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श्री सद्गुरुदेव के चरणकमलों का माहात्म्य


 

श्री सद्गुरुदेव के चरणकमलों का माहात्म्य

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजम्।

वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्।।

गुरु सर्व श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलवाले हैं और वेदान्त के अर्थों के प्रवक्ता हैं। इसलिए श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए।

देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थ वदामि तत्।

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात्।।

जिन गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिए कहता हूँ।

शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः।

गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम्।।

श्री गुरु देव का चरणामृत पापरूप कीचड़ का सम्यक शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक उद्दीपक है और संसारसागर का सम्यक तारक है।

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम्।

ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत्।।

अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जन्मों के कर्मों का निवारण करने वाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिए।

काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम्।

गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चयः।।

गुरुदेव का निवासस्थान काशीक्षेत्र है। श्री गुरुदेव का पादोदक गंगा जी है। गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और निश्चित ही साक्षात् तारक ब्रह्म हैं।

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः।

तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनस्ततम्।।

गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है। गुरुदेव का शरीर अक्षय वटवृक्ष है। गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं। वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है।

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत्।

गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम्।।

सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्री गुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा है।

दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम्।

तादृशस्यैव कैवल्यं न च तद्व्यतिरेकिणः।।

जब तक दृश्यप्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा अर्चना करनी चाहिए। ऐसा करने वाले को ही कैवल्यपद की प्राप्ति होती है, इससे विपरीत करने वाले को नहीं होती।

पादुकासनशय्यादि गुरुणा यदभीष्टितम्।

नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित्।।

पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सभी को नमस्कार करना चाहिए और उनको पैर से कभी भी नहीं छूना चाहिए।

विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया।

ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः।।

गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे संन्यासी हैं, अन्य तो मात्र वेशधारी हैं।

चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्राभाकरे न हि।

गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम्।।

गुरुदेव के श्रीचरणों में जो वेदान्तनिर्दिष्ट सुख है वह सुख न चार्वाक मत में, न वैष्णव मत में और प्राभाकर (सांख्य) मत में है।

गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम्।

सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चरणाम्बुजम्।।

गुरुभक्ति ही सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है। अन्य तीर्थ निरर्थक हैं। हे देवि ! गुरुदेव के चरणकमल सर्वतीर्थमय हैं।

सर्वतीर्थावगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः।

गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन्।।

श्री सदगुरु के चरणामृत का पान करने से और उसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्य सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त करता है।

गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्टभोजनम्।

गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः।।

गुरुदेव के चरणामृत का पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए।

यस्य प्रसादादहमेव सर्वं मय्येव सर्वं परिकल्पितं च।

इत्थं विजानामि सदात्मरूपं तरयांघ्रिपद्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम्।।

मैं ही सब हूँ, मुझमें ही सब कल्पित है’ ऐसा ज्ञान जिनकी कृपा से हुआ है ऐसे आत्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों में मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ता सर्वाः सफला देवि गुरुसन्तोषमात्रतः।।

हे देवि ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।

ऐसे महिमावान श्री सदगुरुदेव के  पावन चरणकमलों का षोडषोपचार से पूजन करने से साधक-शिष्य का हृदय शीघ्र शुद्ध और उन्नत बन जाता है। मानस पूजा भी इस प्रकार कर सकते हैं।

मन ही मन भावना करो कि हम गुरुदेव के श्रीचरण धो रहे हैं…. सप्ततीर्थों के जल से उनके पादारविन्द को स्नान करा रहे है। खूब आदर एवं कृतज्ञतापूर्वक उनके श्रीचरणों में दृष्टि रखकर….. श्रीचरणों को प्यार करते हुए उनको नहला रहे हैं…. उनके तेजोमय ललाट में शुद्ध चन्दन का तिलक कर रहे हैं…. अक्षत चढ़ा रहे हैं…. अपने हाथों से बनाई हुई गुलाब के सुन्दर फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं….. हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर अपना अहंकार उनको समर्पित कर रहे हैं…. पाँच कर्मेन्द्रियों की पाँच ज्ञानेन्द्रियों की एवं ग्यारहवें मन की चेष्टाएँ गुरुदेव के श्रीचरणों में समर्पित कर रहे हैं……

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्याऽऽत्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।

करोमि यद् यद् सकलं परस्मै नारायणयेति समर्पयामि।।

‘शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव से जो-जो करते हैं वह सब समर्पित करते हैं। हमारे जो कुछ कर्म हैं, हे गुरुदेव ! सब आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं। हमारा कर्त्तापन का भाव, हमारा भोक्तापन का भाव आपके श्रीचरणों में समर्पित है।’ इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा को, ज्ञान को, आत्मशान्ति को हृदय में भरते हुए उनके अमृतवचनों पर अडिग बनते हुए अन्तर्मुख होते जाओ…. आनन्दमय होते जाओ…..

ॐ आनन्द ! ॐ आनन्द !! ॐ आनन्द !!!

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यज्ञ विधि


 

हवन विधि

यज्ञ कर्म विधि

आचमन-

ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः, ॐ  ऋषिकेशाय नमः इति हस्तप्रक्षालनम्।

पवित्रिकरण-

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः।।

तिलक-

ॐ स्वस्तिस्त्वया विनाशाख्या पुण्य कल्याण वृद्धिदा।

विनायकं प्रिया नित्यं त्वां च स्वस्तिं ब्रुवंतुनः।।

रक्षासूत्र (मौली) बंधन- (हाथ में)

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल।

तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचल।।

दीप पूजन- पूर्णाहुति

भो दीप देवरूपस्त्वं कर्म साक्षीह्यविघ्नकृत्।

यावत् पूजासमाप्तिः स्यात् तावत् त्वं सुस्थिरो भव।।

ॐ दीपदेवताभ्यो नमः, ध्यायामि, आवाहयामि, स्थापयामि, सर्वोपचारैः गंधाक्षतपुष्पं समर्पयामि।।

देवता स्मरण- हाथ जोड़कर

श्रीमन्महागणाधिपतये नमः। श्रीगुरुभ्यो नमः। इष्टदेवताभ्यो नमः। कुलदेवताभ्यो नमः। ग्रामदेवताभ्यो नमः। वास्तुदेवताभ्यो नमः। स्थानदेवताभ्यो नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। उमामहेश्वाराभ्यां नमः। वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। शचीपुरन्दनाभ्यां नमः। मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।

पूजन का संकल्प- हाथ में जल-पुष्प लेकर संकल्प करेंगे।

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्राह्मणोअह्नि द्वितिये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे, कलि प्रथम चरणे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, …… प्रदेशे ….. नगरे …… ग्रामे  मासानां मासोत्तमेमासे महामांगलिक मासे ….. मासे शुभे ….. पक्षे ….. तिथौ वासराधि ….. वासरे अद्य अस्माकं सद्गुरु देव संत श्री आशाराम जी बापूनां आपदा निवाराणार्थे आयुः, आरोग्य, यशः, कीर्ती, पुष्टि तथा आध्यात्मिक शक्ति वृद्धि अर्थे ॐ ह्रीं ॐ मंत्रस्य हवन काले संकल्पं अहं करिष्ये।

गुरुपूजन- हाथ में अक्षत पुष्प लेकर सदगुरु देव का ध्यान करें-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः…….. तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

कलश पूजन- हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर कलश में वरुणदेवता तथा अन्य सभी तीर्थों का आवाहन करेंगे-

ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवे।

तेन सत्येन में देव तीर्थं देहि दिवाकर।।

(अक्षत पुष्प कलश पर चढ़ा दें।)

यज्ञ कर्म प्रारंभ

रक्षा विधान-

बायें हाथ में अक्षत लेकर दायें हाथ से दशों दिशाओं में छाँटते हुए निम्न मंत्र  बोलें।

अपक्रमन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशः।

सर्वेषामविरोधेन यज्ञकर्म समारम्भे।।

अग्नि स्थापन- यज्ञकुंड पर घृत की कटोरी के पास जल की कटोरी स्थापित करें।

इस मंत्र के उच्चारण से अग्नि प्रज्वलित करें-

अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जात वेदं हुताशनम्।

हिरण्यवर्णममलं समिद्धं विश्वतोमुखम्।।

इसके बाद- ॐ गं गणपतये नमः स्वाहा। (8 आहुतियाँ)

ॐ सूर्यादि नवग्रह देवेभ्यो नमः स्वाहा। (1 आहुति) दें।

पश्चात – ॐ ह्रीं ॐ मंत्र की 11 माला आहुतियाँ दें।

कटोरी में बची हुई पूरी सामग्री को निम्न मंत्रों के साथ तीन बार में ही डाल दें-

ॐ श्रीपतये स्वाहा।

ॐ भुवनपतये स्वाहा।

ॐ भूतानांपतये स्वाहा।

ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।

पूर्णाहुति होम- नारियल को होमें।

पूर्णमदः पूर्णमिदं,  पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

वसोधारा- यज्ञकुंड में घृत की धार करें।

आरती- ज्योत से ज्योत जगाओ……

कर्पूर गौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं

सदावसन्तं हृदयारविंदे भवं भवानि सहितं नमामि।

दोहा-

साधक माँगे माँगणा, प्रभु दीजो मोहे दोय।

बापू हमारे स्वस्थ रहें, आयु लम्बी होय।।

घृतावघ्राणम्- यज्ञकुंड पर जलपात्र में टपकाया गया घृत दोनों हथेलियों पर रगड़ लें। यज्ञकुंड पर तपा कर सुगंध लें।

भस्माधारणम्- भस्म बापू जी को लगाकर स्वयं लगायें।

पुष्पांजलि-

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा, बुद्धयात्मनावा प्रकृतेः स्वभावात्।

करोमि यद् यद् सकलं परस्मै, श्रीसद्गुरुदेवायेति समर्पयामि।।

ॐ श्री सद्गुरु परमात्मने नमः। मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।

ततो नमस्कारम् करोमि।

प्रदक्षिणा- सभी लोग यज्ञकुंड की परिक्रमा करें।

यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च।

तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणः पदे-पदे।।

साष्टांग प्रणाम- सभी साष्टांग प्रणाम करेंगे।

क्षमा प्रार्थना- हाथ जोड़कर सभी क्षमा प्रार्थना करें।

ॐ आवाहनं न जानामि, न जानामि तवार्चनम्।

विसर्जनं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर !।।

मंत्रहीनं क्रियाहीनं, भक्तिहीनं सुरेश्वर !

यत्पूजितं मया देव ! परिपूर्णं तदस्तु में।।

विसर्जनम्- पूजन के लिए आवाहित देवी-देवताओं के विसर्जन की भावना करते हुए हाथ में अक्षत लेकर देव स्थापन पर चढ़ायेंगे।

ॐ गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ, स्वस्थाने परमेश्वर !

यत्र ब्रह्मादयो देवाः, तत्र गच्छ हुताशन ! ।।

जयघोष करें। ‘तं नमामि हरिं परम्।’ -3

।। पूर्णाहुति।।

‘तं नमामि हरिं परम्।’ -3

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पुरुष सूक्त


चतुर्मास में विशेष पठनीय

पुरुष सूक्त

जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ‘पुरुष सूक्त’ का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है।

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः। हरिः ओम्।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात।

स भूमिँ सर्वतः स्पृत्वाऽत्चतिष्ठद्यशाङ्गुलम्।।1।।

जो सहस्रों सिर वाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरण वाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।

पुरुषऽएवेवँ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।

जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि।।4।।

चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।

स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।।5।।

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये।।6।।

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु, हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।7।।

उस विराट यज्ञ-पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।

तस्मादश्वाऽजायन्त ये के चोभयादतः।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताऽअजावयः।।8।।

उस विराट यज्ञ-पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।

तेन देवाऽअयजन्त साध्याऽऋषयश्च ये।।9।।

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि-यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्यासीत किं बाहू किमूरू पादाऽउच्येते।।10।।

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽअजायत।।11।।

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्म व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।12।।

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ।।12।।

नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षँ शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत।

पद्भ्याँ भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ऽकल्पयन्।।13।।

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः।।14।।

जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।

देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽअबध्नन् पुरुषं पशुम्।।15।।

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!! (यजुर्वेदः 31.1-16)

सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकाररहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं। (यजुर्वेदः 31.18)

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