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उपासना का महत्त्व


 

सनातन धर्म में निर्गुण निराकार परब्रह्म परमात्मा को पाने की योग्यता बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार की उपासनाएँ चलती हैं | उपासना माने उस परमात्म-तत्व के निकट आने का साधन |ऐसे उपासना करनेवाले लोगों में विष्णुजी के साकार रूप का ध्यान-भजन, पूजन-अर्जन करनेवाले लोगों को वैष्णव कहा जाता है और शक्ति की उपासना करनेवाले लोगों को शाक्त कहा जाता है | बंगाल में कलकत्ता की और शक्ति की उपासना करनेवाले शाक्त लोग अधिक संख्या में हैं |

‘श्रीमद देवी भगवत’ शक्ति के उपासकों का मुख्य ग्रन्थ है | उसमें जगदम्बा की महिमा है | शक्ति के उपस्क नवरात्रि में विशेष रूप से शक्ति की आराधना करते हैं | इन दिनों में पूजन-अर्जन, कीर्तन, व्रत-उपवास, मौन, जागरण आदि का विशेष महत्त्व होता है |

नवरात्रि को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है | उसमें पहले तीन दिन तमस को जीतने की आराधना के हैं | दुसरे तीन दिन रजस को और तीसरे दिन सत्त्व को जीतने की आराधना के हैं | आखरी दिन दशहरा है | वह सात्विक, रजस और तमस तीनों गुणों को यानि महिषासुर को मारकर जीव को माया की  जाल से छुड़ाकर शिव से मिलाने का दिन है |

जिस दिन महामाया ब्रह्मविद्या   आसुरी वृतियों को मारकर जीव के ब्रह्मभाव को प्रकट करती हैं, उसी दिन जीव की विजय होती है इसलिए उसका नाम ‘विजयादशमी’ है | हज़ारों-लाखों जन्मों से जीव त्रिगुणमयी माया के चक्कर में फँसा था, आसुरी वृतियों के फँदे में पड़ा था | जब महामाया जगदम्बा की अर्चना-उपासना-आराधना की तब वह जीव विजेता हो गया | माया के चक्कर से, अविद्या के फँदे से मुक्त हो गया, वह ब्रह्म हो गया |

विजेता होने के लिए बल चाहिए | बल बढ़ाने के लिए उपासना करनी चाहिए | उपासना में तप, संयम और एकाग्रता आदि जरूरी है |

जगत में शक्ति के बिना कोई काम सफल नही होता है | चाहे आपका सिद्धांत कितना भी अच्छा हो, आपके विचार कितने भी सुंदर और उच्च हों लेकिन अगर आप शक्तिहीन हैं तो आपके विचारो का कोई मूल्य नही होगा | विचार अच्छा है, सिद्धांत अच्छा है, इसलिए सर्वमान्य हो जाता है ऐसा नही है | सिद्धांत या विचार चाहे कैसा भी हो, उसके पीछे शक्ति जितनी ज्यादा लगते हो उतना वः सर्वसामान्य होता है | चुनाव में भी देखो तो हार-जीत होती रहती है | ऐसा नही है कि यह आदमी अच्छा है इसलिए चुनाव में जीत गया और वह आदमी बुरा है इसलिए चुनाव में हार गया | आदमी अच्छा हो या बुरा, चुनाव में जीतने के लिए जिसने ज्यादा शक्ति लगायी वह जीत जायेगा | हकीकत में जिस किसी विषय में जो ज्यादा शक्ति लगाता है वह जीतता है | वकील लोगों को भी पता होगा, कई बार ऐसा होता है कि असील चाहे इमानदार हो चाहे बेईमान परन्तु जिस वकील के तर्क जोरदार-जानदार होते हैं वह मुकदमा जीत जाता है |

ऐसे ही जीवन में विचारो को, सिद्धांतो को प्रतिष्ठित करने के लिए शक्ति चाहिए, बल चाहिए, ढृढ़ निश्चय चाहिए |

साधको के लिए उपासना अत्यंत आवश्यक है | जीवन में कदम-कदम पर कैसी-कैसी मुश्किलें, कैसी-कैसी समस्याएँ आती हैं ! उनसे लड़ने के लिए, सामना करने के लिए भी  बल चाहिए | वह बल उपासना-आराधना से मिलता है |

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी ने मानो इसका प्रतिनिधित्व किया है  | सेतुबंध के समय शिव की उपासना करने  के लिए श्रीरामचन्द्रजी ने रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना की थी, युद्ध के पहले नौ दिन चंडी की उपासना की थी, भगवान श्रीकृष्ण ने भी सूर्य की उपासना की थी |

इन अवतारों ने हमे बताया है की अगर आप मुक्ति पाना चाहते हो तो उपासना को अपने जीवन का एक अंग बना लो | बिना उपासना के विकास नही होता है |

अगर मनुष्य अपने मन को नियन्त्रण में रख सके और जिस समय जैसी घटना घटे उसे उचित समझकर अपने चित्त को सम रख सके तो इससे बल बढ़ता है | मन को नियंत्रित करने के लिए हि अलग-अलग दैवो की उपासना की जाती है | दूर शकी की उप कक शाक्त लो अपने चित्त को शांत और एकाग्र करते हैं | शैवपंथी शिव की और वैष्णव लोग विष्णु की उपासना करके चित्त को शांत और एकाग्र करते हैं | कई लोग भगवन सूर्य कई उपासना करके अपने जीवन को तेजस्वी बना लेते हैं तो कई ‘गणपति बापा मोरिया’ करके चित्त को प्रसन्नता और आनंद से भर देते हैं |

उपासना से चित्त शांत और प्रसन्न होता है, उसका बल बढ़ता है, और तभी आत्मज्ञान के वचन सुनने का और पचाने का अधिकारी बनता है | ऐसा अधिकारी चित्त ब्रह्म्वेता महापुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बना लेता है |

दुर्गासप्तशती का आविर्भाव


 

मोह सकल व्याधिंह क्र मुला |

तिन्ह से पुनि उपजहिं बहु सूला ||

‘सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है | उन व्याधियों से फिर और बहुत-से-शूल उत्पन्न होते हैं |’

जिव को जिन चीजों में मोह होता है, देर-सवेर वे चीजे ही जिव को रुलाती हैं | जिस कुटुम्ब में मोह होता है, जिन पुत्रों में मोह होता है, उनसे ही कभी-न-कभी धोखा मिलता है लेकिन अविद्या का प्रभाव इतना गहराहै की जहाँ से धोखा मिलता है वहन से थोडा ऊब तो जाता है परंतु उससे छुटकारा नही पा सकता और वहीं पर चिपका रहता है |

कलिंग देश के वैश्य रजा विराध के पौत्र और दुर्मिल के पुत्र समाधिवैश्य को भी धन-धान्य, कुटुम्ब में बहुत आसक्ति थी, बहुत मोह था | लेकिन उसी कुटुम्बियों ने, पत्नी और पुत्र ने धन की लालच में उसे घर से बाहर निकाल दिया | वह इधर-उधर भटकते-भटकते जंगलों-झाड़ियों से गुजरते हुए मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचा |

ऋषि का आश्रम देखकर उसके चित्त को थोड़ी-सी शांति मिली | अनुशासनबद्ध, संयमी और सादे रहन-सहनवाले, साधन-भजन करके आत्मशांति की प्राप्ति की ओर आगे बढ़े हुए, निश्चिंत जीवन जीनेवाले साधकों को देखकर समाधिवैश्य के मन में हुआ कि इस आश्रम में कुछ दिन तक रहूँगा तो मेरे चित्त कि तपन जरुर मिट जाएगी |

सुख, शांति ओर चैन इन्सान कि गहरी माँग है | अशांति कोई नही चाहता, दुःख कोई नही चाहता लेकिन मजे कि बात यह है कि जहाँ से तपन पैदा होती है वहन से इन्सान सुख कहता है ओर जहाँ से अशांति मिलती है वहन से शांति चाहता है | मोह की महिमा ही ऐसी है |

यह मोह जब तक ज्ञान के द्वारा निवृत नही होता है तब तक कंधे बदलता है, एक कंधे का बोझ दुसरे कंधे पर धृ देता है | एसा बोझ बदलते-बदलते जिन बदल जाता है | अरे ! मौत भी बदल जाती है | कभी पशु का जीवन तो कभी पक्षी का | कभी कैसी मौत आती है तो कभी कैसी | अगर जीवन ओर मौत के बदलने से पहले अपनी समझ बदल लें तो बेडा पार हो जाये| समाधिवैश्य का कोई सौभाग्य होगा, कुछ पुन्य होंगे, इश्वर की कृपा होगी, वह मेधा ऋषि के आश्रम में रहने लगा|

उसी आश्रम में राजा सुरथ भी आ पहुंचा| राजा सुरथ को भी राजगद्धी के अधिकारी बनने से रोकने के लिए कुटुम्बियों ने सताया था ओर धोखा दिया था| उसके कपटी व्यवहार से उद्ध्विघं हो कर शिकार के बहाने वह राज्य से भाग निकला था| उसे संदेह हो गया था की किसी न किसी षड्यंत्र में फँसाकर वे मुझे मार डालेंगे| अत: उसकी अपेक्षा राज्य का लालच छोड़ देना अच्छा है |

इस तरह समाधिवैश्य ओर राजा सुरथ दोनों ऋषि के आश्रम में रहने लगे | दोनों एक ही प्रकार के दुःख से पीड़ित थे | आश्रम में तो रहते थे लेकिन मोह नष्ट करने के लिए नही आये थे, इश्वर-प्राप्ति के लिए नहीं आये थे | अपने कुटुम्बियों ने, रिश्तेदारों ने धोखा दिया था, संसार से जो ताप मिला था उसकी तपन बुझाने आये थे | उनके मन में आसक्ति ओर भोगवासना तो थी ही | इसलिए सोच रहे थे की तपन मिट जाये फिर बाद में चले जायेंगे |

ऋषि आत्मज्ञानी थे | उनके शिष्य भी सेवाभावी थे | परंतु समाधिवैश्य और राजा सुरथ की तो हालत कुछ और थी | उन दोनों ने मिलकर मेधा रिही के चरणों में प्रार्थना की : “स्वामीजी ! हहम आश्रम में रह तो रहे हैं लेकिन हमारा मन व्ही संसारिक सुक चाहता है | हम समझते हैं क संसार स्वार्थ से भरा हुआ हा | कितने ही लोग मरकर सब कुछ इधर छोडकर चले गये हैं | धोखेबाज सगे-सबंधियों नी तो हमे जीते-जी  छुड़ा दिया है | फिर भी ऐसी इच्छा होती रहती है कि ‘ स्वामीजी आगया दें तो हम उधर जाये और आशीर्वाद  भी दें कि हमारी पत्नी और बच्चे हमे स्नेह करें……..धन-धान्य बढ़ता रहे और हम मजे से जियें | “

ऋषि उनके अंत:करण की ईमानदारी देखकर बहुत खुश हुए | उन्होंने कहा : ” इसीका नाम माया है |”

इसी मया की दो शक्तियाँ हैं : आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति | ‘चाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुसकर देखेंगे |’

तमाशा क्या देखते हैं ? जूते खा रहे हैं ……. धक्का-मुक्की सह रहे हैं……हुईसो……हुईसो ……चल रहा है……फिर भी ‘मुंडो तो मारवाड़ |’ कहेंगे बहुत मजा है इस जीवन में | लेकिन ऐसा मजा लेने में जीवन पूरा कर देनेवाला जीवन के अंत में देखता है कि संसार में कोई सार नही है | ऐसा करते-करते सब चले गये | दादा-परदादा चले गये और हम-तुम भी चले जायेंगे | हम इस संसार से चले जाये उसके पहले इस संसार कि अमरता को समझकर एकमात्र सारस्वरूप परमात्मा में जाग जायें तो कितना अच्छा !

समाधिवैश्य और सुरथ राजा ने कहा : “स्वामीजी ! यह सब हम समझते हैं फिर भी हमारे चित्त में इश्वर के प्रति प्रीटी नही होती और संसार से वैराग्य नही आता | इसका क्या कारण होगा ? संसार कि नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता के बारे में सुनते हैं लेकिन नश्वर संसार का मोह नही छूटता और शाश्वत परमात्मा में मन नही लगता है | ऐसा क्यों ?”

मेधा ऋषि ने कहा : “इसीको सनातन धर्म के ऋषियों ने माया कहा है | वह जीवको संसार में घसीटती रहती है | ईश्वर सत्य है, परब्रह्म परमात्मा सत्य है, परंतु माया के कारण असत संसार, नाशवान जगत सच्चा लगता है | इस माया से बचना चाहिए | माया से बचने के लिए ब्रह्मविद्या का आश्रय लेना चाहिए | वही संसार-सागर से पार करानेवाली विद्या है | इस ब्रह्मविद्या की आराधना-उपासना से बुद्धि का विकास होगा और आसुरी भाव काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार मिटते जाएँगे | ज्यों-ज्यों विकार मिटते जाएँगे त्यों-त्यों दैवी स्वभाव प्रकट होने लगेगा और उस अंतर्यामी परमात्मा में प्रीति होने लगेगी | नश्वर का मोह छूटता जायेगा और उस परमदेव को जानने की योग्यता बढती जाएगी |”

फिर उन कृपालु ऋषिवर ने दोनों के पूछने पर उन्हें भगवती की पूजा-उपासना की विधि बतायी | ऋषिवर ने उस महामाया की आराधना करने के लिए जो उपदेश दिया, वही शाक्तों का उपास्य ग्रन्थ ‘दुर्गासप्तशती’ के रूप में प्रकट हुआ | तिन वर्ष तक आराधना करने पर भगवती साक्षात् प्रगट हुई और वर माँगने के लिए कहा |

राजा सुरथ के मन में संसार की वासना थी अत: उन्होंने संसारी भोग ही माँगे, किन्तु समाधिवैश्य के मन में किसी सांसारिक वस्तु की काना नही रह गयी थी | संसार की दुःखरूपता, अनित्यता और असत्यता उनकी समझ में आ चुकी थी अत: उन्होंने भगवती से प्रार्थना की कि :

“देवि ! अब ऐसा वर दो कि ‘यह मैं हूँ’ और ‘यह मेरा है’ इस प्रकार की अहंता-ममता और आसक्ति को जन्म देनेवाला अज्ञान नष्ट हो जाये और मुझे विशुद्ध ज्ञान की उपलब्धी हो |”

भगवती ने बड़ी प्रसन्नता से समाधिवैश्य को ज्ञान दान किया और वे स्वरूपस्थिति होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये |

Navratri – The Festival of Worshipping Shakti


 

The scriptures say, “I bow again and again before Maa Jagadambaa (Mother of the universe), abiding in all beings and objects in the form of energy.”

God manifests Himself in numerous shapes and forms. One of them is that of the Mother. The manifestation of Supreme Brahman in the form of power, compassion, forgiveness, and benevolence has been termed as Maa (Mother) and Navratri is the time to adore and worship the Mother in her various forms.

The Mother’s Grace is boundless. Her mercy is illimitable, Her knowledge infinite; Her power is immeasurable, Her glory ineffable and Her splendor indescribable. She gives us material prosperity as well as spiritual freedom.

In the ‘Srimad Devi Bhagawata’, it is written that one desirous of knowledge, wealth and begetting a son should meticulously observe the Navratri Vrata, which has the power of returning the kingdom to a dethroned king. Sri Rama worshipped Durga at the time of the fight with Ravana, to invoke Her aid in the war. He fought and won through Her Grace. It was also on this day that Arjuna worshipped Devi, before starting the battle against the Kauravas on the field of Kurukshetra.

The festival of Navratri should be celebrated with great fanfare through the rendition of devotional songs, music and dancing. One should sleep on the ground. One should offer food to as many young girls as one can afford to feed. But girls less than one year of age cannot be considered. Only girls from the age of 2 to 10 years can be served food on this occasion.

One unable to observe fast on all Navratri days should fast on the 7th, 8th and 9th lunar days (8th to 10th Oct’16) and worship Goddess Durga. This affords religious merits of observing a fast on each of the Navratri days.

Night vigil during Navratri is beneficial when there are discussions according to the guidelines of the scriptures, the mind is cheerful, a pious lamp is lit throughout the night before Goddess Durga’s idol, and there is devotional chanting of the Divine Mother’s pious name with music. Sattvik dance should be performed, not disco or some other western dance.

The worship of Devi, the universal Mother, leads to the attainment of knowledge of the Self. Hinduism is the only religion in the world which has emphasized to such an extent the motherhood of God. One’s relationship with one’s mother is the dearest and the sweetest of all human relations. Hence, it is proper to look upon God as mother.

SALUTATIONS to the Divine Mother, Durga, who exists in all beings in the form of intelligence, mercy, beauty, who is the consort of Lord Shiva, who creates, sustains and destroys the universe.