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साधना में तीव्र उन्नति हेतु 6 संकल्प


गुरुपूनम महोत्सव साधकों को अगली ऊँचाइयों पर लाने का महोत्सव है। इस गुरुपूनम का नया पाठ। पहला, ब्रह्म मुहूर्त में तुम उठते होंगे। जो नहीं उठता होगा वह भी उठने का इस दिन से पक्का संकल्प करे कि ‘मैं सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठूँगा।’ सूरज उगने से सवा दो घंटे पहले से ब्रह्ममुहूर्त शुरु हो जाता है। फिर आप सूर्योदय से दो घंटा, डेढ़ घंटा या एक घंटा भी पहले उठते हैं तो ब्रह्ममुहूर्त में उठे। ब्राह्ममुहूर्त में उठने से भाग्योदय होता है, आरोग्य, आयुष्य बढ़ता है और नीच योनियों से सदा के लिए पिंड छूटता है।

दूसरा प्रण, उत्तर या पूर्व दिशा की तरफ बैठकर ध्यान-भजन, साधना करना। इससे दिव्य तरंगें साधक को मदद करती हैं।

तीसरा संकल्प, आप जप करते हैं तो एक प्रकार की शक्ति पैदा होती है। अतः जब ध्यान-भजन करें तो नीचे विद्युत का कुचालक आसन बिछा हो, जिससे आपके जप की जो विद्युत है उसे अर्थिंग न मिले। आसन ऐसा हो कि कभी थकान महसूस हो तो आप लेट के शरीर को खींचकर ढीला छोड़ सकें और 2-5 मिनट शवासन में चले जायें। पूजा के कमरे में ऐसा वातावरण हो कि उसमें और कोई संसारी व्यवहार न हो। इससे वह कमरा साधन-भजन की तरंगों से तरंगित रहेगा। कभी भी कोई मुसीबत आये या कुछ पूछना है तो जैसे मित्र से टेलिफोन पर बात करते हैं ऐसे गुरु और परमात्मा रूपी मित्र से सीधी बात करने का आपका एक साधन मंदिर बना दो। उसमें हो सके तो कभी ताजे फूल रखो – सुगंधि पुष्टिवर्धनम्। ताकि वे ज्ञानतंतुओं को पुष्ट कर दें। परफ्यूम तो काम केन्द्र को उत्तेजित करते हैं लेकिन ये फूल, तुलसी पुष्टिदायी है।

चौथी बात, त्रिबंध (मूलबंध, जालंधर बंध, उड्डीयान बंध) करके प्राणायाम करेंगे, आज से यह पक्का वचन दो। जो 3 करते हैं वे 4-5… ऐसे बढ़ाने का प्रयत्न करें। 10 तक करें। (किसी को फेफड़ों, हृदय आदि की कोई बीमारी हो तो वैद्य की सलाह लेकर प्राणायाम करें।)

पाँचवाँ संकल्प, साधन करते समय जब भी मौका मिले, जीभ को तालू में लगाना या तो दाँतों के मूल में लगाना। इससे आप जिस किसी के प्रभाव में नहीं आयेंगे। आपके प्रभाव में निगुरे लोग आयेंगे तो उनको फायदा होगा लेकिन आप उनके प्रभाव में आयेंगे तो आपको घाटा होगा। हमारे साधक किसी निगुरे के प्रभाव में न आयें। मैं तो कहता हूँ कि सगुरों के प्रभाव में भी न आयें। जीभ तालू में लगाने से यह काम हो जायेगा।

मनुष्य जाति का बड़े-में-बड़ा शत्रु है सुख का लालच और दुःख का भय। जानते हैं लेकिन सुख के लालच से जाना अनजाना करके गलत काम कर लेते हैं, फिर परिणाम में बहुत चुकाना पड़ता है। दुःख के भय से बचना हो तो जब भी दुःख का भय आये अथवा कोई डाँटे, उस समय जीभ तालु में लगा दो।

आबू की पुरानी बात है। किन्हीं संत से हम मिलने गये थे। वे बोलेः “महाराज जी ! यहाँ रात को शेर आते हैं और बंदरों को ऊपर उठा कर ले जाते हैं।”

मैंने कहाः “बंदर ऊपर होते हैं और शेर नीचे, फिर वे कैसे उठाते हैं ?”

“शेर दहाड़ता है तो बंदर डर के मारे गिर पड़ते हैं और शेर उन्हें उठाकर ले जाते हैं।” तो भय प्राणी के लिए हानिकारक है।

किसी भी बॉस के पास जाते हैं या इंटरव्यू देने जाते हैं अथवा कहीं जाते हैं और आप डरते हैं तो विफल हो जायेंगे। जीभ तालु में लगा के उसके सामने बैठो, उसका प्रभाव आप पर नहीं पड़ेगा, आपका चयन करने लेगा।

जीभ तालु में लगाना इसको ‘खेचरी मुद्रा’ बोलते हैं। इससे दूसरे फायदे भी होते हैं और एकाग्रता में बड़ी मदद मिलती है।

छठा साधन, कभी बैठे तो श्वास अंदर गया तो ॐ या राम, बाहर आया उसको गिना, श्वास अंदर गया तो आरोग्य, बाहर आया गिना, ऐसे यदि 108 तक श्वास गिरने का अभ्यास बना लेते हैं तो सफलता, स्वास्थ्य और खुशी तुम्हारे घर की चीज हो जायेगी। कौन नहीं चाहता है सफलता, स्वास्थ्य, खुशी ? सब चाहते हैं। जिन्होंने गुरुमंत्र लिया है उनको यह विद्या प्रसाद रूप में दे रहे हैं तो फलेगी। यदि इसकी महिमा सुनकर निगुरे करेंगे तो उनका उत्थान अपने बल से होगा और साधक गुरु का प्रसाद समझ के लेंगे तो उसमें भगवान की और गुरु की कृपा भी काम करेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 283

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शुभ संकल्पों के द्वारा रक्षा करने वाला पर्वः रक्षाबंधन


पूज्य बापू जी

ऋषिपूजन का दिवस, यज्ञोपवीत पहनने व बदलने का दिवस, स्वाध्याय और आत्मिक शुद्धि के लिए अनुष्ठान करने या पूर्णाहुति करने का दिवस है रक्षाबंधन।

कैसी है भारतीय संस्कृति, ऋषियों की परम्परा का चलाया धागा ! अगर ईमानदारी से आप इसका फायदा उठाते हैं तो आज का जवान पड़ोस की बहन को बहन कहने की जो लायकी खो बैठा है, युवती पड़ोस के भाई को भाई कहने की लायकी खो बैठी है, वह लायकी फिर से विकसित हो सकती है, युवा पीढ़ी की रक्षा हो सकती है, ब्रह्मचर्य की रक्षा हो सकती है। आपके अंदर देश की रक्षा, अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने वाला ऋषि-ज्ञान नहीं है तो दूसरे लोग आकर आपको क्या ऊपर ऊठायेंगे ! कोई भी आकर आपको क्या ऊपर उठायेंगे ! कोई भी आकर आपको ऊपर नहीं उठायेगा, जो आपके पास है उसको खींचने के लिए ही योजना बनायेगा। ऊपर तो आपको आत्मा उठायेगा, आपकी संस्कृति उठायेगी, आपका धर्म और ब्रह्मवेत्ता संत उठायेंगे।

मेरे सदगुरु को उनके शिष्यों ने राखी बाँधी थी। साधकों की यह कामना होती है कि ‘हमारे गुरुदेव अधिक-से-अधिक हम जैसों को परमात्म-अमृत पिलायें और राखी बाँधकर हम अपनी रक्षा चाहते हैं। गुरुदेव ! व्यासपूर्णिमा का पूजन करने के बाद महीनाभर हो गया, संसार में हम गये हैं, चाहते हैं ध्यान करना लेकिन मन इधर-उधर चला जाता है। चाहते हैं आत्मसाक्षात्कार करना लेकिन संसार के विषय-विकार हमें खींच लेते हैं। चाहते हैं सबमें समता लेकिन विषय विकार विषम कर देते हैं। इन विषय-विकाररूपी राक्षसों से हमारी रक्षा करना, संसाररूपी भोग से और जन्म-मरण के चक्कर से हमारी रक्षा करना।’ – इस  प्रकार की साधकों की भावना होती है, रक्षा चाहते हैं।

बहन भाई के द्वारा अपने धन-धान्य, सुख-समृद्धि व शील की रक्षा चाहती है, पड़ोस की बहन  पड़ोस के भाई के द्वारा अपनी इज्जत और शील की रक्षा चाहती है। साधक अपने संतों के द्वारा अपनी साधना की रक्षा चाहते हैं। यह राखी मंगलकारी संकल्पों को अभिव्यक्त करने का एक प्रतीक है। मनुष्य संकल्पों का पुंज है।

समुद्र की उपमा दी जाती है ज्ञानी को। यह दिवस समुद्र-पूजन का दिन है। समुद्रों का समुद्र जो परमात्मा है उसके पूजन का दिन है। व्यापारियों के लिए बाह्य समुद्र पूजने योग्य है और साधकों के लिए भीतर का समुद्र पूजने योग्य है। व्यापारी लोग इस दिन समुद्र की पूजा करते हैं। आप लोग भगवान के आशिक हैं, आपकी आँखों में प्रभुप्रेम है, श्रद्धा है और संसाररूपी समुद्र को तय करने के लिए आपके पास छोटी-सी साधना की नौका है। ‘ये ज्वार-भाटे आते रहते हैं। इनसे हमारी रक्षा होती रहे।’ – ऐसी सत्कामना साधकों की होती है और यह अच्छी भी है।

साधक का राखी बाँधने का भाव क्या ?

कई लोग चाहते हैं कि हमारा धन-धान्य, पुत्र-परिवार और बढ़े लेकिन साधक चाहता है कि मेरी जो ईश्वरीय मस्ती है, शांति है, एकाग्रता है, मेरा जो आत्मज्ञान का खजाना है, मौन है और मेरी जो ईश्वर के बारे में समझ है वह और बढ़े।

हमने कुंता जी से धागा नहीं बंधवाया है, कर्मावती या इन्द्राणी से धागा नहीं बंधवाया है, हमने साधक और साधिकाओं से धागा बँधवाया है। यह धागा बाँधना मतलब क्या ? ये धागे हमारे पास आ गये, साधक-साधिकाओं की दृष्टि मुझ पर पड़ी, मेरी दृष्टि उन पर पड़ी….. तो सूक्ष्म जगत में स्थूलता का कम मूल्य होता है, यहाँ सूक्ष्म संकल्प एक दूसरे की रक्षा करते हैं। जो देह में अहंबुद्धि करते हैं उनको धागे की याद चाहिए लेकिन जो ब्रह्म में या गुरु-तत्त्व में या आत्मा में अहंबुद्धि करते हैं उनको तो धागा देखने भर को है, बाकी तो उनके संकल्प ही एक दूसरे के लिए काफी हो जाते हैं।

राखी पूर्णिमा के दिन यज्ञ की भभूत शरीर को लगायें, मृत्तिका (मिट्टी) लगाकर स्नान करें, फिर गाय का गोबर लगा के स्नान करें। यह कितने ही दोषों एवं चर्मरोगों को खींच लेगा। इससे शारीरिक शुद्धि हो गयी। पंचगव्य पीने का दिन राखी पूनम है। और दिनों में भी पिया जाता है लेकिन इस दिन का कुछ विशेष महत्त्व है।

पर्व का आध्यात्मिक रूप

आध्यात्मिक ढंग से इस पर्व के दिन गौतम ऋषि, अरुंधती माँ को याद करके, वसिष्ठजी, विश्वामित्र जी आदि सप्तऋषियों को याद करके ब्राह्मण लोग गाँव की उत्तर दिशा में नदीं, तालाब या सागर के किनारे बैठकर जनेऊ बदलते हैं। पुराना जनेऊ सरिता में, सागर में बहा देते हैं और नया जनेऊ धारण करते हैं। जनेऊ बदलवाकर यह पर्व हमें अपने पूर्वजों की स्मृति कराता है कि आपके पूर्वज कितने महान थे और उनकी तरह आप भी छोटी-छोटी उपलब्धियों में रुकिये मत। रक्षाबंधन महोत्सव आपके आत्मा की जागृति का संदेश देता है। मंत्रोच्चार में, वेदपाठ में अथवा सत्कर्म करने में जो गलतियाँ हो गयी हों, उनका प्रायश्चित्त करके अपनी आध्यात्मिकता को उज्जवल करने का संकल्प करते हैं इस दिन।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 283

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वास्तविक बल कौन-सा है ?


एक दिन राजा विश्वामित्र मंत्रियों के साथ शिकार के लिए गये थे। वन में प्यास से व्याकुल हो वे महर्षि वसिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे।

वसिष्ठजी ने उनका स्वागत किया। आश्रम में एक कामधेनु गाय थी जिसका नाम था नंदिनी, जो सभी कामनाओं की पूर्ण करती थी। वसिष्ठ जी ने खाने पीने योग्य पदार्थ, बहुमूल्य रत्न, वस्त्र आदि जिस-जिस वस्तु की कामना की कामधेनु ने प्रस्तुत कर दिया। महर्षि ने उन वस्तुओं से विश्वामित्र का सत्कार किया। यह देख विश्वामित्र विस्मित होकर बोलेः “ब्रह्मन् ! आप दस करोड़ गायें अथवा मेरा सारा राज्य लेकर इस नंदिनी को मुझे दे दें।”

वसिष्ठजीः “देवता, अतिथि और पितरों की पूजा एवं यज्ञ के हविष्य आदि के लिए यह यहाँ रहती है। इसे तुम्हारा राज्य लेकर भी नहीं दिया जा सकता।”

“मैं इसको बलपूर्वक ले जाऊँगा। मुझे अपना बाहुबल प्रकट करने का अधिकार है।”

“तुम राजा और बाहुबल का भरोसा करने वाले क्षत्रिय हो। अतः जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो।”

विश्वामित्र बलपूर्वक गाय का अपहरण कर उसे मारते-पीटते ले जाने का प्रयास करने लगे। नंदिनी विश्वामित्र के भय से उद्विग्न हो उठी और डकराती हुई वसिष्ठ जी की शरण में गयी। उसे मार पड़ रही थी फिर भी वह आश्रम से अन्यत्र नहीं गयी।

वसिष्ठजीः “कल्याणमयी ! मैं तुम्हारा आर्तनाद सुनता हूँ परंतु क्या करूँ ? विश्वामित्र तुम्हें बलपूर्वक हर के ले जा रहे हैं। मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं एक क्षमाशील ब्राह्मण हूँ।”

नंदिनी ने विश्वामित्र से प्रार्थना कीः “भगवन् ! विश्वामित्र के सैनिक मुझे कोड़ों से मार रहे हैं। मैं अनाथ की तरह क्रंदन कर रही हूँ। आप क्यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं ?”

वसिष्ठजीः “क्षत्रियों का  बल उनका तेज है और ब्राह्मणों का बल क्षमा है। मैं क्षमा अपनाये हुए हूँ, अतः तुम्हारी रूचि हो तो जा सकती हो।”

नंदिनीः “भगवन् ! क्या आपने मुझे त्याग दिया ? आपने त्याग न दिया हो तो कोई मुझे बलपूर्वक नहीं ले जा सकता।”

“मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता। तुम यदि रह सको तो यहीं रहो।”

इतना सुन नंदिनी क्रोध में आ गयी और उसने अपने शरीर से मलेच्छ सेनाओं को उत्पन्न किया जो अनेक प्रकार के आयुध, कवच आदि से सुसज्ज थीं। उन्होंने देखते-देखते विश्वामित्र की सेना को तीतर-बीतर कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से घायल सेनाओं के पाँव उखड़ गये। नंदिनी ने उन्हें तीन योजन तक खदेड़ दिया।

यह देख विश्वामित्र बाणों की वर्षा करने लगे परंतु वसिष्ठजी ने उन्हें बाँस की छड़ी से ही नष्ट कर दिया। वसिष्ठजी का युद्ध कौशल देख विश्वामित्र आग्नेयास्त्र आदि दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। वे सब आग की लपटें छोड़ते हुए वसिष्ठ जी पर टूट पड़े परंतु वसिष्ठजी ने ब्रह्मबल से प्रेरित छड़ी के द्वारा सब दिव्यास्त्रों को भी पीछे लौटा दिया।

फिर वसिष्ठजी बोलेः “दुरात्मा गाधिनंदन ! अब तू परास्त हो चुका है। यदि तुझमें और भी उत्तम पराक्रम है तो मेरे ऊपर दिखा।” ललकारे जाने पर भी विश्वामित्र लज्जित होकर उत्तर न दे सके। ब्रह्मतेज का यह आश्चर्यजनक चमत्कार देखकर विश्वामित्र क्षत्रियत्व से खिन्न एवं उदासीन होकर बोलेः “धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्। ‘क्षत्रिय बल तो नाममात्र का ही बल है, उसे धिक्कार है ! ब्रह्मतेज जनित बल ही वास्तविक बल है।’ ऐसा सोच के विश्वामित्र राजपाट का त्याग कर तपस्या में लग गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 13,19 अंक 283

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