संसार से वैराग्य होना कठिन है। वैराग्य हो भी जाए तो कर्मकांड से मन उठना कठिन है। कर्मकांड से उठ भी गए तो ध्यान में लगना मन का कठिन है। ध्यान में लग गए तो तत्वज्ञानी गुरु मिलना कठिन है। तत्वज्ञानी गुरु मिल भी गए तो उनमें श्रद्धा होना कठिन है। श्रद्धा हो भी गई तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन है।
तामसी श्रद्धा होती है तो कदम-कदम पर फरियाद करती है। तामसी श्रद्धा में समर्पण नही होता है, भ्रांति होती है समर्पण की। तामसी श्रद्धा विरोध करती है। राजसी श्रद्धा हिलती रहती है और भाग जाती है, किनारे लग जाती है। और सात्विक श्रद्धा होती है तो चाहे गुरु की तरफ से कैसी भी कसौटी हो, किसी भी प्रकार की परीक्षा हो, तो सात्विक श्रद्धावाला धन्यवाद से अहोभाव से भर कर स्वीकृति दे देगा। संसार से वैराग्य होना कठिन, वैराग्य हो गया तो कर्मकांड छूटना कठिन, कर्मकांड छूट गया तो उपासना में मन लगना भी कठिन, उपासना में मन लग गया तो तत्वज्ञानी ब्रह्मज्ञानी गुरुओं का मिलना कठिन, तत्वज्ञानी गुरुओं का मिलना भी हो गया तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन, क्योंकि प्रायः राजसी और तामसी श्रद्धा वाले लोग बहुत होते है। तामसी श्रद्धा कदम-कदम पर इन्कार करेगी, विरोध करेगी, अपना अहम् नही छोड़ेगी और श्रद्धेय के साथ, इष्ट के साथ, गुरु के साथ विरोध करेगी, तामसी श्रद्धा होगी तो। राजसी श्रद्धा होगी तो जरा-सा परीक्षा हुई या थोडा-सा घबराया तो राजसी श्रद्धा वाला किनारे हो जाएगा, भाग जाएगा। और सात्विक श्रद्धा होगी तो श्रद्धेय की तरफ से हमारे उत्थान के लिए चाहे कैसी भी कसौटी हो, चाहे कैसे भी साधन भजन की पद्धतियाँ हो, प्रयोग हो, व्यवहार हो, अगर सात्विक श्रद्धा है तो वह तत्ववेत्ता गुरुओं की तरफ से मिलनेवाली तमाम साधना पद्धति अथवा विचार व्यवहार जो भी, वो अहोभाव से वाह वाह धन्यवाद। उसे फ़रियाद नही होगी, उसे प्रतिक्रिया नही होगी। सात्विक श्रद्धा हो गया तो फिर तत्वविचार में मन लग जाता है, नही तो तत्वज्ञानी गुरु मिलने के बाद भी तत्वज्ञान में मन लगना कठिन है। आत्मसाक्षात्कारी गुरु मिल जाए और उसमें श्रद्धा हो जाए तो ये जरूरी नही कि सब लोग आत्मज्ञान की तरफ चल पड़े नही। राजसी श्रद्धा, तामसी श्रद्धावाला आत्मज्ञान की तरफ नही चल सकता। वो तत्वज्ञानी गुरुओं का सानिध्य पाकर अपनी इच्छा के अनुसार फायदा लेना चाहेगा, लेकिन जो वास्तविक फायदा है, जो तत्वज्ञानी गुरु देना चाहते है उससे वो वंचित रह जाएगा। सात्विक श्रद्धावाला होता है उसको ही तत्वज्ञान का अधिकारी माना गया है और वो ही तत्वज्ञान पर्यंत गुरु में अडिग श्रद्धा, जैसे संदीपक की थी, भगवान विष्णु आए वरदान देने के लिए नहीं लिया, भगवान शिव आए वरदान नही लिया। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण कर लिया, बुरी तरह परीक्षाएँ की। पीट देते थे, मार देते थे चाँटा, फिर भी वो गुरु के शरीर से निकलनेवाला गंदा खून, कोढ़ की बीमारी से आनेवाली बदबू, (मवाद) फिर भी संदीपक का चित्त कभी सूघ नही करता था, ऊबता नही था। ऐसे ही विवेकानंद की सात्विक श्रद्धा थी, तो रामकृष्ण देव में अहोभाव बना रहा और जब राजसी श्रद्धा हो जाती तो कभी हिल जाती ऐसे छ: बार नरेंद्र की श्रद्धा हिली थी। तो आत्मज्ञानी गुरु मिल जाना कठिन है, आत्मज्ञानी गुरु मिल जाए तो उसमें श्रद्धा टिकना सतत कठिन है, क्योंकि श्रद्धा रजस और तमस गुण से प्रभावित हो जाती है तो हिलती जाती है या विरोध कर लेती है। इसीलिए जीवन में सत्वगुण बढ़ना चाहिए। आहार की शुद्धि से, चिंतन की शुद्धि से सत्वगुण की रक्षा की जाती है। अशुद्ध आहार, अशुद्ध विचारोंवाले व्यक्तियों का संग छोडो और जीवन की तरफ लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना, बढना, टूटना, फूटना होता रहता है। इसीलिए साधक साध्य तक पहुँचने में उसे वर्षों गुजर जाते है। कभी-कभी तो पूरा जन्म गुजर जाता है फिर भी साक्षात्कार नही कर पाते है। हकीकत में छ: महीना अगर ठीक से साधना की जाए खाली छ: महीना, फक्त छ: महीना ठीक से साधना की जाए तो संसार की वस्तुएँ और संसार आकर्षित होने लगता है, सूक्ष्म जगत की कुंजियाँ हाथ में आने लगती है। छ: महीना अगर सात्विक श्रद्धा से, ठीक साधन किया जाए तो बहुत आदमी ऊँचा उठ जाता है। रजोगुण, तमोगुण से बचकर जब सत्वगुण बढ़ता है तो तत्वज्ञानी गुरुओं के ज्ञान में आदमी प्रविष्ट होता है। तत्वज्ञान का अभ्यास करने की आवश्यकता नही रहती, अभ्यास तो भजन करने का है और अभ्यास तो श्रद्धा को सात्विक बनाने का है, भजन का अभ्यास बढने से, सत्वगुण बढ़ने से विचार अपनेआप उत्पन्न होता है । महाराज! ऐसा विचार उत्पन्न करने के लिए भी साधन-भजन में सातत्य होना चाहिए और श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क होना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, गुरु में श्रद्धा। श्रद्धा हो गई तो तत्वज्ञान में गति करना।
तत्वज्ञान तो कईयों को मिल जाता है लेकिन उस तत्वज्ञान में स्थिति नही करते और स्थिति करते है तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की खबर हम नही रख पाते है। महाराज! ऐसा विचार उत्पन्न करने के लिए भी साधन-भजन में सातत्य होना चाहिए और श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क होना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, गुरु में श्रद्धा। श्रद्धा हो गई तो तत्वज्ञान में गति करना। तत्वज्ञान तो कईयों को मिल जाता है लेकिन उस तत्वज्ञान में स्थिति नही करते और स्थिति करते है तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की खबर हम नही रख पाते है। ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न हो जाए तो साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार करने के बाद भी अगर उपासना तगड़ी नही किया और गुरूकृपा से जल्दी हो गया साक्षात्कार, तभी विक्षेप रहेगा, मनोराज आने की संभावना है। साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्म अभ्यास करने में लगे रहते है बुद्धिमान उच्च कोटि के साधक। साक्षात्कार करने के बाद भी भजन में अथवा ब्रह्म अभ्यास में, ब्रह्मानंद में लगे रहना, ये साक्षात्कारी की शोभा है। अब जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है वे भी ध्यान, भजन में और शुद्धि में ध्यान रखते है तो हम लोग अगर लापरवाही कर दे तो हमने तो अपने पुण्यों की कब्र ही खोद दी। जीवन में जितना उत्साह होगा, सतर्कता होगी और जीवनदाता का मूल्य समझेंगे, उतना ही यात्रा उच्च कोटि की होगी।
बिना अध्यास के कोई कार्य नहीं होता और ये अध्यास जब तक बना रहता है तब तक सत्य का बोध नहीं होता। सत्य का साक्षात्कार नहीं होता और सत्य का साक्षात्कार जब तक नहीं होता तब तक जीव घटीयंत्र की नाईं घूमता रहता है। ॐ ॐ ॐ ॐ
पचास साल संसार में भटके, पूछो- क्या मिला ?…
…कि इतना धन मिला, इतना पुत्र मिला, इतना ये मिला, वो मिला लेकिन ये अहं का अध्यास है।
धन बैंक में पड़ा है – चित्त में अध्यास है। मकान जमीन पर खड़ा है-अध्यास है । पुत्र पाँच भूतों में है और वहीं से आया है- अध्यास है कि मिला ? मृत्यु का झटका लग जाता है, सब मिला-मिलाया जो है, भ्रमणा टूट जाती है, फिर दूसरे जन्म में जाता है और फिर अध्यास करता है कि ये मेरी माँ है, ये मेरा बाप है, ये मेरे को मिला, ये मेरे को बिछड़ा…. यही तो होता है और क्या है ?
तो हर जन्म में ये जीव बेचारा मजूरी करते-करते मर जाता है। ये मेरी पत्नी है, ये मेरा पुत्र है, ये मेरा घर है, ये मेरा कर्तव्य है…. ये मेरा पुण्य है, ये मेरा पाप है, ये सब अध्यास पर ही आरोपित है।
तो ये अध्यास जब तक बना रहे तब तक कोई भगत बन जाए, कोई योगी बन जाए, कोई तपस्वी बन जाए, कोई त्यागी बन जाए, कोई कुछ बन जाए लेकिन ये बनना सब अध्यास में होता है। ये अध्यास जब तक नहीं मिटता तब तक इसको परमपद की प्राप्ति नहीं होती। जब तक परमपद की प्राप्ति नहीं होती तब तक जैसे चाय उबालते हैं, दाल उबालते हैं, फुरफुराते रहते हैं दाल के दाने, ऐसे ही उस चेतन की सत्ता से अंतःकरण में ‘मैं’ ‘मैं’ ‘मैं’ फुरफुराता रहता है। ‘मैं’ में अध्यास लगता जाता है… ‘मैं’ ये हूँ, ‘मैं’ वो हूँ, मेरा ये है …ॐ ॐ ॐ
भगत का कर्तव्य है कि वृत्ति को भगवताकार रखें, कृष्णाकार रखें। वृत्ति भगवताकार, कृष्णाकार, इष्टाकार रहेगी तब तो भक्त मजे में…. वृत्ति टूटेगी तो भक्त को अच्छा नहीं लगेगा। भोगी की वृत्ति भोगाकार होती है, त्यागी की वृत्ति त्यागाकार होती है, तपस्वी की वृत्ति तपस्याकार होती है ।
तो वृत्ति उठती है अंतःकरण में, तो जो जैसा है उसकी वृत्ति उस आकार होगी तो अपने को सुखी मानेगा। तो वृत्ति की आदत पड़ जाती है और आदत के अनुसार जो होता है उसको सुख मान लेता है। जैसे ऐसा खाना,ऐसा रहना, ऐसा करना – ये आदत पड़ गई है न ? ऐसा मिलता है तो अपने को सुखी मानता है और उससे विपरीत वृत्ति होती है तो अपने को दुःखी मानता है। जैसे कामी को काम के साधन मिलते है तो अपने को सुखी मानता है, तपस्या के जगह पर आता है तो अपने को परेशान मानता है। लोभी को लोभ के अनुकूल माल मिलता है तो अपने को सुखी मानता है, ठीक है न ? और कलह वाले को कलह में सफल मिलता है तो अपने को सुखी मानता है, तो ये सब अध्यास में उलझे हुए लोग है ।
भक्त को भगवताकार वृत्ति बनाने में ठीक रहता है, वो अच्छा है लेकिन सत्य का साक्षात्कार तो…. वेदांत तो उसपर भी चोट करता है… भगवताकार वृत्ति बनी, व्यवहाराकार वृत्ति बनी लेकिन ये वृत्ति है । इस वृत्ति से निवृत्त होना है । इस वृत्ति के साथ जुड़ोगे तो वृत्ति सदा एक जैसी नहीं बनती। अमुक प्रकार की वृत्ति बनी तो सुख हुआ, अमुक प्रकार की वृत्ति हुई तो फिर सुख गायब हो जाएगा। हजारों-हजारों वृत्तियाँ बदलती रहती है और जो वृत्ति के अनुसार सुखी होने में लगे हैं वो लगे ही हैं, उनके दुःख का अंत नहीं आता । वृत्ति के अनुसार जो सुखी होने में लगे हैं वो लगे ही रहेंगे, उसके दुःख का अंत नहीं आता। ये जीवन तो पूरा हो जाता है, दूसरा जीवन मिलता है तभी भी ऐसे ही करोड़ों-करोड़ों जीवन मिल जाते हैं, करोड़ों-करोड़ों शरीर मिल जाते हैं, जन्म मिल जाते हैं लेकिन वो वृत्ति के साथ लगा हुआ आदमी का अंत नहीं आता भटकने का । इसीलिए वेदांत चोट करता है वृत्ति से निवृत्त होने को। वृत्ति से निवृत्त हो गया तो वृत्ति चाहे कैसी आये … भगवताकार आये वृत्ति, शांतिकार वृति आई, कभी क्रोधाकार आ गई … हम जुड़ जाते है क्रोध से इसीलिए जलन पैदा होती है, हम जुड़ जाते हैं काम से इसीलिए ह्रास हो जाता है, हम जुड़ जाते हैं लोभाकार वृत्ति से इसीलिए दुःख होता है… तो ये अध्यास है ।
बड़ा भारी तपस्वी हो, बड़ा भारी भक्त हो, बड़ा भारी जोगी हो,बड़ा भारी उद्योगपति हो, बड़ा भारी दुनिया का प्रसिद्ध व्यक्ति हो, लेकिन उसको सुख तब होगा जब अपनी वृत्ति के अनुकूल होगा । अपनी वृत्ति के अनुकूल होगा तब सुख होगा, अपनी वृत्ति के प्रतिकूल होगा तब दुःख होगा और वृत्ति सदा एक जैसी नहीं होती और वृत्ति के अनुकूल बाहर सदा एक जैसी घटना नहीं घटेगी। अपनी वृत्ति के अनुरूप ही घटना घटे ये संभव नहीं… और अपनी वृत्ति एक जैसी बनी रहे ये संभव नहीं ।
तो फिर क्या होना चाहिए ? तो वृत्ति एक जैसी बनी रहे ये भी संभव नहीं, वृत्ति के अनुरूप ही घटना घटती रहे ये भी संभव नहीं । इसीलिए सब लोग दुःखी मिलेंगे । छोटा तो क्या बड़ा क्या । कोई स्त्री के लिए दुःखी तो कोई स्त्री से दुःखी, कोई धन के लिए दुःखी तो कोई धन से दुःखी, कोई बदली के लिए दुःखी तो कोई बदली से दुःखी…सब चिंता रूपी चिता में झुलसते रहते हैं । फिर थोड़ी वृत्ति में मिलता है.. अब दो उंगली देखना है तो दो के बीच अंतर होगा तब तो दिखेगी… ठीक है न ? ऐसे ही सुख देखना है तो सुख के बीच अंतर आता है दुःख आता है फिर सुख लगता है । अगर एक रस हो तो सुख भी नहीं लगेगा । दो उंगली के बीच अंतर होता है न तब दिखती है ।तो सुखाकार वृत्ति या दुःखाकार वृत्ति, अनुकूलता-प्रतिकूलता ये वृत्ति हैं ..और वृत्ति के साथ जबतक जुड़े रहेंगे तबतक जन्म मरण की निवृत्ति नहीं होगी।
और ये अध्यास होता है… हकीकत में हैं हम कुछ लेकिन अध्यास हो गया । अन्योन्याध्यास होता है, संसर्गाध्यास होता है.. अन्योन्याध्यास कैसे ? … कि जैसे हैं तो गोविंद लेकिन अपने को केशव मान रहा है, हैं तो मोहन अपने को सोहन मान लिया … सोहन के कपडे पहन लिए “‘मैं’ सोहन हूँ”… है मोहन, मान लिया सोहन.. ये अन्योन्याध्यास हो गया। ऐसे ही है तो वृत्तियों का अधिष्ठान, शुद्ध-बुद्ध लेकिन मान लिया अपने को अंतःकरण और शरीर की वृत्तियों के साथ ।
दूसरा होता है संसर्गाध्यास… जैसे आईने में नगर दिखा… आईना बड़ा खड़ा कर दे तो ये पूरा दिखेगा उसमें… हकीकत में आईने में वो है नहीं लेकिन भास रहा है । ऐसे ही अपने में ये वृत्तियों का और जगत का कोई गंधमात्र भी नहीं लेकिन भास रहा है अपने में… कि ये मेरा कर्तव्य है, ये मेरा प्राप्तव्य है, ये मेरे को पाना है, ये पकड़ना है, ये छोड़ना है, ये सारी मुसीबत दिख रही है… आईने में कुछ घुसा नहीं लेकिन फिर भी आईने में दिख रहा है सब । ये वृत्तियों के कारण आप में कोई गुण नहीं, कोई दोष नहीं, कोई जन्म नहीं, कोई मृत्यु नहीं, कोई सुख नहीं, कोई दुःख नहीं ..वो तो सदा शुद्ध, अचिंत्य, चिद्घनस्वरूप है अपना, उसमें आ आ के सब चला जाता है.. जैसे कार में आईना लगा होता है ना, तो कार होती है तो उसमें साईड दिखती जाती है फटाफट आ आ के चली जाती है ..कार चलाते हैं न साईड में ग्लास होता है आईना, तो जैसी कार चलती है तो आईने में आजू-बाजू की साईडे दिखती है ..नहीं समझे ? साईडें दिखती है कि नहीं दिखती ? वो आ-आकर चली जाती हैं । ऐसे ही तुम्हारे अंतःकरण रूपी आईनें में परिस्थितियों की साईडें आती हैं । अब वो ड्राइवर आईने में जो आए उसके पीछे लग जाए तो गाड़ी का क्या हाल होगा? गाड़ी चल रही है और वो ग्लास में जो दिखे उसको ही पकड़ने लग जाए तो क्या हाल होगा ड्राइवर का ? गाड़ी रमण-भमण हो जाएगी । ऐसे ही ये ड्राइवर का हाल हो गया, ये गाड़ी रमण-भमण हो जाती है और समझते हैं अपने को सब चतुर आदमी । कोई अपने को मूर्ख स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन बिना मूर्खता के कोई जन्म मरण में जा ही नहीं सकता । कोई दुःखी हो ही नहीं सकता । पहले बेवकूफी होती है तब भय होता है,पहले बेवकूफी होती है तब दुःख होता है। बेवकूफी क्या है ?… कि अध्यास की । अन्योन्याध्यास… है तो कुछ लेकिन मान लेते हैं कुछ… अपने में नहीं बैठ पाते । जो कुछ करके, कहीं जाकर, कुछ पाकर अपने को सुखी करने में लगा है वो बस लगा ही है, उसके सुख का छेड़ा नहीं आएगा। कश्मीर जाकर सुखी… थक के आ जाएँगे। अच्छा, ज्यादा सुख मिला, अच्छा है तो फिर दुबारा जाएगा । कहीं जाकर सुख मिला तो बार-बार वहाँ जाना पड़ेगा । जिस समय सुख मिला उस समय की वृत्ति और वातावरण और दुबारा जाएगा तो उस समय की वृत्ति और वातावरण ऐसा नहीं होगा। तो जैसे कश्मीर से ऊब के गया तो फिर सालभर के बाद दूसरी जगह जाएगा, तीसरी जगह जाएगा । ऐसे आयुष्य पूरा हो जाएगा लेकिन जाने की आदत नहीं मिटेगी । समझ रहे हैं ? जबतक ऐसा बना है तो ये अध्यास हो गया संसर्गाध्यास । उनके साथ जुड़ने का, वृत्ति के साथ ।
जिनको वेदांत के अमृत का अनुभव हो जाता है वे इस भाव से बच जाते हैं । बाकी तो संसार रूपी गगरी की नाई घूमते रहते हैं । वृत्तियों के अनुकूल सुखी होने में तो पशु-पक्षी जीव-जंतु से लेकर बड़े-बड़े बुद्धिमान दिखनेवाले भोगी जुड़े है।
सड़क पर बंगला है, कभी बरात जाएगी, कभी शमशान यात्रा भी जाएगी, कभी ऑटो जाएगी तो कभी कार जाएगी, कभी घोड़ागाड़ी जाएगी तो कभी साईकल वाले जाएँगे । अब सड़क पर बंगला जो है ..अपने घर में न बैठकर बारात आए तो बारातियों के साथ हो गए, शमशान यात्रा वाले आए तो उसके साथ हो गए, साइकिल वाले आये तो साईकल वालों के साथ हो गए, घुडसवार आए तो उसके साथ, सड़क से जो गुजरे उसके साथ जुड़ता गया तो अपने घर में कब बैठेगा ? फिर उसका घर होते हुए भी उसका नहीं है । उसको तो फुर्सत ही नहीं मिलेगी । फुर्सत नहीं मिलेगी उसको तो, धीरे धीरे भूल ही जाएगा कि ये मेरा घर है । जब सड़क से गुजरने वाले ट्रैफिक के साथ ही होता रहेगा तो थोड़े ही दिन में भूल जाएगा कि यहाँ मेरा घर भी था । वो तो ट्रैफिक हो जाएगा । ऐसे ही अपन लोग ट्रैफिक हो गए । इसीलिए जन्मते-मरते रहते हैं, घूमते रहते हैं । अपने घर में नहीं बैठते, अपने स्वरूप में नहीं बैठते।
तो, बोले- ज्ञानी को दुःख होता है?… ज्ञानी बोलता है-दुःख आता है तो आओ, सुख आता है तो आओ, अपमान आता है तो आओ,मान आता है तो आओ.. नर्तकी कैसा भी नृत्य करती है, दर्शक देख कर मजा ले… ऐसे ही चित्त की वृत्तियों में चाहे कुछ हो, चाहे कुछ आए, उसके साथ अपना सबंध न जोड़ें तो वृत्तियों को सत्ता नहीं मिलेगी तो वो आपको दबाएगी नहीं ।
लाईन कितनी भी बढ़िया केबल हो लेकिन बीच में से फ्यूज निकाल दो तो आपको तकलीफ करेगी क्या ? तो पावरहाउस से कनेक्ट जो लाईन है वही तो शॉक लगा सकता है । ऐसे ही अपनी ‘मैं’ को वृत्तियों से मिलाते है तभी दुःख होता है, तभी वासना प्रबल हो जाती है। और वासना अंतःकरण में होती है और जुड़ जाता है ‘मैं’-में। वासना-अवासना, अनुकूलता- प्रतिकूलता ये सारा का सारा खेल अंतःकरण में होता है। तो जो वासना के बहाव में बहते हैं उनकी अपेक्षा जो धरम के अनुकूल रहते है उनकी वासना नियंत्रित रहती है। लेकिन वो भी धार्मिक आदमी भी पूर्ण संतुष्ट नहीं मिलेंगे, पूर्ण स्वतंत्र नहीं मिलेंगे, पूर्ण संतुष्ट नहीं मिलेंगे। तो धरम से वृत्तियाँ नियंत्रित होती है, अच्छा करना और बुरे से बचने के लिए धरम है ।
उपासना से वृत्ति रसमय होती है और योग से वृत्ति एकाग्र होती है, विक्षेप बंद हो जाता है लेकिन फिर भी वृत्तियों के साथ का सबंध बना रहता है। इसीलिए कई ऐसे योगी रोते मिलेंगे कि पहले समाधि लगती थी अब नहीं लगती, पहले भक्ति बहुत होती थी अब नहीं होती। पहले धन बहुत था, भोग बहुत था अब नहीं है अथवा पहले कुछ नहीं था अभी इतना सारा है। तो सब ऐसे ही झुलसते रहते है।
पहले नहीं था अभी है तो अहंकार में आए और पहले था अब नहीं है तो विषाद में आए। ठीक है ? पहले समाधि नहीं थी अब है तो अहं आ गया, पहले समाधि थी और अब नहीं है तो फिर विषाद हो गया लेकिन जो समाधि के पहले था, समाधि के बाद भी है, समाधि के वक्त भी है वो ज्यों का त्यों है। उसको ‘मैं’ रूप में जान लेना ये वेदांत का लक्ष्य है ।
पहेला तो के शंकर भई गया, भजन गाये तो आखी-आखी रात राग…. ऐवा भजन गाए राग रसीला के आ हा हा हाँ…. पण अत्यारे ऐ पेटी ने एटलो घसारो पड्यो के बोली सका नहीं, बोलवु होय तो जरा परिश्रम पडै…. लेकिन जब गाते थे तब भी जो था और पेटी कमजोर हो गई तब भी जो है उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा । जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ा वो ‘मैं’ हूँ । और जिसमें फर्क पड़ा वो ‘मैं’ नहीं । जिसमें फर्क पड़ा वो ‘मैं’ नहीं ..वृत्ति में फर्क पड़ा, शरीर में फर्क पड़ा, सबंधों में फर्क पड़ा, मान्यताओं में फर्क पड़ा, लेकिन सब से परे जो है जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता वो चैतन्यघन आत्मा है। उस आत्मा को ‘मैं’ मानना समझो पूरे खजाने को प्राप्त करना है। और उस आत्मा को ‘मैं’ न मानकर ..शरीर को ‘मैं’ मानना, जाति-पांति को ‘मैं’ मानना समझो कि बस चिता में अपने को फेंकना है । चिता तो मुर्दे को जलाती है, चिंता जीते को जलाती है । और चिंता होती है वृत्तियों के कारण । गहरी नींद में चले गए, वृत्ति दब गई तो कोई चिंता नहीं, समाधि में वृत्ति निरुद्ध हो गई तो कोई चिंता नहीं, भजन में भगवताकार वृत्ति हो गई तो कोई चिंता नहीं लेकिन वो वृत्ति समाधि से, मूर्छा से, भगवदभाव से वृत्ति उतर के आती है… लेकिन अपना स्वरूप उतरके और चढ़के नहीं आता । जो उतरता चढ़ता नहीं है उसमें बैठने का अभ्यास करो एकांत में। एकांत में वो उतरने चढ़ने से परे है उसका अभ्यास हो गया फिर व्यवहार में भी चलता रहेगा । वृत्तियों को देखो, विचारों को देखो ..देखोगे तो सबंध विच्छेद हो जाएगा । इतना योग से,तप से, यज्ञ से, होम से, दान से उतना शीघ्र फायदा नहीं होता जितना इनसे सबंध विच्छेद करने से ।
यज्ञो दानं तपश्चर्या पावनानि मनीषिणाम्।
यज्ञ, दान, तप करनेसे बुद्धि पवित्र होती है, लाभ तो होता है लेकिन ये तत्वज्ञान ..तत्वज्ञान तो महाराज बुद्धि पवित्र होती है तो भी होता है और गुरु का उपदेश सुनकर इनके साथ के सबंध को कट-आउट कर दे तो भी लाभ हो जाता है । फिर आसक्ति नहीं रहेगी,जब कट-आउट हो गया तो फिर किसी की आसक्ति नहीं रहेगी। न धन की आसक्ति रहेगी, न भोग की आसक्ति रहेगी न जोग की रहेगी न त्याग की रहेगी..एकदम स्वतंत्र, परम् स्वतंत्र ।
फिर ये आत्मा ब्रम्हरूप है इस बात को जान लें । ये कैसे ? कि जो देश के परिच्छेद से रहित, काल के परिच्छेद से रहित, और वस्तु के परिच्छेद से रहित है… देश से, काल से और वस्तु के परिच्छेद से जो रहित है उसको ब्रम्ह बोलते है, आत्मा बोलते है, परमात्मा बोलते है…. देश के काल के और वस्तु के परिच्छेद से रहित है…. देश कितना भी हो लेकिन उसकी भी सीमा रहेगी परिच्छेद रहेगा । इतना-इतना, इतना-इतना लेकिन आखिर में पॉइंट आ जाएगी । काल… साल, दो साल, दस साल, सौ साल, हजार साल, लाख साल…. अरे करोड़ साल ..उसके पहले और उसके बाद सीमा हो गई कि… वस्तु… बड़ा-बड़ा, बड़ा-बड़ा, इतना बड़ा कि इतना बड़ा, इतना बड़ा लेकिन फिर भी बाउंडरी । जहाँ कोई बाउंडरी नहीं देश की, काल की, वस्तु की उस वस्तु का नाम ब्रह्म है । तो हकीकत में ये आत्मा ब्रह्म है, तुम ब्रह्म हो.. वृत्तियों से तुम्हारा कोई सबंध नहीं है। शरीर के मरने से तुम नहीं मरते । वृत्तियों के मरने से तुम नहीं मरते । वृत्तियों के मरने से अगर तुम मरते तो वृत्तियाँ कई मर गई । मर गई ना ?
दुःखाकार आई वृत्ति, सुखाकार आई, चिंताकार वृत्ति आई मर गई । चली गई । तुम तो नहीं मरे । ऐसे ही वृत्तियाँ जिस अंतःकरण में आई ऐसे अंतःकरण भी, ऐसे शरीर भी बदलते गए, अंतःकरण के भाव भी बदलते गए लेकिन तुम नहीं बदले । ठीक है कि ? तो जो नहीं बदलता है उसमें आ जाओ । नहीं तो राम, राम, राम, राम रटने से सत्वगुण बढ़ता है, सत्वगुण बढ़ता है तो हृदय का संकल्प सफल होता है । हृदय का संकल्प सफल हुआ…. महाराज । सिद्ध हो गए.. लोगों ने पूजा…. लेकिन जो संकल्प सफल होता है वो कभी कभी संकल्प असफल भी होता है । संकल्प सफल होने की भी सीमा होती है…. हुआ है न.. करने से हुआ है न । करने से हुआ है करना बंद कर दो तो होना बंद हो जाएगा । करना बंद कर दो तो होना बंद हो जाएगा । अभी धंधा किया, कमाया है तो कमाने के बल से, धन के बल से खर्चा कर सकते है । आवक बंद हो जाए और खर्च चालू रखो तो कितना टिकेगा ? ऐसे ही भजन के बल से, जप के बल से, योग के बल से, ये कर दिया भभूत अभिमंत्रित करके मुर्दे जिंदे कर दिए ..लेकिन जो देश से, काल से, वस्तु के परिच्छेद से रहित है उस तत्व का बोध नहीं हुआ तो इस अनंत काल की धारा में सौ-दो सौ मिट्टी के पुतले, हजार, दस लाख मिट्टी के पुतले जिंदे हो गए तो क्या ? ऐसे ही सब मिट्टी के पुतले करोड़ों जिंदे हो गए । मिट्टी में से ही तो बने हैं सब । अभी भी तो मिट्टी के पुतले साढ़े तीन सौ करोड़ है पृथ्वी पर।
तो अपने स्वरूप को देश से, काल से, वस्तु के परिच्छेद से रहित ऐसा जान लिया तो मुर्दे को जिंदा करने का सामर्थ्य योग में है अच्छा है ..भक्ति की भावना से सूखे पेड़ हरे हो जाते है- ये अच्छी भावना है, अच्छा है, सुंदर है.. लेकिन भक्त को, योगी को अथवा साधक को देशातीत, कालातीत, गुणातीत अवस्था में जाना चाहिए । इसीलिए अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कहा- त्रयगुणा विषया वेदा… जो वेद है बहुत पवित्र है, वेद में जो ज्ञान है अद्भुत ज्ञान है । सारे विश्व में ऊँचे से ऊँचा ज्ञान वेद का वेदांत का…. जहाँ सारे ज्ञानों का समापन हो जाता है और सारे ज्ञान जहाँ से निकलते है और फिर भी एक…. उस तत्व का बोध कराना वेदांत है । तो ये वेद भी माया में है, तीन गुणों में है – त्रयगुणा विषया वेदा । निस्त्रयगुणा भवार्जूनः । ।
वेद का ज्ञान भी गुणों में आयेंगे, सत्वगुण में आयेंगे, रजोगुण में आयेंगे, तब सीखेंगे, करेंगे, संभालेंगे, रखेंगे.. लेकिन ये गुण भी अंतःकरण में आते है.. अंतःकरण से परे । ऐसे देखा जाए तो बहुत कठिन है और वैसे देखा जाए तो बहुत सरल । जहाँ से खोज होती है शुरू वहीं वो है । जहाँ से तुम चलते हो वहाँ मंजिल है । बहुत सरल है । और चलते चलते दूर निकल जाते हो तो बड़ा कठिन लगता है और फिर मुड़ के देखते हो तो दूर जाने पर भी वहीं मिलता है क्योंकि उसकी तो कोई सीमा नहीं … देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित है । जहाँ मुड़त वहीं ठिकाना मिलता है। इसीलिए करोड़ों जन्म से वृत्तियों के आधीन चलते आए हैं, बहिर्मुख होते आए हैं । लेकिन जब वृत्ति से निवृत्त होने की टेकनीक मिल जाती है तो लगता है कि यहीं है ।
कीड़ी अपने दर से निकली और चलती ही रही ..अब उसको जमीन देखना हो तो कहाँ मिलेगी ? तरंग सागर से उठी और भागती ही रही,खूब भागी…. 150 माईल की स्पीड से तूफान चला और तरंग भागी बड़ी-बड़ी ..भागी तो बहुत लेकिन उसको पानी से मिलना है तो ? जहाँ से उठी थी उसी पर दौड़ रही है और अभी वही रूप है । ऐसे ही अपनी वृत्ति करोड़ों वर्षों से संसार सागर में भटक रही है, दुःख भोग रहे हैं । ये हो जाए, वो हो जाए, वो हो जाए, समझ रहे हैं सब ? ये दिमाग में बिठाने की बात है । कौन क्या कर रहे है, क्या देख रहे है उसको मत देखो…. क्या हमको करना है वो देखो । तो ये वृत्ति हजारों, लाखों, करोड़ों वर्ष से…. कईं जन्म में…. कीड़ा बन गए तो भी दौड़ा, मकौड़ा बन गया तो भी सुख के लिए दौड़ा, घोडा बन गया तो भी सुख के लिए दौड़ा…फिर भले चाबूक खाए । मक्खी बन गया तो भी क्या कर रहे है ? वृत्ति के कारण ही दौड़ रहे है क्या ? तो दौड़ तो करोड़ों जन्म से चालू है ..लेकिन उस देश से, काल से, वस्तु के परिच्छेद से जो रहित है, जिसकी देश करके, काल करके, वस्तु करके कोई सीमा नहीं ..वो जो अपना आपा है वो तो जब देखो वही का वही । तरंग कितना ही दौड़े ..
फूँक मारके इच्छा शक्ति से पहुँच जाओ कहीं लोक लोकांतर में..दुःख का अंत नहीं आएगा, मुसीबतों का अंत नहीं आएगा। ऐसे भी लोग हैं..संकल्प करें ..विमान में बैठे, जहाँ चाहे वहाँ पहुँच गए । गन्धर्व लोक ये वो सब ऐसे ही हैं । फिर भी वो भी दुःखी हैं बेचारे ।
तमारे तो एक एक मंडप करवु छे तो आटली बधु करवु पडै, ए लोको तो संकल्प करे तो बधु उबु थई जाय…. कई सिद्धपुर थी लावु ना पडै, न आम नहीं तेम नहीं न वधु एजस्ट करवानु बिजु काई करवु न पडे अने सोना नु विमानए ना तो पेट्रोल पुरावु पडे, बराबर ट्राफिक नु ख्याल राखीने ड्रायवर ने गाडी चलावी पडै त्यारे अइं थी त्यां ने त्यां…. ऐ लोको तो संकल्प… बैठे विमान मां थी भूमिमंडल में, गंधर्वमंडल में…. जैसे स्वप्ने में आप पहुँच जाते हैं ऐसा सुविधा उनके पास । फिर भी वो वृत्ति के साथ जुड़कर भोग रहे है न । इसीलिए उनका पतन होता रहता है ।
जैसे अरट के डिब्बे होते हैं ऊपर नीचे चढ़ते रहते हैं..ऐसे ही लोग पुण्य करके गंधर्व लोक में, स्वर्ग लोक में जाते हैं, भोग भोगते हैं फिर पुण्य खत्म होता है फिर गिरते हैं, माता के गर्भ में आते हैं, लटकते हैं औंधे, पिता की शिश्ना से पसार होते हैं, माता के एम-सी का ब्लॅड पीकर शरीर बनाते हैं फिर दूध पीते हैं, थपेड़े खाते हैं, फिर पढ़ने जाते हैं, फिर नपास पास होते हैं, फिर पास होते हैं, फिर परीक्षा में होते हैं, फिर धंधा करते है, धंधा सीखते है, फिर धंधा की चिंता रखते हैं, फिर पत्नी की चिंता, बच्चों की चिंता, पत्नी का स्वभाव, बच्चों का स्वभाव, सबकी वृत्तियाँ अलग-अलग होती है… ऐसा करते करते, झुलसते झुलसते, सिकाते सिकाते, हा… हा… श…. चार छोकरा छे, त्रण छोकरियो छे, त्रण जमाईयो छे…. हा्…श…. थोड़ा हा…श…. करा अंदर में..हाय रे ..इधर तो हा…श…. करा, बाहर से अहं को संतोष हुआ..फिर शरीर की पीड़ा, हाय रे । वो झुलसा… अंत में सब जो बनाया सारी जिंदगी मजूरी किया, मृत्यु का एक झटका लगा सब छोड़के चला गया। और फिर गया भटका । यही तो कर रहे हैं और क्या कर रहे हैं ?
नवुं बीजू शूँ कर्यु…. मेहसाणा छोडिने सुरत मां सेट थ्यां अने सुरत छोडि ने अमेरिका मां सेट थया…. बधे अपसेटज छे न…. बोलो पाँच रूपया मां थी निकली ने पाँच करोड मां सेट थयां ने पाँच करोड मां थी पाँच सौ करोड मां सेट थया…. पछी शूँ …. मूल ज्ञान नथी…. साचु ज्ञान नथी…. पूछो देवचंद ने…. वास्तविक में ज्ञान नहीं है, ये जो वृत्तियों में भर दी सूचनायें, उसको ज्ञान समझ बैठे । एम.ए. पढ़ा हूँ, बी. ए. पढ़ा हूँ, पी. एच. डी. पढ़ा हूँ.. लेकिन अपना ज्ञान है ? बोले, “हाँ… ‘मैं’ फलाना भाई हूँ”…खाक है तेरा अपना ज्ञान । अपना ज्ञान होता तो जीवन-भर ये कर-कराके मृत्यु के झटके में सब खो नहीं देता । अपना ज्ञान है तो, एक शरीर तो क्या, अनंत-अनंत शरीर पैदा हो-होकर लीन हो जाते हैं । अनंत ब्रह्मांड पैदा हो-होकर लीन हो जाते है, फिर भी अपने आप में कोई फर्क नहीं पड़ता ऐसा अपना आपा है । अपना ज्ञान हो जाए तो ब्रम्हा,विष्णु, महेश का पद भी तुमको छोटा लगेगा । अपना ज्ञान हो जाए तो चन्द्रमा भी अग्नि जैसा लगेगा ..अभी तो शीतल लगता है लेकिन अपने आप की जो शीतलता है उसके आगे चंद्रमा की शीतलता भी अंगारों जैसी । उसकी शीतलता के लिए तो आँख खोलनी पड़ती है न… अपनी शीतलता के लिए आँख भी खोलने की जरूरत नहीं पड़ती… चंद्रमा को शीतलता भी अपने चैतन्य वपु से मिलती है । वो अपना स्वरूप का ज्ञान है।
बहु हाई लेवल नु छे…. मगज ना ककडा थई जायगा…. मगज ना ककडा तो करोडो वगत थाय छे….
हर जन्म में होते हैं मगज के टुकड़े..तो अभी ज्ञान से टुकड़े हो जाए तो बस हो गया, फिर टुकड़े होना ही बंद हो जाएगा। ऐसा चीज पा लेना चाहिए कि फिर कुछ न पाना पड़े। ऐसा जान लेना चाहिए कि फिर कुछ जानने की जरूरत नहीं, जिसको पाकर फिर उससे बड़ा कोई लाभ नहीं । जिसमे स्थिर होने के बाद बड़े भारी दुःख से भी वो चलित नहीं होता, फिर हवाएँ उसके अनुरूप हो जाती है । देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्नर सब उसीके गीत गाते है । सब सुख के लिए भटक रहे हैं.. वो स्वयं सुखस्वरूप होता है । उसकी एक निगाह मात्र से फिजा में खुशियाँ छा जाती है इतना वो महान हो जाता है । ऐसा नहीं है कि उसके शब्दों से ही लोगों को सुख मिलता है.. शब्दों के पीछे उसकी अपनी स्व-अनुभूति की किरणें होती है न । निगाहों के पीछे उसकी अपनी रौनक होती है न ।
भांग का ग्लास भर के कान पर लगाया एक मवाली ने..
पूछता है कि अरे भांग तुझमें इतना नशा कहाँ से आया ?
भांग बोलती है कि मवाली, मुझमें नशा होता तो ग्लास भी नाचता और छानने वाला कपड़ा भी नशे में चूर हो जाता, और जिससे घोटा वो डंडा भी नाचने लगता। मुझमें नशा नहीं, नशा तो तेरा है, तू ही मेरे को नशा दे रहा है ।
एक आदमी काण्यो पईसो लई ने गयो, पीठावाला पासै । पीठावाला माना दारू जो बेचते थे न उसको पीठावाला बोलते थे। समझ गये ?दारू नौ पीठो होय न…. एक दारू का पीठावाला था उसके पास एक पैसा ले गया..कि शराब दे दे। पीठावाला ने देखा कि एक पैसे में शराब ।
बोला- “अरे क्यों एक पैसे का खून करता है ?” एक पैसे की हत्या क्यों करता है ? संभाल के रख । एक पैसे का शराब लेकर एक पैसे का घात क्यों करता है,संभाल के रख जेब में ।
बोले : नहीं, घात नहीं करता, एक पैसे की शराब चाहिए।
बोले: एक पैसे की शराब से नशा तो नहीं चढ़ेगा ।
उसने बोला : मेरे को नशा थोड़े ही चढ़ाना है, खाली मूछों को लगा दूँगा, लोगों को आएगी गंध, नशा तो हमारा अपना है । नशे की आँखे बना लूँगा, नशा तो अपना है । शराब में नशा थोड़े ही है, नशा तो अपना है । शराब में नशा होता तो बोतल को भी चढ़ता । शराब में नशा नहीं, नशा अपना है । अपनी चेतना का नशा है न । मुर्दे के मुँह में डाल दो शराब तो क्या नशा चढ़ेगा ? पुतले के पेट में भर दो शराब तो क्या नशा चढ़ेगा ? शराब को नशा देने वाले भी तो हम हैं । शराब को बनाने वाले भी तो हम हैं । तू एक पैसे की दे दे हम मूछों को लगा देंगे, बस । अपना कलेजा क्यों खराब करे ? जब शराबियों की महफ़िल में जाना है तो बोलेंगे हम तो यार पी के आये हैं, फुर्र हैं ।
मजा आ गया क्या ? या आपकी वृत्ति को मजा आया । जय जय । शराबी की वृत्ति आपको जरा जँच गई तो उसकी वृत्ति आपकी वृत्ति एक हो गई… मजा आया । तो मजा कहाँ से आया ? मजा आपको अपना आया । जय जय । तो तुम जहाँ जहाँ सहमत हो जाते हो वहाँ किरण भेज देते हो और बोलते हो अहाहाहा… ऐ वात में जमा आया…. आ बापू में मजा आई…. फलाणा में मजा आई, तमारी ज किरणों तमे मोकलो छो…. किरणो ना मोकली तो महारे मजा…. बदवी जोई ना…. किरणो ना मोकली तो मजा बदवी जोई … पण किरणो ना मोकलवा नि तरकीब नथी…. कां तो किरणो सुन्न थई जाय…. के तो किरणो पछी बेड… किरण जहाँ से स्फुरित होती है उसमें बैठने की तरकीब नहीं । पछी झूलेलाल उमिया देवी…. ऐ बधी तमारी वृत्तियों छे…. पगतिया चढी चढी ने तात्या घ्सी जास… पुजारी तो केशुभाई से पगार चाहता है।पगार तो ट्रस्टीओं की तरफ से मिलता है ।
ईसा, मूसा को मानो ईसा को मानो..अरे । ईसा क्रॉस पे चढ़ा था, एक लाख आदमी उसको देख रहा था, जिंदा जी ईसा को ..तभी भी उनका वैर, लोभ, क्रोध नहीं मिटा, दुःख नहीं मिटा, क्रूरता नहीं मिटी … मोह, लोभ नहीं मिटा तो अभी ईसा को मानकर क्या झक मारेगा ?
राम जिसकी गोद में खेले है ऐसे कौशल्या और दशरथ को, कैकई को, मंथरा को… मंथरा ने राम को देखा है, कौशल्या ने गोद में खिलाया है.. फिर भी कौशल्या के दुःख का अंत नहीं दुःखी है.. राम बनवास होता है तो दुःख है। दशरथ को काम दुःखी कर रहा है, कैकेई को क्रोध दुःखी कर रहा है, मंथरा को कपट दुःखी कर रहा है… रामजी के तो दीदार थे ही । लेकिन श्रीराम तत्व का दीदार नहीं था । राम ब्रह्म परमारथ रूपा…ये नहीं जाना था ।
कृष्ण को तो कंस ने भी सुना था, कंस का तो भांजा था श्रीकृष्ण। फिर भी शोषण वृत्ति नहीं गई कंस की । कृष्ण के प्रागट्य के बाद भी कंस टैक्स डालने में तो लगा ही था । ये वृत्तियों से जो चीज मिलती है उसके अनुरूप वृत्ति बन जाती है तो उसी का लोभ बन जाता है। यश वाले को यश की भूख बनी रहती है, धन वाले को धन की भूख बनी रहती है, सत्ता वाले को सत्ता की भूख बनी रहती है, और छूट न जाए वो भय भी बना रहता है। और नहीं मिली तो आकांक्षा भी बनी रहती है। तो लोभ,भय और आकांक्षा जिसके पास मौजूद है वो निर्दुख कैसे ? निश्चिंत कैसे ? निर्द्वंद्व कैसे? मौत जिसके सिर पर नाँच रही है ..वृत्तियों का मजा लेगा तो शरीर में बैठ के रहेगा ..शरीर कोई अमर नहीं है। वृत्तियों का मजा लेना है तो इंद्रियों से ..वृत्ति इन्द्रियों के द्वारा बाहर आएगी और पकड़ेगी तब.. तो पकड़ने का साधन तो सदा रहेगा नहीं । सत्ता को पकड़े रखो.. छुटा है, छुटे हुए भी पकड़ा है । सब छोड़ दिया फिर भी सबको सत्ता तुमही दे रहे हो। सबको पकड़ा है फिर भी अंदर से किसी में आसक्ति नहीं ..ऐसा दिव्य ज्ञान पा लो । निश्चिंत, निर्द्वंद्व, निरालंब …
अष्टावक्र ने कहा –निरालंब शोभते बुद्धा…
बुद्ध पुरुष जो है वो निरालंब है, उसको कोई अवलंबन नहीं । इसलिए वो शोभता है। अपनी वृत्ति को अवलंबन चाहिए
गुजराती…..
कुछ न करो तो सो जाओ, सोने के लिए भी नींद का अवलंबन चाहिए । मित्र का अवलंबन चाहिए, छापे का अवलंबन चाहिए, आइसक्रीम का अवलंबन चाहिए, कुछ न कुछ अवलंबन चाहिए । ज्ञानी होता है उसको कुछ वस्तु के अवलंबन की जरूरत नहीं । निरालंब शोभते बुद्धा…अष्टावक्र गीता में आता है…बिना अवलंबन के शोभता है, निर्वासनिक, निर्द्वंद्व..और ये कठिन भी नहीं है, सरल भी नहीं है । स्थूल वृत्ति वाले के लिए सरल भी नहीं है। और जिसको सद्गुरु की कृपा मिल रही है और बुद्धिमान है, श्रद्धालू है उसके लिए कठिन भी नहीं ।
जैसा वृत्ति बन जाती है उसीके अनुरूप मजा तो आता है ..
किसी सेठ ने एक महात्मा से कई बार प्रार्थना की कि “आप हमारे घर में अपने श्रीचरण घुमायें !” आखिर एक दिन महात्मा जी ने कह दियाः “चलो, तुम्हारी बात रख लेते हैं । फलानी तारीख को आयेंगे ।”
सेठ जी बड़े प्रसन्न हो गये । बाबा जी आने वाले हैं इसलिए बड़ी तैयारियाँ की गयीं । बाबा जी के आने में एक दिन ही बाकी था । सेठ ने बड़े बेटे को फोन कियाः “बेटा ! अब तुम आ जाओ ।”
बड़े बेटे ने कहाः “पिता जी ! मार्केट टाइट है, मनी टाइट है, बैक में बैलेंस सेट करना है । पिता जी ! मैं अभी नहीं आ पाऊँगा ।”
मँझले बेटे ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया । सेठ ने छोटे बेटे को फोन किया तब उसने कहाः “पिता जी ! काम तो बहुत हैं लेकिन सारे काम संसार के हैं । गुरु जी आ रहे हैं तो मैं अभी आया ।”
छोटा बेटा पहुँचा संत-सेवा के लिए । उसने अन्न, वस्त्र, दक्षिणा आदि से गुरुदेव का सत्कार किया व बड़े प्रेम से उनकी सेवा की । बाबा जी ने सेठ से पूछाः “सेठ ! तुम्हारे कितने बेटे हैं ?”
सेठः “एक बेटा है ।”
“मैंने तो सुना है कि आपके तीन बेटे हैं !”
“वे मेरे बेटे नहीं हैं । वे तो सुख के बेटे हैं, सुख के क्या वे तो मन के बेटे हैं । जो धर्म के काम में न आयें, संत-सेवा में बुलाने पर भी न आयें वे मेरे बेटे कैसे ? मेरा बेटा तो एक ही है जो सत्कर्म में उत्साह से लगता है ।”
“अच्छा, सेठ ! तुम्हारी उम्र कितनी है ?”
“छः साल, दो माह और सात दिन ।”
“इतने बड़े हो, तीन बेटों के बाप हो और उम्र केवल इतनी !”
“बाबा जी ! जब से हमने दीक्षा ली है, ध्यान जप करने लगे हैं, आपके बने हैं, तभी से सच्ची जिंदगी शुरु हुई है । नहीं तो उम्र ऐसे ही भोगों में नष्ट हो रही थी । जीवन तो तभी से शुरु हुआ जब से संत-शरण मिली, सच्चे संत मिले । नहीं तो मर ही रहे थे, मरने वाले शरीर को ही ‘मैं’ मान रहे थे ।”
“अच्छा, सेठ ! तुम्हारे पास कितनी सम्पत्ति है ?”
“मेरे पास सम्पत्ति कोई खास नहीं है । बस, इतने हजार हैं ।”
“लग तो तुम करोड़पति रहे हो !”
“गुरुदेव ! यह सम्पत्ति तो इधर ही पड़ी रहेगी । जितनी सम्पत्ति आपकी सेवा में, आपके दैवी कार्य में लगायी उतनी ही मेरी है ।”
कैसी बढ़िया समझ है सेठ की ! जिसके जीवन में सत्संग है, वही यह बात समझ सकता है । बाकी के लोग तो शरीर को ‘मैं’ मानकर, बेटों को ‘मेरे’ मान के तथा नश्वर धन को ‘मेरी सम्पत्ति’ मान के यूँ ही आयुष्य पूरा कर देते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 25 अंक 312