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तब तक भवबंधन नहीं कटता – पूज्य बापू जी


पौराणिक कथा है । एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछाः ″इतने सारे लोग मंदिरों में जाते हैं, इतने सारे लोग धार्मिक हैं फिर भी उनका भवसागर क्यों नहीं कटता ?″

शिवजी ने कहाः ″वे मंदिरों में तो जाते हैं लेकिन विषय-विकार के पार नहीं जाते, आत्मतीर्थ, आत्ममंदिर वे नहीं जानते ।

इदं तीर्थं इदं तीर्थं भ्राम्यन्ति तामसा जनाः ।

आत्मतीर्थं न जानन्ति कथं मोक्ष शृणु प्रिये ।।

वे अपनी मान्यताओं से घिर हुए होते हैं । मान्यताओं से जो पार हो गये वे तो जहाँ हैं वहीं मंदिर है पार्वती !″

पार्वती जी ने कहाः ″फिर भी मेरे संतोष के लिए आप चलिये । इतने-इतने भक्त हैं, कुछ तो मान्यताओं के पार होंगे ।″

शिवजी ने कहाः ″चलो, जाया जाय ।″

देवाधिदेव महादेव और जगज्जननी पार्वती जी मानव-तन धारण किये हुए एक प्रसिद्ध विशाल मंदिर के प्रांगण में वहाँ आ बैठे जहाँ भिखमंगे बैठते है थे । पार्वती जी एक सुंदर स्त्री का और शिवजी एक कोढ़ी का रूप धारण किये हुए थे । उस कोढ़ी पति को लेकर भिखारिन का वेश बनाये हुए वह देदीप्यमान सुंदरी बैठी थी । कई लोग मंदिर जाते थे, उनकी सीधी दृष्टि उस सुंदरी की ओर पड़ती थी । लौट के आते समय कुछ दान-दक्षिणा देनी होती तो सुंदरी की ओर देते थे लेकिन उसके चित्र को दिमाग में भर के ले जाते थे । कोढ़ी के चित्र को नहीं ले पाते थे । भीड़ तो खूब थी, घंटनाद भी हो रहा था, भगवान का जयघोष भी हो रहा था, त्वमेव सर्वं मम देव देव… यह भी हो रहा था किंतु सब अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार दोहराया जा रहा था । भक्त लोग ललाट को तिलक भी लगाये जा रहे थे, रोज की तरह सब दर्शन करते-करते रवाना हो रहे थे, काफी भीड़ गुज़र रही थी । उतने में एक व्यक्ति निकला जो मंदिर में जाने को था, उसने देखा कि कोई कोढ़ी व्यक्ति बैठा है और उसकी पत्नी मक्खियाँ भगा रही है ।

उस भक्त ने कहाः ″माँ ! ये आपके पति कोढ़ के रोग से आक्रांत हैं, आप मेरे घर चलिये । मैं आपका पुत्र हूँ, मेरी सम्पत्ति आपकी सम्पत्ति है, मेरा घर आपका घर है । यहाँ तो इनका रोग और भी बढ़ता जायेगा और वह संक्रामक होने से इससे दूसरों को भी तकलीफ होगी, आप मेरे घर चलिये । मैं इनकी सेवा करूँगा, आप भी सेवा करना । मेरे पास जो कुछ है वह इनकी सेवा में लगायेंगे ।″

पार्वती जी ने कहाः ″नहीं, हम किसी के घर नहीं जाते ।″

और बात भी सच्ची है, वे किसी के घर नहीं जाते हैं । जब तक किसी का घर बचता है तब तक वे नहीं जाते हैं, जब ‘कोई’ हट जाता है तब वे ही रह जाते हैं ।

उस सज्जन ने मंदिर जाना स्थगित किया और घर गया । जो कुछ उसके पास इलाज के लिए दवाई पट्टियाँ थीं वह ले आया, कुछ सफाई की । जो विश्व की सफाई करते हैं, हल्ला-गुल्ला, रजो-तमोगुण बढ़ जाता है, पापी लोग बढ़ जाते हैं तब जो सफाई कर देते हैं उनकी आज उस भक्त ने सफाई की… पट्टियाँ बाँध दीं, प्रणाम किया फिर मंदिर गया तो मंदिर का देव मुस्कराता हुआ मिला । उस देव को देखते-देखते भीतर के देव कह रहे हैं कि ‘बस ! मुझे केवल इन पत्थरों में मत देखना, जहाँ तेरी दृष्टि पड़े वहाँ पहले मुझे देखना, बाद में दूसरों को मानना ।’ वह लौटा, रोमांचित हो गया । फिर आकर उस कोढ़ी को प्रणाम किया, उसकी पत्नी को प्रणाम किया ।

पत्नी ने कहाः ″बेटे ! मेरी शंका का समाधान हो गया । मंदिरों में मूर्तियों के पास तो बहुत-बहुत लोग आते हैं लेकिन कोई-कोई विरला ही सात्त्विक है जो मंदिरों और मूर्तियों के बहाने अपने पास आता है । और तू जो अपने पास आया है, तेरी दृष्टि रूप-लावण्य, सौंदर्य पर नहीं पड़ी बल्कि मेरे इन कोढ़ी पति पर पड़ी ।

तूने इन्हें आत्मभाव से देखा – जैसे तेरे को ही कुछ हुआ हो । जिसकी आत्मभाव की दृष्टि होती है न, उसी को सत्य का साक्षात्कार होता है । अच्छा, अब ये जो कोढ़ी हैं इनको मैं असली रूप में प्रकट होने को कह देती हूँ और मैं क्या हूँ वह भी तुझे बता देती हूँ । लोग तो हमें इसी रूप में देखेंगे पर हमारी कृपा से तुझे हमारे असली रूप के दर्शन होंगे ।″

पार्वती जी का संकल्प अकाट्य होता है । पार्वती जी ने संकल्प किया, शिव और पार्वती के दर्शन हुए उसी कोढ़ी और कोढ़ी की पत्नी में । वह धन्यवाद से भर गया ।

पार्वती जी ने कहाः ″यह भी हमारा वास्तविक स्वरूप नहीं है । हे भक्त ! यह भी तुम्हारी और लोगों की मान्यता है कि शिवजी इस प्रकार के हैं, पार्वती जी इस प्रकार की हैं लेकिन पार्वती वास्तविक देव नहीं हैं, शिवजी भी वास्तविक देव नहीं हैं, ब्रह्मा भी वास्तविक देव नहीं हैं । वास्तविक देव तो वह है जो सबके अंतर में छुपा है, जो गुणों से और मान्यताओं से परे है ।″

असङ्गो ह्यं पुरुषः ।…

केवलो निर्गुणश्च ।

मुनि अष्टावक्र जी यही बात बता रहे हैं कि ‘मान्यताओं से पार हो जा ।’ कितनी सुंदर बात है !

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक । ( अष्टावक्र गीताः 1.14 )

हे पुत्र ! देहाभिमानरूपी पाश से तू चिरकाल से बँधा है ।

लोग देहाभिमान से बँधे हैं इसलिए वे यदि भगवान को भी खोजेंगे तो किसी देहधारी के रूप में खोजेंगे । हम यदि धन के पाश में बँधे हैं तो हमें धनवान इष्ट या भगवान ही पसंद आयेगा । हम यदि त्याग की कल्पनाओं से बँधे हैं तो हमें त्यागी इष्ट या गुरु ही पसंद आयेगा । हम यदि विद्वता के अभिमान में बँधे हैं तो हमारा इष्ट ‘विद्या’ होगी और हमें विद्वान गुरु ही पसंद आयेंगे । यह सारा मान्यातओं का खिलवाड़ है । मान्यताओं से पार जब तक नहीं जायेंगे तब तक भवबंधन नहीं कटता ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 350

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सद्गुरु-वचनों में निष्ठा कितना ऊँचा बनाती है – पूज्य बापू जी


विश्वास बहुत बड़ी चीज है । विश्वासो फलदायकः । जैसा विश्वास और जैसी श्रद्धा होगी, वैसा ही फल प्राप्त होगा । नामदेव जी की निष्ठा थी तो कुत्ते में से भगवान को प्रकट होना पड़ा । निष्ठा थी धन्ना जाट की तो सिलबट्टे में से ठाकुर जी प्रकट हो गये । शबरी की भी अपने गुरु के वचनों में दृढ़ श्रद्धा, दृढ़ निष्ठा और दृढ़ भक्ति थी तो श्रीराम जी शबरी का द्वार पूछते-पूछते आये और उन्होंने शबरी के जूठे बेर भी खाये ।

पम्पा सरोवर के इर्द-गिर्द तपस्वी लोग तपस्या करते थे । वे श्री राम जी के लिए व्रत रख के बैठे थे । उन्होंने सुना कि रामजी हमारे पास पहले नहीं पधारे, उस भीलन के यहाँ गये हैं तो वे सारे ऋषि-मुनि, यति-योगी, तपस्वी भागे-भागे आये ।

श्रीराम जी ने कहाः ″ऋषिवरो ! इतनी सुबह हो गयी है और दिन चढ़ गया है फिर भी आपकी वेशभूषा से लगता है कि आपने नहाया नहीं है । साधु तो सवेरे-सवेरे नहाते हैं फिर तिलक करते हैं किन्तु न आपका नहाना हुआ है न साधु का श्रृंगार है, क्या कारण है ?″

वे ऋषि-मुनि बोलेः ″भगवन् ! क्या बतायें, पम्पा सरोवर के पास मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी आयी थी । कुछ नये-नये साधुओं ने कहा कि यह तो अंत्यज है, छोटी जाति की है, पम्पा सरोवर में पानी भरने जाती है, हमारा सरोवर अपवित्र करती है । छोटे-बड़े विचारवाले सब जगह होते हैं । तो कुछ छोटे विचारवालों ने शबरी का अनादर कर दिया, तब से पम्पा सरोवर सूखने लग गया है । अब तो खड्डे में थोड़ा-सा पानी है लेकिन पानी क्या है, वह तो मवाद और रक्त का दुर्गंध लिये हुए है । वह हमारे आचमन के योग्य भी नहीं रहा, स्नान, अर्घ्य और पूजा के योग्य भी नहीं रहा, बड़ी समस्या है । आप चलो और अपना पवित्र, कोमल चरण रखो, जल की अंजलि भरकर संकल्प डालो तो कहीं कुछ हो सकता है ।″

राम जी बोलते हैं- ″यह सामर्थ्य मुझमें नहीं है कि शबरी के अनादर से जो प्रकृति कोपायमान हुई है और पम्पा सरोवर का पानी रक्त और मवाद में बदल गया है उसको मैं शुद्ध कर सकूँ । मैं अपना अपमान तो सह लेता हूँ किंतु मेरे भक्त का अपमान मेरे से सहा नहीं जाता । मेरा कोई मान करे तो मुझे इतना आनंद नहीं आता जितना मेरे भक्त और संत के मान से मुझे आनंद आता है ।

हाँ, एक उपाय है । अगर शबरी भीलन राजी हो जाय और दायें पैर का अँगूठा पम्पा सरोवर में डाले तो सरोवर पवित्र हो सकता है ।″

शबरी की कैसी निष्ठा थी सद्गुरु वचनों में, श्रीराम जी में और उसी निष्ठा के प्रभाव से राम जी ने शबरी को कितना ऊँचा कर दिया !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 350

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परिप्रश्नेन


प्रश्नः मन एकाग्र नहीं होता है तो क्या करें ?

पूज्य बापू जीः तुम्हारा मन एकाग्र नहीं होता है तो सबका हो गया क्या ? मन एकाग्र नहीं होता तो अभ्यास करना चाहिए । भगवान के, सद्गुरु, स्वस्तिक अथवा ॐकार के सामने बैठकर एकटक देखने का अभ्यास करो । मन इधर-उधर जाय तो फिर से उसे मोड़कर वहीं लगाओ । कभी-कभी चन्द्रमा की ओर देखते हुए आँखें मिचकाओ, उसको एकटक देखो । कभी श्वासोच्छ्वास को गिनो । श्वास अंदर जाता है तो ‘शांति’, बाहर आता है तो ‘1’… अंदर जाता है तो ‘ॐ’, बाहर आता है तो ‘2’… अंदर जाता है तो ‘आनंद’, बाहर आता है तो ‘3’… ऐसे 54 या 108 तक गिनती तक करो । मन कुछ अंश में एकाग्र होगा, मजा भी आयेगा और शरीर की थकान भी मिटेगी ।

प्रश्नः कर्तव्य क्या है ?

पूज्य बापू जीः ईश्वर में स्थिर होना और औरों को स्थिर करना – यह कर्तव्य है । बाकी का सब बेवकूफी है । आप ईश्वर में स्थिर हो जाओ फिर दूसरों को करा दो – यह कर्तव्य है । तो सब तो सत्संग नहीं करेंगे । नहीं-नहीं, आप जो भी काम करें वह ईश्वर में स्थिर होने के लिए करें तो उससे आप भी स्थिर होते जायेंगे और दूसरे को भी सहायक हो जायेंगे न ! कर्तव्य से चूका कि धड़ाक… दुःख चालू । ईश्वर के विचार से, आत्मविचार से जरा-सा नीचे हटे कि मन पटक देगा । जो अपनी शांति सँभाल नहीं सकता, अपनी प्रसन्नता सँभाल नहीं सकता, अपना कर्तव्य सँभाल नहीं सकता वह तो जीते-जी मरा हुआ है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 34 अंक 350

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