्जी-भाजी क्यों लेते हो ?

मुख्य कारण है विचार एवं तड़प की कमी…. तभी ऐसा होता है। गुरु की, भगवान की कृपा तो ठीक है लेकिन साथ ही अपना विचार एवं तड़प भी चाहिए। अगर स्वयं विचार किये बिना और तड़प के बिना आत्म-साक्षात्कार हो जाये तो अर्जुन के सिर पर अपना हाथ रख देते श्रीकृष्ण। संत-महापुरुष अपने को इतना क्यों खपाते ? गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख देते और कह देतेः ʹजा बेटा ! आत्म-साक्षात्कारी भव।ʹ ऐसा करके निपटारा कर लेते। नहीं… सिर पर हाथ रखने से आत्म-साक्षात्कार नहीं होता।

आशीर्वाद से संसार की चीजें और छोटी-मोटी परिस्थितियाँ तो मिल सकती हैं, पर ब्रह्मज्ञान तो अपने विचार से ही होगा। माँ कृपा करके भोजन के कौर मुँह में भी रख सकती है लेकिन चबाने के लिए तो अपने को ही मेहनत करनी पड़ेगी। बालक स्वयं नहीं चबायेगा तो पुष्ट कैसे होगा ? ऐसे ही साधक विचार नहीं करेगा तो ज्ञान कैसे होगा ?

यदि विचार के बिना ही आदिनारायण मुक्ति दे दें तो फिर वृक्षों एवं पशु-पक्षियों को मुक्त क्यों नहीं कर देते ? हम तो चाहते हैं कि सब मुक्त हो जायें। जैसे शराबी चाहता है कि दूसरा शराबी हो, जुआरी चाहता है कि दूसरा जुआरी हो ऐसे ही भगवान और संत चाहते हैं कि दूसरे भी मुक्त हों। लेकिन भगवान और संत भी क्या करें ? दूसरा जब विचार करेगा तभी तो मुक्त होगा। मुक्ति की जिसको प्यास होगी, तड़प होगी, वही मुक्त होगा।

संसार का पूरा राजपाट एक व्यक्ति को मिल जाये लेकिन मुक्ति की प्यास नहीं है तो वह बड़ा अभागा है। जिसको मुक्ति की प्यास है और संसार की वस्तुओं में अरुचि है वह भाग्यशाली है क्योंकि मुक्ति की प्यास ही उसको संतों के निकट ले जायेगी।

मुक्ति की प्यास जगती है संतों के दैवी कार्य में सहभागी होने पर। निष्काम कर्म एवं भगवद भक्ति से मुक्ति की प्यास जगती है। सत्संग के द्वारा धीरे-धीरे मुक्ति की प्यास जगती है तो काम बन जाता है, नहीं तो करोड़ों जन्म ऐसे ही व्यर्थ चले जाते हैं।

जगत के सुख आदमी को इतना बेवकूफ बना देते हैं कि व्यावहारिक तौर पर तो वह भोग भोगता ही है, चित्र देखकर भी भोग-भोगने की कल्पना में मारा जाता है। आदमी कितना पराधीन हो जाता है ! वह जिन्दा मनुष्य से तो भीख माँगता ही है, मुर्दे से भी, मजारों से भी माँगता रहता है किः “हे फलाने पीर ! मुझे यह दे दे, वह दे दे….”

अखा भगत ने कहा हैः

सजीवाए निर्जीवाने घड़यो, पछी कहे के मने कंईक दे।

अखो तमने ई पूछे के, तमारी एक फूटी के बे ?

ʹसजीव व्यक्ति ने निर्जीव मूर्ति को बनाया और फिर उसी के आगे गिड़गिड़ाता है कि मुझे कुछ दे। अखा भगत पूछता है कि तुम्हारी एक (आँख) फूट गयी है कि दो ?ʹ

भगवान से भी दिन-रात माँगते रहते हैं। जो बिना माँगे दिन-रात आपकी खबर ले रहा है उसको भी माँग-माँगकर परेशान करते रहते हैं। भगवान झूलेलाल, अम्बे माता, भगवान नारायण आदि की मूर्तियों के आगे गिड़गिड़ाते रहते हैं किन्तु वे अपने अंतर्यामी परमात्मा को क्यों नहीं रिझाते ? मंदिर के देवता की मूर्ति के तो तब दर्शन होंगे जब पुजारी दरवाजा खोलेगा। अज्ञान से इधर-उधर भगवान को खोजते हैं और जो हाजरा-हजूर है, दिल में बैठा है उसका विचार तक नहीं करते। दिल में बैठे हुए देवता को नहीं रिझाया तो मंदिर में बैठे हुए देवता को कब तक रिझाते रहोगे ? मंदिर के देवता को रिझाने का फल यही है कि दिल के देवता को रिझाने की युक्ति बताने वाले किन्हीं संत-महापुरुष का सत्संग मिल जाये।

विचार करने की कला आ जाये किः ʹमैं कौन हूँ ? सुख-दुःख का अनुभव किसे होता है ? कान ठीक से सुनते हैं कि नहीं, उसको देखने वाला मैं कौन हूँ ? जिह्वा को खट्टा-मीठा, खारा-खट्टा आदि स्वाद का ज्ञान किसकी सत्ता से मिलता है ? नाक को सूँघने की सत्ता कहाँ से मिलती है ?ʹ ऐसा विचार करते-करते अपने को खोजें।

जिन खोजा तिन पाइयाँ….

जो साधारण जीव हैं उनके लिए सामान्य पूजा कही गयी है – मंदिर की, वृक्ष की, गंगा-यमुना-सरस्वती आदि पवित्र नदियों की पूजा लेकिन जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो विचारवान् है उसके लिए अपनी आत्मा ही देव है। वह रोम-रोम में रम रहा है इसलिए उसको ʹरामʹ कहते हैं। वह सबको कर्षित-आकर्षित करता है इसीलिए उसको ʹकृष्णʹ बोलेत हैं। वह शक्ति का उदगम स्थान है इसीलिए उसे आद्यशक्ति जगदंबा बोलते हैं। वह इन्द्रियगणों का स्वामी है
इसीलिए उसको ʹगणपतिʹ बोलते हैं, उसके सिवा और कुछ नहीं है। ʹला इल्लाह इल इल्लाह इसीलिए उसको ʹअल्लाहʹ बोलते हैं… है वही आत्मदेव, जो अपना-आपा होकर बैठा है।

उस अंतर्यामी आत्मदेव को छोड़कर जो उसे बाहर ढूँढता फिरता है,  वह ʹकर्मलेढ़ीʹ है। हाथ में आये हुए मक्खन के पिण्ड को छोड़कर छाछ चाटता है। ʹकर्मलेढ़ीʹ न बनें। अपने आत्मदेव का ध्यान करें, चिंतन करें, स्मरण करें तो संसार की असारता का अनुभव हो जायेगा और आत्ममस्ती बढ़ जायेगी। ऐसी आत्ममस्ती में मस्त फकीर स्वामी रामतीर्थ ने ही गाया हैः

मस्त पड़ा है अपनी महिमा में, गैर राम अब और नहीं।

क्या हमसे भेद छुपाते हैं ? हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ऋषियों के आइने में, मेरा ही नूर दर्शाया था।

मुझ से ही शायर लाते हैं, हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ज्ञानवानों का अनुभव होता है किः “वैद्यों का वैद्यकीय ज्ञान भी मुझ आत्मा से आता है, विज्ञानियों का विज्ञान भी मुझ आत्मा से निकलता है, बुद्धिमानों की बुद्धि भी मुझ आत्मा से फुरती है, जिह्वा से मैं ही चखता हूँ, कानों से मैं ही सुनता हूँ, नाक से मैं ही सूँघता हूँ और मन से संकल्प-विकल्प भी मैं ही करता हूँ। ये सब करते हुए भी मैं इन सबसे असंग अमर आत्मा हूँ। ऐसा जो मुझको जानता है वह स्वयं को भी अमर आत्मा जानकर मुक्त हो जाता है। अगर मुझे कोई देहधारी मानता है तो वह भी देहधारी के भाव में फँस मरता है। मैं देह में होते हुए भी देहातीत हूँ। दिखता हूँ फिर भी अदृश्य हूँ और अदृश्य हूँ फिर भी सदृश्य हूँ। यह सच्चिदानंदस्वरूप लाबयान है। इस लाबयान का बयान मैं क्या करूँ ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 94

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