श्री सद्गुरुदेव के चरणकमलों का माहात्म्य
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजम्।
वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्।।
गुरु सर्व श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलवाले हैं और वेदान्त के अर्थों के प्रवक्ता हैं। इसलिए श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए।
देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थ वदामि तत्।
सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात्।।
जिन गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिए कहता हूँ।
शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः।
गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम्।।
श्री गुरु देव का चरणामृत पापरूप कीचड़ का सम्यक शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक उद्दीपक है और संसारसागर का सम्यक तारक है।
अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम्।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत्।।
अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जन्मों के कर्मों का निवारण करने वाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिए।
काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम्।
गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चयः।।
गुरुदेव का निवासस्थान काशीक्षेत्र है। श्री गुरुदेव का पादोदक गंगा जी है। गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और निश्चित ही साक्षात् तारक ब्रह्म हैं।
गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः।
तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनस्ततम्।।
गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है। गुरुदेव का शरीर अक्षय वटवृक्ष है। गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं। वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है।
सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत्।
गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम्।।
सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्री गुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा है।
दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम्।
तादृशस्यैव कैवल्यं न च तद्व्यतिरेकिणः।।
जब तक दृश्यप्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा अर्चना करनी चाहिए। ऐसा करने वाले को ही कैवल्यपद की प्राप्ति होती है, इससे विपरीत करने वाले को नहीं होती।
पादुकासनशय्यादि गुरुणा यदभीष्टितम्।
नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित्।।
पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सभी को नमस्कार करना चाहिए और उनको पैर से कभी भी नहीं छूना चाहिए।
विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया।
ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः।।
गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे संन्यासी हैं, अन्य तो मात्र वेशधारी हैं।
चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्राभाकरे न हि।
गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम्।।
गुरुदेव के श्रीचरणों में जो वेदान्तनिर्दिष्ट सुख है वह सुख न चार्वाक मत में, न वैष्णव मत में और प्राभाकर (सांख्य) मत में है।
गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम्।
सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चरणाम्बुजम्।।
गुरुभक्ति ही सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है। अन्य तीर्थ निरर्थक हैं। हे देवि ! गुरुदेव के चरणकमल सर्वतीर्थमय हैं।
सर्वतीर्थावगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः।
गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन्।।
श्री सदगुरु के चरणामृत का पान करने से और उसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्य सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त करता है।
गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्टभोजनम्।
गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः।।
गुरुदेव के चरणामृत का पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए।
यस्य प्रसादादहमेव सर्वं मय्येव सर्वं परिकल्पितं च।
इत्थं विजानामि सदात्मरूपं तरयांघ्रिपद्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम्।।
मैं ही सब हूँ, मुझमें ही सब कल्पित है’ ऐसा ज्ञान जिनकी कृपा से हुआ है ऐसे आत्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों में मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।
आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।
ता सर्वाः सफला देवि गुरुसन्तोषमात्रतः।।
हे देवि ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।
ऐसे महिमावान श्री सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों का षोडषोपचार से पूजन करने से साधक-शिष्य का हृदय शीघ्र शुद्ध और उन्नत बन जाता है। मानस पूजा भी इस प्रकार कर सकते हैं।
मन ही मन भावना करो कि हम गुरुदेव के श्रीचरण धो रहे हैं…. सप्ततीर्थों के जल से उनके पादारविन्द को स्नान करा रहे है। खूब आदर एवं कृतज्ञतापूर्वक उनके श्रीचरणों में दृष्टि रखकर….. श्रीचरणों को प्यार करते हुए उनको नहला रहे हैं…. उनके तेजोमय ललाट में शुद्ध चन्दन का तिलक कर रहे हैं…. अक्षत चढ़ा रहे हैं…. अपने हाथों से बनाई हुई गुलाब के सुन्दर फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं….. हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर अपना अहंकार उनको समर्पित कर रहे हैं…. पाँच कर्मेन्द्रियों की पाँच ज्ञानेन्द्रियों की एवं ग्यारहवें मन की चेष्टाएँ गुरुदेव के श्रीचरणों में समर्पित कर रहे हैं……
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्याऽऽत्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।
करोमि यद् यद् सकलं परस्मै नारायणयेति समर्पयामि।।
‘शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव से जो-जो करते हैं वह सब समर्पित करते हैं। हमारे जो कुछ कर्म हैं, हे गुरुदेव ! सब आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं। हमारा कर्त्तापन का भाव, हमारा भोक्तापन का भाव आपके श्रीचरणों में समर्पित है।’ इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा को, ज्ञान को, आत्मशान्ति को हृदय में भरते हुए उनके अमृतवचनों पर अडिग बनते हुए अन्तर्मुख होते जाओ…. आनन्दमय होते जाओ…..
ॐ आनन्द ! ॐ आनन्द !! ॐ आनन्द !!!
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