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समर्थ गुरु और दम्भी शिष्य (भाग-1)


अपने आपको आचार्य की सेवा में सौंप दो, तन,मन एवं आत्मा को खूब तत्परता से अर्पण कर दो। गुरु श्रद्धा का सक्रिय स्वरूप माने गुरु के चरण कमलों में सम्पूर्ण आत्मसमपर्ण करना। गुरु सेवा के नित्य क्रम में खूब नियमित रहो। गुरु के वचनों में विश्वास रखना यह अमरत्व के द्वार खोलने के लिए गुरु चाबी है।

आज हम  मन्त्र मूलम गुरूरवाक्यम इस श्लोक के इस छोटे से चरण पर विचार करेंगे। सफलता की सीढ़ी है मन्त्र मूलम गुरूरवाक्यम। अर्थात जो गुरु का वाक्य है वही सेवक के लिए मन्त्रो का मूल है, मन्त्रो का राजा है। मन्त्र किसी पोथी पुस्तक के अक्षरों या शब्दो का नाम नही है, गुरु के वाक्य, गुरु के वचन, गुरु की आज्ञा यही मन्त्र राज है। जिसको गुरु का यह मंत्र मिल गया उसका काम बन गया उसकी भटकन मिट गई और वह शांत चित्त होकर एक जगह पर आराम से बैठ गया और जिसको यह मंत्र नही मिला वह इधर-उधर मन्त्रो के उलझन में पड़कर गेंद की तरह कभी कहीं- कभी कहीं ठोकरे खाता रहता है।

गुरु का वचन है वही सही अर्थों में सच्चा मन्त्र है उसकी कमाई करना साधक का परम धर्म है। जिसने गुरु के वचन को दृढ़ता से ग्रहण कर लिया है वह संसार मे रहता हुआ मुक्त रूप है, काल और माया उस पर अपना असर नही डाल सकती क्योंकि गुरु का वचन परम् पद का प्रवेश पत्र है। जिसने इस प्रवेश पत्र को हॄदय में सम्भाल कर रख लिया और नाम रूपी गाड़ी पर सवार है उसे परम् पद तक पहुंचने में कोई सन्देह नही माया की कोई भी ताकत इसे रोकने में असमर्थ हो जाती है वह सब खतरों से निर्भय होकर सहज ही अपनी मंजिल पर जा पहुंचता है।

यह गुरु का वचन क्या है ? दूसरे शब्दों में इसको गुरु मत या गुरु की आज्ञा कहनी चाहिए। जो सेवक गुरु की आज्ञा में रहता है अर्थात गुरु मत अनुसार चलता जाता है वह निःसंदेह सफलता को प्राप्त होता ही है।

सहजो बाई कहती है कि-

गुरु की आज्ञा दृढ़ कर गहिये,

गुरु की आज्ञा ही में रहिये।

गुरु आज्ञा बिन काज न कीजे,

हानि होय तो होने दीजिए।।

गुरु की आज्ञा विघ्न न कोई,

गुरु की आज्ञा गुरुमुख होइ।

गुरु की आज्ञा भक्ति बढावे,

गुरु की आज्ञा पार लगावे।।

गुरु की आज्ञा सकल शिरोमणि,

गुरु की आज्ञा चले सो हरिजन।

गुरु की आज्ञा माने सोई साधु,

गुरु आज्ञा पद भेद अगाधू।।

और गुरु आज्ञा माने नही,

गुरु ही लगावे दोष।

गुरु निंदक जग में दुखी,

मोवे न पावे मोक्ष।।

गुरु अर्जुन देव जी महराज के दरबार मे एक सिक्ख रहता था जो भंडार से भोजन आदि तो खा लेता परन्तु सेवा गुरु द्वार की नही करता था। अगर सत्संगी उसे सेवा के लिए कहते तो वह यह उत्तर देता कि- मैं गुरु का सेवक हूँ तुम्हारा सेवक तो नही हूँ जो तुम्हारे कहने पर सेवा करूँ जब गुरु महाराज कहेंगे तब सेवा करूँगा। जब कभी भी कोई सेवा के विषय मे उससे कहता तो वह यही उत्तर देता। होते होते यह बात फैल गई।

गुरुमहाराज ने भी सुना कि अमुक मनुष्य दरबार मे रहता है मगर सेवा नही करता। एक दिन आप गुरुमहाराज सत्संग कर रहे थे, सत्संग के बीच उन्होंने फ़रमाया की सेवा एक सार वस्तु है उससे मन शुद्ध होता है और जिन अंगों के साथ सेवा की जाती है वे अंग पवित्र होते है सार्थक होते है अर्थात हाथ पैर तभी सफल होता है जब मनुष्य इनसे सेवा का काम ले वरना यह शरीर किस काम का इसलिए गुरु की सेवा से ही जीव का कल्याण है जो लोग सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है गुरु उन पर प्रसन्न होते है।

भाई गुरुदास जी लिखते है कि-

धृग सिर जो गुरु न निवे,

गुरु लगे न चरणी।

धृग नेत्र गुरु दरस बिन

बेखे पर तरनी।।

धृग जिव्हा गुरु मंत्र बिन

होर मन्त्र सिर सिंमरणे।

बिन सेवा धृग हाथ पैर होर निःफल करनी।।

पीर मुरीदा पीरहड़ी

सुख सद्गुरु शरनी।

इस बात को गोस्वामी जी कहते है कि-

नयन न सन्त दरस नही देखा,

लोचनमोर पंख कर लेखा।

ते सिर कटु तो मरी सम तुला,

जे न नवत हरि गुरु पद मुला।।

कबीर साहेब कहते है कि-

सेवक सेवा में रहे

सेवक कहिये सोय।

कहे कबीर सेवा बिना,

सेवक कबहूं न होय।

सद्गुरु का सहज ही स्वभाव होता है कि वह हर समय अपने शिष्य के अवगुणों को ढंकते है और उसपर पर्दा डालते है परंतु यदि शिष्य के त्रुटियों को भी उस पर प्रकट न करे तो फिर उसका कुछ बनता नही सेवक का पतन होता जाता है इसलिए गुरु कृपा कर सेवक को उसकी त्रुटियां भी बताते है इसलिए वह अपने सत्संग द्वारा उसकी त्रुटियों को कभी-कभी जला दिया करते है और जो केवल देखा देखी या किसी कामना को लेकर सत्संग में गुरु आश्रम में आये होते है उसके लिए यह बात कठिन हो जाती है।

जब गुरु का इस प्रकार का सत्संग सुना तो वह सिक्ख उठकर प्रार्थना करने लगा-

कृपा निधान ! मैं आपका सेवक हूँ और आपकी आज्ञा पालन करने के लिए तैयार हूं आप यदि मुझे दरिया में डूबने या आग में जलने का भी हुक्म देंगे तो मैं इनकार न करूँगा परन्तु इन लोगो के कहने से सेवा नही कर सकता।

गुरुमहाराज मुस्कुराए, अच्छा भाई ! अगर तू हमारी आज्ञा का पालन करता है और तुझे आग में जलने की भी आज्ञा दे तो क्या तू उसे मान लेगा ?

-अवश्य मानूँगा गुरुदेव।

कहना सुगम और करके दिखाना कठिन होता है उसने हां तो कर दी परन्तु गुरु के वचनों की पालना तो वह करे जो गुरमुख हो और जिसे गुरु की वचनों की कद्र हो लेकिन जिसको गुरु के वचनों की कद्र ही न हो वह उनकी पालना क्या करेगा ? साथ ही जो मनुष्य सेवा करने वाला होता है उसकी जबान पर ऐसी अनर्गल बाते आती ही नही क्योंकि यदि वह सेवक है तो उसे सेवा करना धर्म है चाहे जिसके द्वारा भी हाथ आये बल्कि भक्त का नियम तो यह है जिसके द्वारा तुम्हे गुरु की सेवा हाथ आये उसका एहसान मानो क्योंकि वह तुम्हे गुरु की सेवा देता है जिससे तुम्हारा असली कल्याण है। दूसरी यह है कि जो शख्स सेवा करने वाला होता है उसे तो कण-कण से गुरु का हुक्म मिलता रहता है। वह हर कर्म में गुरु का हाथ अपने साथ देखता है और हर बात में गुरु का हुक्म सुनता है उसे रोक ही कौन सकता है और उसे सेवा की कमी भी कहाँ है जिसे अपने गुरु की प्रसन्नता की जरूरत है उसे तो पग-पग पर गुरु की सेवा का अवसर मिलता है।

भीलनी को किसने आज्ञा दी थी और यह युक्ति उसको किसने सिखाई थी कि वह रात को छिपकर भी ऋषियों के आश्रम में दातुन काटकर रख आती, लकड़ियां रख आती उनके रास्ते साफ कर आया करती। जो करने वाले होते है उनके लिए मार्ग हर समय खुला है जो यूँ ही बाते बनाने वाले होते है उनको चाहे स्वयं ही सद्गुरु आज्ञा क्यों न कर दे तो भी वह उसकी कद्र नही जान सकते।

कबीर गुरु सबको चहे, गुरु को चहे न कोय।

जब लग आस शरीर की तबलग दास न होय।।

सेवा सभी करते है परंतु उसके भाव को कोई बिरले समझते है। वही सेवा है यदि उसको प्रेम के साथ किया जाय तो वह पूरी फलदायक होती है। परन्तु विरुद्ध इसके यदि उसे भुगतान समझकर ऊपर ऊपर से ही भुक्ता दिया जाय और मन का प्रेम उसके साथ शामिल न हो, गुरु के प्रति अहोभाव शामिल न हो तो जितना लाभ उसे होना चाहिए नही होता ऐसे हालत में यदि शिष्य जीवन पर्यंत भी सेवा करता रहे तो मात्र वह मजदूरी समझकर ही करता रह जाएगा।

भक्ति के मार्ग में उसके मन और बुद्धि के विचारों को उन्नति नही मिलेगी और न ही कभी उसके आत्मसम्बन्धी संस्कारो को उभरने का अवसर मिलेगा। निःसंदेह सेवा एक सार वस्तु है अध्यात्म मार्ग का। यह मालिक के प्रसन्नता का सबसे आसान और बिल्कुल सहज मार्ग है परंतु शर्त यह है कि सेवा के भाव को समझकर सेवा की जाये।

कागभुशुण्डि जी कहते है कि- हे गरुड़ जी ! सेवक का सेवा और प्रेम के बिना इस संसार सागर से पार होना असम्भव है।

सेवक सेवा भाव बिन भव न तरे उरगारी।

भजो राम पद पंकज अस सिद्धान्त विचारे।।

इसलिए इस सिद्धांत को दृढ़ निश्चय करके भगवान के चरण कमलों का भजन करो।

कबीर साहेब कहते है कि-

निर्बन्ध बंधा रहे बंधा निर्बन्ध होय।

कर्म करे कर्ता नही दास खावे सोय।।

अर्थात जो गुरु का सेवक है वह बंधा हुआ भी निर्बन्ध है और निर्बन्ध होता हुआ भी जानबूझकर बन्धन में पड़ा हुआ है। कर्म करता हुआ अकर्मक है और अकर्मक होता हुआ कर्मी बना हुआ है। इसको कर्म फल की इच्छा नही है वह गुरु के मौज के आसरे चलता है, सुख हो या दुख वह दोनों अवस्थाओ में समान चित्त रहता है जैसे स्त्री एक पति के पीछे सारे कुटुम्ब की सेवा करती है इसीप्रकार यह गुरु को प्रसन्न करने के लिए सब सेवको का सेवक़ बनकर रहता है।

गुरु के घर को अपना घर समझता है और सच्चे मन से सब कर्मो को पूर्ण करता है किसी से ईर्ष्या या विरोध नही करता सबसे एक चित्त भाव व नम्रता से बरतता है। यद्यपि वह सबके साथ प्यार करता है परंतु किसी जगह उसके मन की पकड़ नही होती मन का अहंकार उसने त्याग दिया।

तकलीफ और आराम का सवाल उसके समीप पैदा नही होता, क्षमा और अहं उसके स्वभाव में दाखिल है वह हर समय अपने मन के रुख को देखता हुआ चलता है, दिल को किसी के अंदर अटकने नही देता हर समय अपने मार्ग को दृष्टि गोचर रखता है। मन को नष्ट करने के यत्न में लगा हुआ है अपितु सेवा से उसका मन सहज ही नष्ट हो जाता है इसीप्रकार अपने जीवन को व्यतीत करते हुए उसको कई तरह के तजुर्बे हांसिल हो जाते है और निरख परख की हालत उसमे पैदा हो जाती है और उसको इतनी समझबुझ हो जाती है कि बन्धन क्या है और मुक्ति क्या है ? उसकी मति प्रतिपन्ना मति हो जाती है।

कल हम देखेंगे कि गुरु अर्जुनदेव जी उस सिक्ख को क्या आज्ञा फरमाते हैं….

इंद्रपुर पाकर भी दुःख हाथ लगा….


कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग, राजयोग आदि सब योगों की नींव गुरूभक्तियोग है।

जो मनुष्य गुरूभक्तियोग के मार्ग से विमुख है वह अज्ञान, अन्धकार एवं मृत्यु की परम्परा को प्राप्त होता है।

गुरूभक्तियोग का अभ्यास जीवन के परम ध्येय की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है।

गुरूभक्तियोग का अभ्यास सबके लिए खुल्ला है। सब महात्मा एवं विद्वान पुरूषों ने गुरूभक्तियोग के अभ्यास द्वारा ही महान कार्य किये हैं। जैसे एकनाथ महाराज, पूरणपोड़ा, तोटकाचार्य, एकलव्य, शबरी, सहजोबाई आदि।

संसार में रहने वाले जो मनुष्य दूसरों की वस्तु, पदार्थों व ऐश्वर्य इत्यादि को देखकर उसे पाने की इच्छा करते हैं, उनको शिक्षा देने के लिए ऋषि आत्रेय एक लीला करते हैं ।

आत्रेय ऋषि ने अनुष्ठान द्वारा सर्वत्र गमन करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी ।

एक बार वह घूमते हुए इंद्रलोक पहुँचे । इंद्र के ऐश्वर्य, धन-संपदा, वैभव को देखकर उनके मन मे इंद्र के राज्य को पाने का संकल्प हुआ । ऋषि अपने आश्रम पहुँचे और अपनी तपस्या के प्रभाव से त्वष्टा( विश्कर्मा के पुत्र) को बुलाकर कहा : “महात्मन ! मैं इन्द्रत्व प्राप्त करना चाहता हूँ ।

शीघ्र ही यहाँ इन्द्र – पद के उपयुक्त व्यवस्था कर दीजिये ।”

त्वष्टा ने उनके कहे अनुसार वहाँ इंद्र लोक के समान इंद्रपुर नामक नगर का निर्माण कर दिया ।

जब दैत्यों ने देखा कि इंद्र स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आ गया है तो वे बड़े प्रसन्न हुए और इंद्रपुर पाने के लिए अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे ।

तब भयभीत होकर आत्रेय जी ने कहा : “हे असुर-जनों ! मैं इंद्र नहीं हूँ, न ही यह नन्दनवन ही मेरा है ।

मैं तो इस गौतमी-तीर पर रहने वाला ब्राह्मण हूँ ।

जिस कर्म से कभी सुख नही मिलता, उस कर्म की ओर मैं दुर्दैव की प्रेरणा से आकृष्ट हो गया हूँ ।”

आत्रेय जी ने त्वष्टा से कहा : “आपने मेरी प्रसन्नता के लिए जिस इन्द्र – पद को बनाया है, उसको शीघ्र दूर करो ।

अब मुझे इन स्वर्गीय वस्तुओं की कुछ भी आवश्यकता नही है ।”

अनात्म वस्तुओं ( आत्मस्वरूप से भिन्न नश्वर वस्तुएं ) को पाने की इच्छा दुखदायी है ।

जो किसी के पद, वैभव , ऐश्वर्य को देखकर उस जैसा होने की इच्छा करता है, वह बंधन में पड़ता है और अंततः उसे दुःख उठाना पड़ता है ।

अतः शास्त्र और महापुरुष संकेत करते हैं कि हमे उस आत्मपद को पाने की इच्छा करनी चाहिए जिसको पाने के बाद इंद्र का पद भी सूखे तृणवत तुच्छ प्रतीत होता है और जिसको पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता ।

लक्ष्मण जी की सबसे बढ़िया यात्रा….


गुरूभक्तियोग में सब योग समाविष्ट हो जाते हैं। गुरूभक्तियोग के आश्रय के बिना अन्य कई योग, जिनका आचरण अति कठिन है, उनका सम्पूर्ण अभ्यास किसी से नहीं हो सकता।

गुरूभक्तियोग में आचार्य की उपासना के द्वारा गुरूकृपा की प्राप्ति को खूब महत्त्व दिया जाता है।

गुरूभक्तियोग वेद एवं उपनिषद के समय जितना प्राचीन है।

गुरूभक्तियोग जीवन के सब दुःख एवं दर्दों को दूर करने का मार्ग दिखाता है।

एक बार भगवान श्रीरामजी ने

लक्ष्मणजी से पूछा : “लक्ष्मण !

तुमने अयोध्या से लेकर लंका तक की यात्रा की, उस यात्रा में सबसे अधिक आनन्द तुम्हें कब आया ?”

लक्ष्मण जी : ” प्रभु ! मेरी सबसे बढ़िया यात्रा तो लंका में हुई और वह भी तब हुई जब मेघनाथ ने मुझे बाण मार दिया था।”

प्रभु ने हँसकर कहा : “लक्ष्मण !

तब तो तुम मूर्च्छित हो गए थे, उस समय तुम्हारी यात्रा कहाँ हुई थी?”

“महाराज ! उसी समय तो सर्वाधिक सुखद यात्रा हुई।”

लक्ष्मण जी का तात्पर्य कि अन्य जितनी भी यात्राएं हुई तो उन्हें चलकर पूरा किया लेकिन इस यात्रा की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि मूर्छित होने के बाद हनुमानजी ने मुझे गोद में उठा लिया और आपकी गोद मे पहुँचा दिया।

प्रभु ! सन्त की गोद से लेकर ईश्वर की गोद तक की जो यात्रा थी, जिसमें रंचमात्र कोई पुरुषार्थ नही था, उस यात्रा में जितनी धन्यता की अनुभूति हुई वह तो सर्वथा वाणी से परे है।

लक्ष्मण जी ने कहा : ” प्रभु !

शेष के रूप में आपको सुलाने का सुख तो मैने देखा था परंतु आपकी गोदी में सोने का सुख तो सन्त की कृपा से ही मुझे प्राप्त हुआ । इसलिये सबसे महान यात्रा वही थी जो हनुमान जी की गोद से आपकी गोद तक हुई थी ।”

श्रीरामजी ने लक्ष्मण जी को हृदय से लगा लिया ।