Monthly Archives: November 2010

विद्यार्थियों के लिए सृजनात्मक दिशा


हमारे शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है मस्तिष्क। इसमें दो महत्त्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं – पीनियल ग्रंथी तथा पीयूष ग्रंथि।

पीनियल ग्रंथी भ्रू-मध्य (दोनों भौहों के बीच जहाँ तक तिलक किया जाता है) में अवस्थित होती है। योग में इस ग्रंथि का संबंध आज्ञाचक्र से है। यह ग्रंथि बच्चों में बहुत क्रियाशील होती है किंतु 8-9 वर्ष की उम्र के बाद इसका ह्रास प्रारम्भ हो जाता है और पीयूष ग्रंथि अधिक सक्रिय हो जाती है। इससे बच्चों के मनोभाव तीव्र हो जाते हैं। यही कारण है जिससे कई बच्चे भावनात्मक रूप से असंतुलित हो जाते हैं और किशोरावस्था में या किशोरावस्था प्राप्त होते ही व्याकुल हो जाते हैं तथा न करने जैसे काम कर बैठते हैं। पीनियल ग्रंथि के विकास तथा उसके क्षय में विलम्ब हेतु व पीयूष ग्रंथि के नियंत्रण हेतु 7-8 वर्ष की उम्र से बालकों में भगवन्नाम-जप, कीर्तन, मुद्राएँ, आज्ञाचक्र पर ध्यान आदि के अभ्यास के संस्कार डालना आवश्यक है। इनसे होने वाले लाभ इस प्रकार हैं

ज्ञानमुद्राः हमारे दोनों अँगूठों के अग्रभाग में मस्तिष्क, पीयूष ग्रंथि और पीनियल ग्रंथि से संबंधित तीन मुख्य बिंदु हैं। इन बिंदुओं पर दबाव डाला जाय तो मस्तिष्क में चुम्बकीय प्रवाह बहने लगता है, जो कि मस्तिष्क तथा पीनियल ग्रंथि को अधिक क्रियाशील बनाता है। इससे स्मरणशक्ति, एकाग्रता व विचारशक्ति का विकास होता है। जब हम ज्ञानमुद्रा में बैठते हैं तब  अँगूठे के इसी भाग पर तर्जनी का दबाव पड़ता है और उपर्युक्त सभी लाभ हमें सहज में ही मिल जाते हैं।

जपः माला पर भगवन्नाम जप करने में अँगूठे और अनामिका से माला पकड़कर मध्यमा से घुमाने पर हर मनके का घर्षण उन्हीं बिंदुओं पर होता है।

कीर्तनः कीर्तन में दोनों हाथों से ताली बजाने पर हाथों के सभी एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और हमारे शरीर के समस्त अवयव बैटरी की तरह ऊर्जा सम्पन्न (रिचार्ज) होकर क्रियाशील हो उठते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियाँ भी ठीक से कार्य करने लगती हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ जाती है तथा रोग होने की सम्भावना कम हो जाती है। बालकों द्वारा एक साथ मिलकर प्रभु-वंदन और संकीर्तन करने में एक स्वर से उठी हुई तुमुल ध्वनियाँ वातावरण में पवित्र लहरें उत्पन्न करने में समर्थ होती हैं तथा इस समय मन ध्वनि पर एकाग्र होता है, जिससे स्मरणशक्ति तथा श्रवणशक्ति विकसित होती है। इसीलिए विद्यालयों में सम्मिलित भगवत्प्रार्थना को महत्त्वपूर्ण माना गया है।

आज्ञाचक्र पर ध्यानः ज्ञानमुद्रा में पद्मासन या सुखासन में बैठकर आज्ञाचक्र पर अपने इष्टदेव अथवा गुरूदेव का ध्यान करने का भी यही महत्त्व है। ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः – एकलव्य की सफलता का यह रहस्य सुप्रसिद्ध ही है। एकाग्रता अथवा ध्यान मन के उपद्रवों तथा चंचलताओं को समाप्त करने और उसकी शक्तियों को सृजनात्मक दिशा प्रदान करने में बड़ा सहायक होता है। ध्यान के द्वारा बुद्धि गुणांक(I.Q.) का चमत्कारिक ढंग से विकास होता है, यह प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक तथ्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 215

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शीत ऋतु विशेष


(शीत ऋतुः 23 अक्तूबर से 17 फरवरी)

शीत ऋतु में पाचन शक्ति प्रबल रहती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक व बलवर्धक आहार वर्ष भर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। आइये, इस ऋतु में अपनी सेहत बनाने के लिए कुछ सरल प्रयोग जानें।

बल, सौंदर्य व आयुवर्धक प्रयोगः शरद पूर्णिमा के बाद पुष्ट हुए आँवलों के रस 4 चम्मच, शुद्ध शहद 2 चम्मच् व गाय का घी 1 चम्मच मिलाकर नियमित सेवन करें। इससे बल, वर्ण, ओज, कांति व दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है।

मस्तिष्क शक्तिवर्धक प्रयोगः 6 से 10 काली मिर्च, 2 बादाम, 2 छोटी इलायची, 1 गुलाब का फूल व आधा चम्मच खसखस रात को एक कुल्हड़ में पानी में भिगोकर रखें। सुबह बादाम के छिलके उतारकर सबको मिलाकर पीस लें व गर्म दूध के साथ मिश्री मिलाकर पियें। इसके बाद 2 घंटे तक कुछ न खायें। इससे मस्तिष्क की थकान दूर होकर तरावट आती है एवं शक्ति बढ़ती है। यह प्रयोग 2-3 हफ्ते नियमित करें।

स्फूर्तिदायक पेयः 2 चम्मच मेथीदाना 200 मि.ली. पानी में रात भिगोकर रखें। सुबह धीमी आँच पर चौथाई पानी शेष रहने तक उबालें। छानकर गुनगुना रहने पर 2 चम्मच शुद्ध शहद मिलाकर पियें। दिन भर शक्ति व स्फूर्ति बनी रहेगी।

पौष्टिक नाश्ताः चना, मूँग, मोठ यह सब मिलाकर एक कटोरी, एक मुट्ठी भर मूँगफली व एक चम्मच तिल (काले हों तो उत्तम) रात भर पानी में भिगोकर रखें। सुबह नमक मिलाकर भाप लें, उबाल लें। इसमें हरा धनिया, पालक व पत्तागोभी काटकर तथा चुकंदर, मूली एवं गाजर कद्दूकश करके मिला दें। ऊपर से काली मिर्च बुरककर नींबू निचोड़ दें। चार व्यक्तियों के लिए नाश्ता तैयार है। इसे खूब चबा-चबाकर खायें। यह नाश्ता सभी प्रकार खनिज-द्रव्यों, प्रोटीन्स, विटामिन्स व आवश्यक कैलरीज की पूर्ति करता है। जिनकी उम्र 60 साल से अधिक है व जिनकी पाचनशक्ति कमजोर है, उनको नाश्ता नहीं करना चाहिए।

शक्ति संवर्धक आहारः बाजरे के आटे में तिल मिलाकर बनायी गयी रोटी पुराने गुड़ व घी के साथ खाना, यह शक्ति-संवर्धन का उत्तम स्रोत है। 100 ग्राम बाजरे से 45 मि.ग्रा कैल्शियम, 5 मि.ग्रा. लौह व 361 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। तिल व गुड़ में भी कैल्शियम व लौह प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

सर्दियों में पत्तों सहित ताजी, कोमल मूली का सेवन शक्तिवर्धक सरल साधन है। मूली में गंधक, पोटैशियम, आयोडीन, कैल्शियम, लौह, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम आदि खनिज विपुल मात्रा में पाये जाते हैं। अस्थि-निर्माण में इनकी विशेष आवश्यकता होती है। (पुरानी, पकी मूली अथवा सूखी (बड़ी, मोटी) मूली त्रिदोष-प्रकोपक होने के कारण त्याज्य है।)

बल-वीर्य-पुष्टिवर्धक प्रयोगः शीत ऋतु में दही का सेवन लाभदायी है। दही में दूध से डेढ़ गुना अधिक कैल्शियम पाया जाता है। यह दूध की अपेक्षा जल्दी पच जाता है। शीघ्र शक्ति प्रदान करने वाले द्रव्यों में से दही एक है। ताजे, मधुर दही में थोड़ी मिश्री मिलाकर मथ लें (इससे दही के दोष नष्ट हो जाते हैं) व दोपहर में भोजन के साथ खायें। इससे शरीर पुष्ट हो जाता है।

सावधानीः आम, अजीर्ण, कफ, सर्दी-जुकाम, रक्तपित्त, गुर्दे व यकृत की बीमारी एवं हृदयरोग वालों को दही का सेवन नहीं करना चाहिए।

इन प्रयोगों में देश (स्थान), व्यक्ति की उम्र, प्रकृति व पाचन के अनुसार द्रव्यों की मात्रा कम या अधिक ली जा सकती है।

शीत ऋतु में उपयोगी अश्वगंधा पाक

लाभः सर्दियों में अश्वगंधा से बने हुए पाक का सेवन करने से पूरे वर्ष शरीर में शक्ति, स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है।

यह पाक शक्तिवर्धक, वीर्यवर्धक, स्नायु व मांसपेशियों को ताकत देने वाला एवं कद बढ़ाने वाला एक पौष्टिक रसायन है। यह धातु की कमजोरी, शारीरिक-मानसिक कमजोरी आदि के लिए उत्तम औषधि है। इसमें कैल्शियम, लौह तथा जीवनसत्त्व (विटामिन्स) भी प्रचुर मात्रा में होते हैं।

अश्वगंधा अत्यन्त वाजीकर अर्थात शुक्रधातु की त्वरित वृद्धि करने वाला रसायन है। इसके सेवन से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है एवं वीर्यदोष दूर होते हैं। धातु की कमजोरी, स्वप्नदोष, पेशाब के साथ धातु जाना आदि विकारों में इसका प्रयोग बहुत ही लाभदायी है।

यह पाक अपने मधुर व स्निग्ध गुणों से रस-रक्तादि सप्तधातुओं की वृद्धि करता है। अतः मांसपेशियों की कमजोरी, रोगों के बाद आने वाली दुर्बलता तथा कुपोषण के कारण आने वाली कृशता आदि में विशेष उपयोगी है। इससे विशेषतः मांस व शुक्र धातु की वृद्धि होती है। अतः यह राज्यक्ष्मा(क्षयरोग) में भी लाभदायी है। क्षयरोग में अश्वगंधा पाक के साथ ‘सुवर्ण मालती’ गोली का प्रयोग करें। किफायती दामों में शुद्ध ‘सुवर्ण मालती’ व ‘अश्वगंधा चूर्ण’ आश्रम के सभी उपचार केन्द्रों व स्टॉलों पर उपलब्ध हैं।

जब धातुओं का क्षय होने से वात का प्रकोप होकर शरीर में दर्द होता है, तब यह दवा बहुत लाभ करती है। इसका असर वातवाहिनी नाड़ी पर विशेष होता है। अगर वायु की विशेष तकलीफ है तो इसके साथ ‘महायोगराज गुगल’ गोली का प्रयोग करें।

इसके सेवन से नींद भी अच्छी आती है। यह वातशामक तथा रसायन होने के कारण विस्मृति, यादशक्ति की कमी, उन्माद, मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) आदि मनोविकारों में भी लाभदायी है। दूध के साथ सेवन करने से शरीर में लाल रक्तकणों की वृद्धि होती है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है, शरीर में शक्ति आती है व कांति बढ़ती है। सर्दियों में इसका लाभ अवश्य उठायें।

विधिः 480 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण को 6 लीटर गाये के दूध में, दूध गाढ़ा होने तक पकायें। दालचीनी (तज), तेजपत्ता, नागकेशर और इलायची का चूर्ण प्रत्येक 15-15 ग्राम मात्रा में लें। जायफल, केसर, वंशलोचन, मोचरस, जटामांसी, चंदन, खैरसार (कत्था), जावित्री (जावंत्री), पीपरामूल, लौंग, कंकोल (कबाब चीनी), शुद्ध भिलावे की मिंगी, अखरोट की गिरी, सिंघाड़ा, गोखरू का महीन चूर्ण प्रत्येक 7.5-7.5 ग्राम की मात्रा में लें। रस सिंदूर, अभ्रकभस्म, नागभस्म, बंगभस्म, लौहभस्म प्रत्येक 7.5-7.5 ग्राम की मात्रा में लें। उपर्युक्त सभी चूर्ण व भस्म मिलाकर अश्वगंधा से सिद्ध किये दूध में मिला दें। 3 किलो मिश्री अथवा चीनी की चाशनी बना लें। जब चाशनी बनकर तैयार हो जाय तब उसमें से 1-2 बूँद निकालकर उँगली से देखें, लच्छेदार तार छूटने लगें तब इस चाशनी में उपर्युक्त मिश्रण मिला दें। कलछी से खूब घोंटे, जिससे सब अच्छी तरह से मिल जाये। इस समय पाक के नीचे तेज अग्नि न हो। सब औषधियाँ अच्छी तरह से मिल जाने के बाद पाक को चूल्हे से उतार लें।

परीक्षणः पूर्वोक्त प्रकार से औषधियाँ डालकर जब पाक तैयार हो जाता है, तब वह कलछी से उठाने पर तार-सा बँधकर उठता है। थोड़ा ठंडा करके 1-2 बूँद पानी में डालने से उसमें डूबकर एक जगह बैठ जाता है, फैलता नहीं। ठंडा होने पर उँगली से दबाने पर उसमें उँगलियों की रेखाओं के निशान बन जाते हैं।

पाक को थाली में रखकर ठंडा करें। ठंडा होने पर चीनी मिट्टी या काँच के बर्तन में भरकर रखें, प्लास्टिक में नहीं। 10 से 15 ग्राम पाक सुबह शहद या गाय के दूध के साथ लें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 215

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संत के अपमान का फल


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

सेमिका महर्षि का आज्ञाकारी शिष्य था गौरमुख। मन में सुख आये तो उसको देखे, दुःख आये तो देखे, बीमारी आये तो देखे, तंदुरुस्ती आये तो देखे, – इन सबको जाननेवाला जो परमात्म है वही मेरा आत्मा है और वह सर्वव्यापक है। सदगुरू से ऐसी ऊँची साधना सीखकर गौरमुख एक जंगल में आश्रम बनाकर रहता था।

गौरमुख के शिष्य वेदपाठ करते समय कभी गलती से कोई स्वर गलत उच्चारित कर देते तो चैतन्य परमात्मा पक्षियों के मुख से वेदोच्चारण की गलती ठीक करवा देते, सुधरवा देते थे। उनकी गुरुभक्ति का प्रभाव ऐसा था।

एक दिन क्या हुआ, उस देश का राजा दुर्जय विचरण करता हुआ वहाँ आया। गौरमुख ने देखा कि राजा ने अपने पूरे सैन्यसहित मेरे आश्रम में प्रवेश किया है।

गौरमुख ने कहाः “राजन ! आपका स्वागत है, आपकी सेना और सेनापतियों का भी स्वागत है।” राजा दुर्जय सेनापति सहित महर्षि के विशाल आश्रम में प्रविष्ट हुआ।

अपनी सेना, अंगरक्षकों और दर्जनों बंदूकधारियों को लेकर किसी संत के पास जाना, संत की कुटिया की तरफ घुसना, यह नीच बुद्धि का परिचायक है।

हकीकत में गौरमुख को कहना चाहिए था कि ‘राजन ! आप आये तो अच्छी बात है लेकिन सेना की इस आश्रम में जरूरत नहीं है। सेना आश्रम के बाहर होनी चाहिए थी। खैर आ गयी है तो ठीक है। आप इन्हें आज्ञा कर दीजिये कि बाहर विश्राम करें।’ स्वागत है बोल दिया तो उनके खाने पीने की, रहने की व्यवस्था का जिम्मा सिर पर आ गया। गौरमुख ने सोचा कि “मैंने स्वागत किया है तो अब इनके खाने पीने, रहने की व्यवस्था भी तो मुझे करनी पड़ेगी।”

उसने भगवान विष्णु का चिंतन किया और प्रार्थना की ‘हे प्रभु ! अब क्या करूँ ? दुर्जय राजा सेना सहित आये हैं, उनका स्वागत करना है।’ अपने लिए कुछ न माँगने वाले, निर्दोष गौरमुख की प्रार्थना पर सोऽहं स्वभाव अंतर्यामी परमेश्वर ने उसके आगे प्रकट होकर उसे चिंतन करने मात्र से कार्यसिद्धि प्रदान करने वाली चिंतामणि दी और कहा कि “तुम इसके आगे जो भी चिंतन करोगे, चाहोगे उसकी सब व्यवस्था चिंतामणि कर देगी।

गौरमुख ने चिंतामणि के सामने बैठकर कहाः “हे नारायण की दी हुई प्रसादी ! मेरे आश्रम में इन सेनापतियों के रहने योग्य जगह बन जाय और सेना के योग्य भोजन बन जाय। घोड़ों के लिए दाना, हाथियों के लिए चारा और राजा के लिए उनके अनुरूप निवास व भोजन बन जाये।”

गौरमुख चिंतामणि के आगे चिंतन करते गये और खूब सारी व्यवस्था हो गयी। यह देखकर दुर्जय राजा दंग रह गया। इतनी आवभगत करने वाले मुनि को मस्का मारते हुए राजा ने कहाः “मुनि ! आपने हमें स्वागत-सत्कार से खूब प्रसन्न किया है। आप भी कभी हमारे अतिथि बनिये।”

अब मेहमान बनाकर वह अपना अहंकार दिखाना चाहता था। इन्होंने तो अतिथि समझकर उसका स्वागत किया लेकिन उस अहंकारी राजा की नीयत खराब हो गयी। अगले दिन जब राजा सेना सहित वहाँ से जाने लगा तो मणि की बनायी हुई सभी चीजें गायब हो गयीं। यह सब सम्भव है। ऐसे संतों के बारे में मैंने सुना है। समर्थ रामदासजी और तुकारामजी भी सब प्रकट कर देते थे। भारद्वाज ऋषि ने भी भरत के स्वागत में उनके साथ आयी हुई सारी जनता का यथायोग्य स्वागत करने वाली सामग्री प्रकट कर दी थी। अभी भी ऐसे सिद्धपुरुष हैं, जो अपने शिष्यों के साथ विचरण करते हैं और जहाँ मौज आ गयी वहाँ शिष्यों को कहते हैं, ‘यहाँ लगा लो तम्बू।’ सारी व्यवस्था हो जाती है, सारी चीजें आ जाती हैं और जितने दिन रहना है रहे, फिर गुरु जी बोलते हैं, ‘चलो !’ जब वहाँ से चलते हैं तो सारी सामग्री पंचभूतों में विलय हो जाती हैं। ऐसे महापुरुष से मेरी मुलाकात हुई थी, जिनके लिए स्वयं नर्मदाजी भोजन लेकर आती थीं।

राजा उस मणि की शक्ति को देख आश्चर्यचकित रह गया। दुर्जय की दुर्मति ने मंत्री को आज्ञा दीः “जाओ ! गौरमुख को बोलो कि चिंतामणि हमें दे दे। वह चिंतामणि बड़ी प्रभावशाली है। उस साधु को क्या जरूरत है उसकी !”

हरामी लोग साधु को तो कंगला देखने चाहते हैं और सब चीजें अपने अधीन करना चाहते हैं। भगवान के भक्त और प्यारों को पराधीन रखना चाहते हैं और वे अहंकारी, घमंडी आतंकवादियों से डरते रहते हैं। गौरमुख ने मंत्री को संदेश देकर वापस भेज दिया कि ‘भगवान के द्वारा दिया गया ऐसा उपहार स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं होता। उसका उपयोग केवल समाजहित के लिए ही होना चाहिए।’

संदेश सुनकर राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने गौरमुख के आश्रम में अपनी सेना भेजकर मणि को बलपूर्वक लाने की आज्ञा दी।

गौरमुख ने देखा कि राजा आतंकी हो रहा है, पोषक शोषक हो रहा है तो उन्होंने भगवान से प्रार्थना कीः ‘हे नारायण ! रक्षमाम्… रक्षमाम्… ! प्रभु जी ! यह क्या हो रहा है ? यह सैन्य अंदर घुस रहा है !… प्रभु ! अपने सैन्य से ठीक करा दो।’

उन्होंने चिंतामणि के आगे अस्त्र-शस्त्रों मे सुसज्जित एक विशाल सेना का चिंतन किया और वह प्रकट हुई, जिससे निमेष भर में दुर्जय का सैन्य धूल चाटता हुआ चला गया। जब दुर्जय और उसके खास मंत्री सैनिकों के साथ गौरमुख के आश्रम पर पहुँचे तब गौरमुख ने भगवान नारायण का पुनः स्मरण किया। ईश्वरीय सत्ता ने मात्र एक निमेष (एक बार पलक झपकने में जितना समय व्यतीत होता है) में सुदर्शन चक्र द्वारा सेनासहित दुर्जय को नष्ट कर डाला।

भगवान बोलेः “महर्षि ! इन वन में सारे दुष्ट एक निमेष में ही नष्ट हो गये हैं इसलिए लोग इसे नैमिषारण्य क्षेत्र के नाम से जानेंगे। इस पुण्यभूमि में ऋषियों, मुनियों का समुचित निवास होगा और सत्संग, ज्ञानचर्चा व ध्यान उपासना होगी।”

तब से उस जगह का नाम नैमिषारण्य पड़ा। यह वही जगह है जहाँ सूत जी ने शौनकादि महामुनियों को श्रीमद भागवत सुनाया।

नैमिषारण्य आज भी हमें संदेश देता है कि जो अपनी शक्ति का अहंकार व योग्यता का दुरूपयोग करके महापुरुषों का अपमान करता है, उसका दैत्यों, मानवों और देवताओं पर भी विजय प्राप्त करने वाले महाप्रतापी राजा दुर्जय की तरह निश्चित ही सर्वनाश होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 16,17, अंक 215

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