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कुलानन्द ब्रह्मचारी की वह डायरी जिसमें है कई रहस्यमय साधनाओं की चर्चा…..


सत्य के साधक को मन एवं इन्द्रियों पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरु की निगरानी में शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। शिष्य अगर अपने आचार्य की आज्ञा का पालन नहीं करता है तो उसकी साधना व्यर्थ है।

हे भगवान! “मैं आपके आश्रय में आया हूँ, मुझपर दया करो, मुझे जन्म-मृत्यु के सागर से बचाओ।” ऐसा कहकर शिष्य को अपने गुरु के चरणकमलों में दण्डवत प्रणाम करना चाहिए।

गुरुगीता के महामंत्रों में प्रगट करते हुए भगवान महेश्वर जगन्माता भवानी से कहते हैं कि,

यस्य कारण रूपस्य कार्य रूपेण भातियत।
कार्य कारण रूपाय तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

नाना रूपम विदं सर्वम न केनापस्यति भिन्नतः।
कार्यकारणता चैव तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

यदंगग्रीकमल द्वंद्वताप निवारकं।
तारकं सर्वदा अपध्यपः श्रीगुरुम प्रणमाम्यहं।।

वंदे गुरुपद द्वंद्वं वाङ्मनश्चित गोचरं।
श्वेतरक्तप्रभाभिन्नं शिवशक्त्यात्मकं परं।।

सद्गुरु नमन के इन मंत्रों में जीवन साधना का सार समाहित है। भगवान सदाशिव की वाणी शिष्यों को बोध कराती है कि ब्राह्मी चेतना से एकरूप गुरुदेव इस जगत का परम कारण होने के साथ ही कारणरूप यह जगत भी वही है। गुरुदेव ही महाबीज है और वे ही महावट है। ऐसे कार्य कारणरूप सद्गुरु को नमन है।

इस संसार में यद्यपि उपरीत है, पर सब जगह भीत व भिन्नता दिखाई देती है, परन्तु तात्विक दृष्टि से ऐसा नहीं है। इस दृष्टि से तो कार्यकारण की परमात्मचेतना के रूप में गुरुदेव ही सर्वत्र व्याप्त है। ऐसे सर्वव्यापी सद्गुरु को नमन है।

जिनके दोनों चरणकमल शिष्य के जीवन में आनेवाले सभी द्वंद्वों, सर्व विधि-तापों और सब तरह की आपदाओं का निवारण करते हैं, उन श्रीगुरुदेवको मैं प्रणाम करता हूँ।

श्रीगुरुदेव के चरणों की महिमा मन ,वाणी, चित्त व इन्द्रिय ज्ञान से परे है। श्वेतअरुणप्रभायुक्त गुरुचरण कमल परम शिव व पराशक्ति का सहज वास स्थान है। उनकी मैं बार-2 वंदना करता हूँ।

गुरुनमन के इन महामंत्रों के भाव को सही ढंग से वही समझ सकते हैं, जिन्हें इस सत्य की अनुभूति हो चुकी है कि सद्गुरु चेतना एवं ब्राह्मी चेतना सर्वथा एक है। अपने गुरुदेव कोई और नहीं स्वयं देहधारी ब्रह्म है।

इन महामंत्रों की व्याख्या को और अधिक सुस्पष्ट ढंग से समझने के लिए एक सत्य घटना का उल्लेख करना संभवतः अधिक उपयुक्त होगा।

यह घटना बंगाल के महान संत विजयकृष्ण गोस्वामी और उनके शिष्य कुलानन्द ब्रह्मचारी के सम्बंध में है।

महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी योगविभूतियों से संपन्न सिद्ध योगी थे। उनका संत जीवन अनेको संतो व महानधीश भक्तों के लिए प्रेरक रहा है। उनके शिष्यों ने न केवल साधना जीवन में आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ अर्जित की अपितु कईयों ने राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए बढ़-चढ़कर भागीदारी भी निभाई।

इन शिष्यों में कुलानन्द ब्रह्मचारी उनके ऐसे शिष्य थे जिन्होंने अपने तप और योगसाधना से न केवल स्वयं को बल्कि अनेकों के जीवन को प्रकाशित किया।

शिष्य कुलानन्द ब्रह्मचारी ने अपने डायरी में कई रहस्यमय साधना प्रसंग की चर्चा की है। ऐसी एक चर्चा उनके जीवन के उस कालखंड की है, जब वे गहरे साधना संघर्ष से गुजर रहे थे। कामवासना का प्रबल वेग उनके अन्तःकरण में रह-2 कर उद्वेग करता था। समझ में नहीं आता कि क्या करे? कैसे निपटे इस कामरूपी महाअसुर से?

हारकर शिष्य कुलानन्द ब्रह्मचारी अपनी विकलता गुरुदेव से निवेदित करते हुए कहा और गुरुदेव के समक्ष रो पड़े, बल्कि बिलख-2 कर रो पड़े। उनके आँसुओ से महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामीजी के चरण भीग गये। उनकी इस विभलता से द्रवित होकर गुरुदेव ने उठाकर ढाँढस बँधाया और कहा कि, “पुत्र! तुम रोते क्यों हो? गुरु के रहते उसके शिष्य को असहाय अनुभव करने की कोई आवश्यकता नहीं।”

अपने सद्गुरु के रहते हुए यदि कोई शिष्य विवशता अनुभव करता है तो उसके दो ही कारण है- या तो उसे गुरु पर पूर्ण विश्वास नहीं है, या तो उसका पूर्ण समर्पण नहीं है गुरु के प्रति।

अपनी बातों को कहते हुए गुरुदेव उठकर खड़े हुए और दीवार पर लगी अलमारी से अपनी एक छोटी फोटो शिष्य कुलानन्द को थमाई और बोले , “बेटा! तुम शिवभाव से इस फोटो की नित्य पूजा करना। क्योंकि गुरु के श्रीचित्र में गुरु का साक्षात अस्तित्व होता है। तुम्हें अपने जीवन की आंतरिक व बाह्य आपदाओं से सुरक्षा मिलेगी और मैं सदैव तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष बैठा रहूँगा इस चित्र के माध्यम से।”

फोटो लेकर कुलानन्दजी अपने निवासस्थान पर आ गये और नित्यप्रति गुरुदेव के श्रीचित्र का पूजन करते हुए अपनी साधना में विलीन हो गये। साधनाकाल में ध्यान के पलों में एक दिन उन्हें अन्तरदर्शन हुआ कि सुषुम्ना नाड़ी में अपनी चेतना के एक अंश को प्रविष्ट कर गुरुदेव उनकी चेतना को ऊपर उठा रहे हैं।
गुरुकृपा से उसी क्षण उनकी अंतरचेतना कामविकार से मुक्त हो गई। वह लिखते हैं कि फिर कभी उन्हें काम का प्रकोप ही नहीं हुआ।

इन्हीं दिनों उन्हें एक अन्य अनुभव भी हुआ। एक दिन साधना करते समय उनके कमरे की छत गिर पड़ी। जिस ढंग से छत गिरी उस तरह उन्हें दबकर मर जाना चाहिए था, परन्तु आश्चर्यजनक ढंग से जिस स्थान पर वे बैठे थे उस स्थान पर छत का मलबा ऊपर ही लटका रह गया।

गुरुकृपा को अनुभव करते हुए पहले वह उठे फिर गुरुदेव के श्रीचित्र को उठाया और बाहर आ गये। इसी के साथ पूरी छत भी गिर गई , साथ ही ध्यान आया उन्हें गुरुदेव के कथन का कि जो उन्होंने फोटो देते समय कहा था, “पुत्र ! मेरा यह चित्र तुम्हें आंतरिक व बाह्य विपत्तिओं से बचायेगा।” और सचमुच ऐसा ही हुआ।गुरूकृपा से शिष्य को सबकुछ अनायास ही सुलभ हो गया।

एक बार सूर बाबा चलते चलते गहरे गड्ढे में गिर पड़े फिर क्या हुआ ? पढ़ें!


गुरु और शिष्य के बीच जो वास्तविक संबंध है.. उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह लिखा नहीं जा सकता ,वह समझाया नहीं जा सकता।

सत्य के सच्चे खोजी को करुणा स्वरूप ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास श्रद्धा और भक्ति भाव से जाना चाहिए। उनके साथ चिरकाल तक रहकर सेवा करनी चाहिए।

आपके हृदय रूपी उद्यान में..निष्ठा, सादगी,शांति, सहानुभूति, आत्म संयम और आत्म त्याग जैसे पुष्प सुविकसित करो और वे पुष्प अपने गुरु को अर्घ्य के रूप में अर्पण करो ।

अब गुरु की दृष्टि के बारे में बात करें तो वह तो निराली और अनोखी होती है। जिसके समतुल्य इस जगत में शिष्य के लिए और कोई मूल्यवान वस्तु नहीं और गुरु की छवि के बारे में बात करें तो उनकी छवि का वैभव ऐसा है कि समस्त कायनात का रस उनके श्री दर्शन में ही समाया हुआ है। तभी तो जहां संसारियों ने अपने नैनों में संसार की तड़क-भड़क बसाई, वही गुरु प्रेमियों ने अपने गुरु अपने प्रभु की मनोहारी छवि को बसाया।

कुछ ऐसे ही दरस दीवाने हुए जिन्होंने संसार के सकल दृश्यों के प्रति अपनी दृष्टि मूंद ली।
नैन दीयों में केवल अपने प्यारे की जगमग ज्योत जगायी।

एक बार सूर बाबा अपनी मस्ती में चलते चलते किसी गहरे गड्ढे में जा गिरे। प्रभु ने उसी क्षण प्रकट होकर उन्हें बाहर निकाला अपने रुप सौंदर्य की सुधा पिलाने के लिए उन्हें दृष्टि के प्याले भी दे डालें ।
सूर बाबा एक ही नजर में इस रुप मदिरा से छक गए, निहाल हो गए और निहाल होकर झूमने ही लगे थे कि प्रभु अंतर्ध्यान होते दिखाएं दिए।
सूर बाबा ने कहा “मुरारी! तुम बांह छुड़ाकर जा तो रहे हो परंतु एक कृपा तो करते जाओ “

“बोलो बाबा”

“मुरारी हमें पहले की तरह ही नेत्रहीन बना कर जाओ”

” नहीं नही.. बाबा ऐसा क्यों, आंखे रखो ”

सूर बाबा ने कहा,
“परंतु किस लिये , मुरारी आंखों की दावत तो हो गई ,श्याम सुंदर आज इन आंखों ने परम प्रसाद को चख लिया भला अब किसे देखने के लिए इन्हें अपने पास रखूं”
जिन नैनन ते यह रूप लख्यो, उन नैनन ते अब देखिय कहा

धन्य है ऐसी तल्लीन आँखे… बलिहारी है उनकी ऐसी समाधि।
सूफी संतों में आंखों की इस एक-तार एक-निष्ठ प्रीति को मुरुदी की पूर्णता अर्थात शिष्यत्व की पूर्णता मानी है।

एक बार सूफी संत सादीक ने अपने मुरीद अर्थात शिष्य बायजित से अपने कमरे के अलमारी में रखी कोई किताब लाने को कहा।
शिष्य ने मासूम आवाज में पूछा “हुजूर! कैसी अलमारी ?”

संत सादिक विस्मित होकर बोले “ताज्जुब है, तुम रोजाना इतने घंटे इसी कमरे में हमारी सोहवत में रहते हो और हमें उस अलमारी से किताब भी निकालते हुए देखते हो तब भी तुम यह पूछ रहे हो कि कैसे अलमारी ?”
शिष्य बायजित बोला कि, “साहब! जिस कमरे में कुल कायनात का नूर घूमता फिरता दिखता है उस कमरे की फीकीं चीजों में भला मेरी निगाहें कैसे उलझती।”

संत सादिक शिष्य पर बड़े प्रसन्न हुए कहा, “बायजित! आज तूने खुदा के शरीरी वजूद से एकता हासिल कर ली है । तेरी साधना पूर्ण हो गई है। अब तेरी अशरीरी वजूदी में गति होगी।

काश!! आंखों की ऐसी मतवाली रस्म हम भी निभा पाए। ये आंखें नश्वरता की खाक छाननी छोड़ दे गुरुदेव की शाश्वत रूप में खुद को खो दे। काश… ऐसा हो कि हमारी नजरों के सारे बिखरे धागे बटकर एक पक्की डोर बन जाए और वह डोर लिपटकर गुरुदेव को बांध ले। काश..काश हम संसार की हर बहार… हर गुलजार.. में अपने सतगुरु की दिव्य मुस्कान का जलवा देंखे। अपने हर कर्म जीवन की हर मर्म उन्हीं को विचार और विहार करता हुआ पाएं।
अपने शरीर की.. मन की.. हृदय की.. आत्मा की.. हर आंख में उन्हें ही… बस उन्हें ही बसा सके।
पलकों की सलाखों के पीछे काश.. हम उन्हें हमेशा के लिए कैद कर पाए।

आओ प्यारे सतगुरु, पलक झाप तोहि लेउ।
ना मैं देखूं और को ना तोहे देखन देउ ।
उतली पलंग पर तोहे दिन रैन मै बिठाउ,
पलकों की चिक डारी के कैदी तुम्हें बनाऊं।
आओ प्यारे सतगुरु पलक झाप तोहि लेऊ।

आखिर उस घने वन में क्यूँ वह देवी कठोर तप में निमग्न थी


स्वयं की अपेक्षा गुरु के प्रति अधिक प्रेम रखो। गुरु प्रेम और करुणा की मूर्ति है। आपको अगर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हो तो आप को भी प्रेम और करुणा की मूर्ति बनना चाहिए।

वह किसी संत की सभा बैठी थी।
किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया, “महाराज! बहुत अच्छे-2 साधको का पतन क्यों हो जाता है? हमने देखा है कि कई साधक जिनकी वेदांत में अच्छी गति थी, वे भी संसार की ओर सन्मुख हो गए। इस पतन से बचने का कोई उपाय नहीं है…? यदि है तो बताईये।”

संत थोड़े शांत हुए और जिज्ञासु से कहा कि, “प्रेम करो, ब्रह्मविद्या के दाता से प्रेम करो, सद्गुरु से प्रेम करो।” देखो यह कितने सरस शब्द है, जैसे मीठी चाशनी में डूबे रसगुल्ले जैसे। एकबार धीरे से जप कर देखो कि प्रभु मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तेरा, तू मेरा। कहो मेरे साथ, “हे प्रभु! मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तेरा, तू मेरा।” खूब स्वाद आया? आपके ह्रदय का कोई तार झनझनाया? कुछ गुदगुदाहट महसूस हुई?…यदि हाँ! तो मुबारक हो! तुम्हारी गाड़ी शिष्यत्व की पटरी पर सही दौड़ रही है और ऐसे साधक का पतन असंभव है।

मात्र ब्रह्मविद्या से प्राप्तकर्म प्रेम करना, यह रूखा वेदांती बना देता है। लेकिन ब्रह्मविद्या के दाता जो सद्गुरु है उनसे प्रेम करना, यह वेदांत के तत्व को उजागर कर देता है।

पद्मपुराण में एक बहुत ही प्रेरणाप्रद कथा आती है, कि एकबार जाबाली नाम के ब्रह्मज्ञानी मुनि एक वन में भ्रमण कर रहे थे। सहसा उन्होंने देखा कि बावली के तट पर वटवृक्ष की छटा तले एक परम रूपशालिनी तेजस्विनी देवी ध्यान कर रही है। पूर्णमासी की चन्द्रमा जैसी उसकी ज्योत्सना दूर-2 तक छटक रही है।

संत जाबाली जी ने कुतूहलवश उन देवी के समीप जाकर पूछा कि, “हे परम कल्याणी! आप कौन है?”

तब ये तप रहित देवी बोली, “मुनिवर! मैं अतुलनीय ब्रह्मविद्या हूँ।”
ब्रह्मविद्या अहं तुला योगिन्द्रेर्या च मृगर्येत।

“वही परमविद्या जिसकी प्राप्ति महान योगीजनों के लिए भी दुर्लभ है। “

मुनि जाबाली बड़े ही आश्चर्य से कहे कि मेरे अहोभाग्य जो साक्षात ब्रह्मविद्या का साकार दर्शन हुआ। परन्तु देवी आपकी सिद्धि होनेपर तो जीव स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसकी साधना पूर्णता को छू लेती है। फिर भला आप स्वयं क्यों और किस साधना में लीन है? तल्लीन है?
ब्रह्मविद्या देवी ने कहा, हे मुनिवर! आपने सत्य कहा।

ब्रह्मानंदीन पूर्ण अहं।
“निःसन्देह मैं ब्रह्मानंद से पूर्ण हूँ।”
तेन आनंदीन तृप्त देहि।
मेरी बुद्धि आनंद से तृप्त भी है। परन्तु फिर भी मैं इस घोर वन में बैठी हुई प्रार्थनारत हूँ। कारण-
शून्यं आत्मानं मन्नेरतीं बिना

मैं प्रेम के बिना स्वयं को बहुत सुना पाती हूँ। मुझे अपना आनंद भी बेहद शुष्क और शून्य सा लगता है।

साक्षात् ब्रह्मविद्या भी उनके दाता के प्रति प्रेम के बिना अर्थात सद्गुरु के प्रति प्रेम के बिना स्वयं को व्याकुल मानती है, स्वयं को रूखा-सूखा और सूना मानती है। फिर सोचनेवाली बात है कि आप ब्रह्मविद्या को साधनेवाले साधक भला गुरुप्रेम के बिना कैसे अपनी साधना का पूर्ण संधान कर पाएँगे।

वैसे भी क्या आपने कभी किसी हरी बूटी को सिर्फ सूर्य की उज्ज्वल किरणों से उगता देखा है? नही ना… उसे धरती की नम और तरल गोद भी चाहिए। गुरु ने तो एक निःस्वार्थी और परिश्रमी किसान की तरह आपकी ह्रदयभूमि पर ज्ञान का बीज डाल दिया।

आप ध्यान साधना के प्रकाश किरणों से उसे सेने भी लगे। चलो, सेवा की बाढ़ भी उसके इर्दगिर्द खड़ी कर दी। सत्संग विचारो रूपी खाद का उसपर टीला भी सजा लिया। परन्तु जरा सोचिए, क्या दरार पड़ी ठोस पत्थर जमीन पर वह बीज फल और फूल पाएगा…? नहीं…उसे थोड़ा बहुत तो प्यार के रस से सींचो। प्रेम के कुछ बूँदे तो चिड़काओ, भावों की सजल बयार से उसे सहलाओ। कही किसी कोने से तो आवाज उठाओ कि गुरुदेव! मैं आपका हूँ और आप मेरे है। याद रखना आपकी ह्र्दयभूमि अपने गुरुदेव के उल्फ़त की रस से जितनी तर होगी,आपके जीवन का पौधा उतना ही कद लेगा।

ज्ञानेश्वरी के 9वें अध्याय में ज्ञानेश्वर महाराज जी लिखते है कि , “हे अर्जुन! मुझमें अपनापन किए बिना सरसता नहीं आ सकती। मैं केवल बाह्यकर्ममय साधनों से नहीं रिझता। “
प्रतिदिन ध्यान-साधना करना जरूरी है, परन्तु केवल इतना ही काफी नहीं।इन पुरुषार्थो को करते हुए आपको गुरुप्रेम का स्नेहील, सरस एहसास भी अपने अंदर जगाना होगा। नहीं तो इस एहसास के अभाव में हमारा सेवाकर्म, हमारा वेदांत भी बहुत छुछा और बेस्वाद सा रहेगा।

गुरु से प्रेम जीवन के समस्त कर्मों में रँग भर देता है। जीवन की समस्त साधनाओ को रंगीन कर देता है। लाख के सौदागरों का अनुभव है कि पिघली हुई लाख में चुटकीभर हल्दी डालने से वह सदा के लिए बसन्ती रँगसा हो जाता है और आँधी, तूफान, बारिश तक उससे इस रँग से छीन नहीं पाती।

आज आप पर भी तो इस मार्गपर न जाने गुरुदेव द्वारा कितने ही इंद्रधनुषिय के रँगो का छिड़काव होता ही रहता है। परन्तु ये रँग आपके शिष्यत्व पर क्यों नहीं चढ़ते? क्यों आप गुरुभक्ति के बसन्ती रँग में नहीं रँगते?…क्योंकि शर्त जो पूरी नहीं हुई, ह्रदय पिघला हुआ द्रवित नहीं हुआ। गुरुप्रेम की तरलता नहीं है। ठोस है, पत्थरसा है। इसलिए गुरु की भक्ति का बसन्ती रँग हमारे जीवनपर नहीं चढ़ता।
भरा नहीं जो भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह ह्रदय नहीं पत्थर है,
जिसमें सद्गुरु का प्यार नहीं।

जो चमने दिल गुरुप्रेम से आबाद नही, वह शमशान है शमशान! शमशान जहाँ मुर्दे फूँके जाते है। जहाँ भुत-प्रेतों अर्थात कुविचारों, विषय-वासनाओं ने डेरा डाला होता है। ऐसे दिल में धड़कन की धकधक तो होती है, परन्तु जीवन की चहक नहीं होती। लोहार की धुकनी की तरह उसमें सूनी-2 साँसे चलती हैं, परन्तु प्राणों का संगीत नहीं गूँजता।

तो सोचना होगा कि आप अपनी ह्र्दयबगिया में आखिर कबतक पतझड़ लिए घूमते फिरेंगे। अपने प्यारे से प्रभु, अपने गुरुदेव के प्रति प्यार की बसन्त को कब बुलावा देंगे। यकीन मानिये इस मार्ग का हर मील पत्थर आप मे यही एहसास जगाने आता है।

इसलिए पल-2 अपने आप को निहारते हुए धीरे से गुनगुनाये कि , हे प्रभु! मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तुम्हारा। जिस दिन यह कहते हुए साँसे लम्बी और गहरी हो जाए, आँखो की प्यालियों से पानी छलक जाए, गले में भावों का फँदा फस जाए तो बस समझियेगा की गुरुभक्तिरूपी पौधा फलित हो रहा है, साधना मंजिल की ओर बढ़ रही है।