परमात्मस्वरूप सद्गुरु

परमात्मस्वरूप सद्गुरु


अंतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट

(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

शिष्य यदि मनमुख रहा और मन के कहने में ही चलता रहा तो वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता । उसको गुरुमुख होना ही पड़ेगा लेकिन गुरु भी ऐसे वैसे नहीं होने चाहिए । गुरु भी समर्थ होने चाहिए, जो उसको साधना में श्रेष्ठ मार्ग से आगे बढ़ा सकें । शिष्य की प्रकृति यदि ज्ञानमार्ग की है और गुरु उसको कुण्डलिनी योग ही कराते हैं या शिष्य की प्रकृति कुण्डलिनी योग की है और गुरु उसको  ज्ञानयोग में ही घसीटते रहें तो इससे शिष्य का उत्थान नहीं हो पायेगा । इसीलिए कहा है कि गुरु श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ हों और शिष्य में संसार की विषय वासना भोगने की कामना न हो, ईश्वरप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो काम तुरंत बन जाता है ।

जो लोगों की निंदा-प्रशंसा-विरोध की परवाह नहीं करता, वही साधक-शिष्य इस रास्ते पर चल सकता है । अन्य लोग तो रास्ते में ही रुक जाते हैं । बिना अपने अहं को मिटाये तुम आत्मानंद का रसपान नहीं कर सकते । संसार के क्षणिक तुच्छ रस कुछ बनने पर मिल जाते होंगे, यह संभव है परंतु आत्मानंद का रस तो मिटने से ही मिलता है । संसार के रिश्ते और संबंध सदैव रहने वाले नहीं है । ये सब शरीर के ही संबंध है किंतु क्या हम शरीर हैं ? यदि हम शरीर नहीं तो और क्या हैं ? क्या हम मन या बुद्धि हैं ? न हम शरीर हैं, न मन हैं और न बुद्धि हैं तो फिर हम कौन हैं, क्या हैं ? – ये सब साधक की साधना के मौलिक प्रश्न हैं । इनको यदि हल करना है और अपने-आपको जानकर सुख-दुःख, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, संशय, द्वन्द्व, कामादिक विकारों से परे आत्मिक आनंद का अधिकारी बनना है तो इन सांसारिक संबंधों में अधिक नहीं उलझऩा । जीवन के लिए जितना लौकिक व्यवहार आवश्यक है, उतना व्यवहार करते हुए अपनी साधना को निर्विघ्न अपनी-अपनी जगह पर आगे बढ़ाते जाना बहुत जरूरी है । दस शब्द बोलने हैं तो छः में निपटाओ ।

जब साधक दृढ़ निश्चय के साथ अपने साधना पथ पर चल पड़ता है तो विघ्न भी अपने स्थान से चल पड़ते हैं साधक को भुलावा देने के लिए, उसे साधना-पथ से डिगाने के लिए । यहीं पर साधक को सचेत रहने की आवश्यकता है । इस समय ऐसे लोगों से बचें, ऐसे वातावरण से बचें तथा आकर्षणों से बचें जो कि प्रत्यक्ष या परोक्ष पतन की ओर ले जा सकते हैं क्योंकि अभी साधना का बीज अंकुर ही बना है, अभी छोटा पौधा ही बन पाया है, अभी पेड़ नहीं बना है । सदगुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा का धागा बड़ा महीन और नाजुक होता है । उसे सम्हालो, कहीं वह टूट न जाय ।

श्रद्धा सदैव एक जैसी नहीं रहती । वह कटती-पिटती-टूटती रहती है । श्रद्धा को सम्हालो, वह बहुत मूल्यवान है । वही तुम्हें नर से नारायण बनाने वाली है । उसी के सहारे तुममें परमात्मा का आनंद प्रकटने वाला है । जरा चूके कि फिसलते चले जाओगे क्योंकि फिसलने वाले बहुत हैं । पानी ढलान में बहना जानता है लेकिन उसको ऊपर चढ़ाने में बल की जरूरत होती है । साधक को ऊपर चढ़ना है । इसलिए साधक को बहुत सँभल-सँभलकर चलना होगा । जैसे – गर्भिणी स्त्री सँभल-सँभलकर कदम रखती है । स्त्री के उदर से तो नश्वर शरीर का जन्म होगा परंतु साधक को तो अपने हृदय में शाश्वत परमात्मा का अनुभव पाना है ।

कई बार साधक की कसौटियाँ होंगी । गुरु उसे ठोक-बजाकर, तपा-तपाकर आगे बढ़ायेंगे । प्रभु से मिलन यह कोई जैसी-तैसी बात तो है नहीं । यह वह बात है कि जिसके आगे कोई बात नहीं है । यह वह प्राप्ति है, जिसके आगे और कुछ करना-कोई कर्तव्य शेष ही नहीं बचता । यह वह पद है जिसके आगे कोई पद नहीं है ।

साधक को गीली मिट्टी जैसे बनना पड़ेगा । कुम्हार जैसे मिट्टी को रौंदता, कूटता, पीटता थपेड़े मारता हुआ घड़ा बनाता है, उसे आग में तपाकर पक्का करता है, वैसे ही गुरु साथ भी करेंगे । यदि वह (साधक) मिट्टी नहीं बना, गुरु आज्ञा में नहीं चला, उसने मनमानी की, प्रतिकार किया, यदि वह उनकी चोटों से घबरा गया, यदि वह हिम्मत हार गया तो…..! फिर वही संसार का नश्वर जीवन, वही जन्म-मृत्यु का चक्कर, वही सदियों पुराना सुख-दुःख का रोग, जिसको छोड़कर वह अमर पद की ओर बढ़ रहा था, उसे अपना लेने के लिए, उसे ग्रस लेने के लिए तैयार खड़ा है । तुम्हारे सामने दोनों विकल्प हैं या तो साधना के मार्ग पर डटकर चलते रहो और अपने आनंदमय आत्मपद को प्राप्त कर लो अथवा उसी नश्वर सुख की भ्रांतिवाले और दुःखों से भरे विषयी संसार में फिर से फँस जाओ । अब चुनाव तुमको करना है । संसार का मजा भी बिना सजा के नहीं मिलता । जड़ चीजों का सुख भी परिश्रम माँगता है । जो भी मजा चाहते हो उसकी सजा या तो पहले भुगत लो या बाद में । साधक को कठिनाइयाँ पहले भुगतनी पड़ती हैं परंतु वे कठिनाइयाँ उसे महाआनंद की ओर ले जाती हैं । आज तक हमने संसार में जो भी मजा लिया या सुख लिया वह तो हर्ष था सुख नहीं । हर्ष तो मन का विकार है । हर्ष आता है और चला जाता है । हर्ष परम सुख नहीं है । परम सुख आता-जाता नहीं, वह तो शाश्वत है ।

बुद्धिमान साधक का लक्ष्य होना चाहिए परम सुख पाना । हमने विवेकपूर्वक परम सुख का मार्ग पकड़ा है, जो हमें नश्वर से शाश्वत की ओर ले जायेगा । यही सच्चा पथ है । बाकी सारे पथ माया में चले जाते हैं किंतु यह पथ माया से पार ले जाता है, जहाँ मान-अपमान, रोग, मोह, सुख-दुःख आदि की पहुँच नहीं है । इसी पथ पर हमें दृढ़तापूर्वक चलना है, चलते ही रहना है, बिना रुके, जब तक कि लक्ष्य की सिद्धि न हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 201

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