कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग, राजयोग आदि सब योगों की नींव गुरूभक्तियोग है।
जो मनुष्य गुरूभक्तियोग के मार्ग से विमुख है वह अज्ञान, अन्धकार एवं मृत्यु की परम्परा को प्राप्त होता है।
गुरूभक्तियोग का अभ्यास जीवन के परम ध्येय की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है।
गुरूभक्तियोग का अभ्यास सबके लिए खुल्ला है। सब महात्मा एवं विद्वान पुरूषों ने गुरूभक्तियोग के अभ्यास द्वारा ही महान कार्य किये हैं। जैसे एकनाथ महाराज, पूरणपोड़ा, तोटकाचार्य, एकलव्य, शबरी, सहजोबाई आदि।
संसार में रहने वाले जो मनुष्य दूसरों की वस्तु, पदार्थों व ऐश्वर्य इत्यादि को देखकर उसे पाने की इच्छा करते हैं, उनको शिक्षा देने के लिए ऋषि आत्रेय एक लीला करते हैं ।
आत्रेय ऋषि ने अनुष्ठान द्वारा सर्वत्र गमन करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी ।
एक बार वह घूमते हुए इंद्रलोक पहुँचे । इंद्र के ऐश्वर्य, धन-संपदा, वैभव को देखकर उनके मन मे इंद्र के राज्य को पाने का संकल्प हुआ । ऋषि अपने आश्रम पहुँचे और अपनी तपस्या के प्रभाव से त्वष्टा( विश्कर्मा के पुत्र) को बुलाकर कहा : “महात्मन ! मैं इन्द्रत्व प्राप्त करना चाहता हूँ ।
शीघ्र ही यहाँ इन्द्र – पद के उपयुक्त व्यवस्था कर दीजिये ।”
त्वष्टा ने उनके कहे अनुसार वहाँ इंद्र लोक के समान इंद्रपुर नामक नगर का निर्माण कर दिया ।
जब दैत्यों ने देखा कि इंद्र स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आ गया है तो वे बड़े प्रसन्न हुए और इंद्रपुर पाने के लिए अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे ।
तब भयभीत होकर आत्रेय जी ने कहा : “हे असुर-जनों ! मैं इंद्र नहीं हूँ, न ही यह नन्दनवन ही मेरा है ।
मैं तो इस गौतमी-तीर पर रहने वाला ब्राह्मण हूँ ।
जिस कर्म से कभी सुख नही मिलता, उस कर्म की ओर मैं दुर्दैव की प्रेरणा से आकृष्ट हो गया हूँ ।”
आत्रेय जी ने त्वष्टा से कहा : “आपने मेरी प्रसन्नता के लिए जिस इन्द्र – पद को बनाया है, उसको शीघ्र दूर करो ।
अब मुझे इन स्वर्गीय वस्तुओं की कुछ भी आवश्यकता नही है ।”
अनात्म वस्तुओं ( आत्मस्वरूप से भिन्न नश्वर वस्तुएं ) को पाने की इच्छा दुखदायी है ।
जो किसी के पद, वैभव , ऐश्वर्य को देखकर उस जैसा होने की इच्छा करता है, वह बंधन में पड़ता है और अंततः उसे दुःख उठाना पड़ता है ।
अतः शास्त्र और महापुरुष संकेत करते हैं कि हमे उस आत्मपद को पाने की इच्छा करनी चाहिए जिसको पाने के बाद इंद्र का पद भी सूखे तृणवत तुच्छ प्रतीत होता है और जिसको पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता ।