जीवन में विवेक का आदर होने से स्वभाव में असंगता आयेगी । स्वार्थ से संगदोष लगता है और विवेक से संग में रहते हुए भी असंगता आती है । जैसे हवा सबसे मिलती जुलती है फिर भी आकाश में देखो असंग है । आकाश सबसे मिला है फिर भी असंग है, सूर्य सबसे मिला है फिर भी असंग है, ऐसे ही विवेक के आदर से तुम सबसे मिलते हुए भी असंग रहोगे । वासना के कारण संगदोष लगता है लेकिन विवेक से तुम मिले तो संगदोष नहीं रहेगा, मिलते हुए भी तुम असंग हो । वासनावान दूसरे को बंधन में रखता है और विवेकी दूसरों की मुक्ति और अपनी मुक्ति का रास्ता साफ कर लेता है ।
जो अपना नहीं है उसे हम अपना मानते हैं । प्रेम सदा विशालता दिखाता है । जिसके प्रति तुम प्रेम रखते हो उसको संकीर्ण क्यों बनाना ? जिसके प्रति तुम सहानुभूति रखते हो उसको उदारता भी तो दो । ‘तू मेरा दोस्त है तो अन्य किसी से बोल मत, तू मेरा मित्र है तो दूसरे किसी से मिल मत…’ यह संकीर्णता है । ‘तू मेरा मित्र है तो तेरी मन की प्रसन्नता देखकर मैं प्रसन्न होऊँगा, तेरी विशालता देख के मैं विशाल-हृदय होऊँगा…’ ऐसा अगर विवेक आ जाय तो संसार के तमाम झगड़े, तमाम मुसीबतें कम हो जायें ।
जिस व्यक्ति के जीवन में विवेक होता है वह जब छोटी-छोटी चीजों में अपना विवेक बेचता नहीं, बड़ी-बड़ी चीजों में भी विवेक नहीं बेचता तब बड़े-में-बड़ा पद और बड़े-में-बड़ा जो परमात्मा है वह उसको देर-सवेर मिल ही जाता है । इसलिए अपने विवेक का आदर करना चाहिए । जो विवेक बेचकर बरबादी के जीवन में जाते हैं, शुरुआत में उनको मजा आता है – डिस्को में मजा आ जाता है, ‘रॉक एंड रोल’ में मजा आ जाता है, काम विकार, परस्त्रीगमन आदि में मजा आ जाता है किंतु अंत में अनंत-अनंत जन्मों तक पेड़-पौधों की योनियों, राक्षसी योनि, प्रेत की योनि, भैंसों की योनियों में दुःख भोगना पड़ता है । एक अल्प ( क्षणभंगुर ) मनुष्य जन्म, उसमें अगर विवेक का सहारा ले ले तो मनुष्य अनंत ब्रह्मांडनायक ईश्वर से मिल सकता है और अविवेक की शरण जाता है तो अनंत काल तक गर्भाग्नि में पकने की एवं जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि की पीड़ा सहता-सहता, दुःख सहता-सहता अपने लिए, देश के लिए, विश्व के लिए अभिशाप बन जाता है । और जो विवेक का सहारा लेता है, ब्रह्मजिज्ञासा का सहारा लेता है वह अपने लिए, कुटुम्ब के लिए, देश के लिए, विश्व के लिए, अरे ! विश्वेश्वर के लिए भी अनुकूल हो जाता है । तो आप कृपा करके अपने प्रति न्याय और दूसरों के प्रति उदारता का व्यवहार करें । इससे आपके जीवन में असंगता आ जायेगी ।
असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा । ( गीताः 15.3 )
गीता ने कहाः अपने असंग स्वभावरूप दृढ़ शस्त्र से मोह-माया का छेदन करो ।
अपनी गलती को आप निकालने में जब तक तत्पर नहीं होंगे तब तक आपकी उन्नति नहीं होगी । देवी-देवता, गुरु, संत भी आपकी उन्नति तब करेंगे जब आप अपने जीवन में उतारेंगे । आपके पास विवेक होगा तो उनका परामर्श आप अपना बना लेंगे । संत महात्मा और मजहब तुमको परामर्श दे सकते हैं, मोक्ष नहीं दे सकते हैं । मोक्ष तो वे दें पर उसमें आपके विवेक की जरूरत है । शिक्षक आपको पाठ पढ़ा सकता है पर याद तो तुम्हें ही करना होगा । शिक्षक बोर्ड पर लिख सकता है किंतु स्मृति में लिखने की जवाबदारी तुम्हारी होती है । ऐसे ही विवेक का आदर करके जीवन जीने की जवाबदारी तुम्हारी है । ऐसी जवाबदारी मान लोगे तो जीवनदाता तुम्हारा आत्मा प्रकट हो जायेगा ।
अर्जुन ने मान ली थी यह बात और युद्ध के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण के वचनों को मानकर आत्मसात् किया था । राजा रहूगण ने जड़भरत जी के वचनों को, राजा जनक ने अष्टावक्र जी के वचनों को, शुकदेव जी ने राजा जनक के वचनों को, रामकृष्ण परमहंस जी ने तोतापुरी जी के वचनों को आत्मसात् किया और हमने भी अपने सद्गुरु भगवत्पाद पूज्य लीलाशाह जी बापू के वचनों को आत्मसात् किया और परमात्मप्राप्ति कर ली । यह कठिन नहीं है, केवल विवेक का आदर करो, ब्रह्मवेत्ता संत-सद्गुरु के वचनों को जीवन में उतारो ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 350
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