संसार से वैराग्य होना कठिन है। वैराग्य हो भी जाए तो कर्मकांड से मन उठना कठिन है। कर्मकांड से उठ भी गए तो ध्यान में लगना मन का कठिन है। ध्यान में लग गए तो तत्वज्ञानी गुरु मिलना कठिन है। तत्वज्ञानी गुरु मिल भी गए तो उनमें श्रद्धा होना कठिन है। श्रद्धा हो भी गई तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन है।
तामसी श्रद्धा होती है तो कदम-कदम पर फरियाद करती है। तामसी श्रद्धा में समर्पण नही होता है, भ्रांति होती है समर्पण की। तामसी श्रद्धा विरोध करती है। राजसी श्रद्धा हिलती रहती है और भाग जाती है, किनारे लग जाती है। और सात्विक श्रद्धा होती है तो चाहे गुरु की तरफ से कैसी भी कसौटी हो, किसी भी प्रकार की परीक्षा हो, तो सात्विक श्रद्धावाला धन्यवाद से अहोभाव से भर कर स्वीकृति दे देगा। संसार से वैराग्य होना कठिन, वैराग्य हो गया तो कर्मकांड छूटना कठिन, कर्मकांड छूट गया तो उपासना में मन लगना भी कठिन, उपासना में मन लग गया तो तत्वज्ञानी ब्रह्मज्ञानी गुरुओं का मिलना कठिन, तत्वज्ञानी गुरुओं का मिलना भी हो गया तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन, क्योंकि प्रायः राजसी और तामसी श्रद्धा वाले लोग बहुत होते है। तामसी श्रद्धा कदम-कदम पर इन्कार करेगी, विरोध करेगी, अपना अहम् नही छोड़ेगी और श्रद्धेय के साथ, इष्ट के साथ, गुरु के साथ विरोध करेगी, तामसी श्रद्धा होगी तो। राजसी श्रद्धा होगी तो जरा-सा परीक्षा हुई या थोडा-सा घबराया तो राजसी श्रद्धा वाला किनारे हो जाएगा, भाग जाएगा। और सात्विक श्रद्धा होगी तो श्रद्धेय की तरफ से हमारे उत्थान के लिए चाहे कैसी भी कसौटी हो, चाहे कैसे भी साधन भजन की पद्धतियाँ हो, प्रयोग हो, व्यवहार हो, अगर सात्विक श्रद्धा है तो वह तत्ववेत्ता गुरुओं की तरफ से मिलनेवाली तमाम साधना पद्धति अथवा विचार व्यवहार जो भी, वो अहोभाव से वाह वाह धन्यवाद। उसे फ़रियाद नही होगी, उसे प्रतिक्रिया नही होगी। सात्विक श्रद्धा हो गया तो फिर तत्वविचार में मन लग जाता है, नही तो तत्वज्ञानी गुरु मिलने के बाद भी तत्वज्ञान में मन लगना कठिन है। आत्मसाक्षात्कारी गुरु मिल जाए और उसमें श्रद्धा हो जाए तो ये जरूरी नही कि सब लोग आत्मज्ञान की तरफ चल पड़े नही। राजसी श्रद्धा, तामसी श्रद्धावाला आत्मज्ञान की तरफ नही चल सकता। वो तत्वज्ञानी गुरुओं का सानिध्य पाकर अपनी इच्छा के अनुसार फायदा लेना चाहेगा, लेकिन जो वास्तविक फायदा है, जो तत्वज्ञानी गुरु देना चाहते है उससे वो वंचित रह जाएगा। सात्विक श्रद्धावाला होता है उसको ही तत्वज्ञान का अधिकारी माना गया है और वो ही तत्वज्ञान पर्यंत गुरु में अडिग श्रद्धा, जैसे संदीपक की थी, भगवान विष्णु आए वरदान देने के लिए नहीं लिया, भगवान शिव आए वरदान नही लिया। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण कर लिया, बुरी तरह परीक्षाएँ की। पीट देते थे, मार देते थे चाँटा, फिर भी वो गुरु के शरीर से निकलनेवाला गंदा खून, कोढ़ की बीमारी से आनेवाली बदबू, (मवाद) फिर भी संदीपक का चित्त कभी सूघ नही करता था, ऊबता नही था। ऐसे ही विवेकानंद की सात्विक श्रद्धा थी, तो रामकृष्ण देव में अहोभाव बना रहा और जब राजसी श्रद्धा हो जाती तो कभी हिल जाती ऐसे छ: बार नरेंद्र की श्रद्धा हिली थी। तो आत्मज्ञानी गुरु मिल जाना कठिन है, आत्मज्ञानी गुरु मिल जाए तो उसमें श्रद्धा टिकना सतत कठिन है, क्योंकि श्रद्धा रजस और तमस गुण से प्रभावित हो जाती है तो हिलती जाती है या विरोध कर लेती है। इसीलिए जीवन में सत्वगुण बढ़ना चाहिए। आहार की शुद्धि से, चिंतन की शुद्धि से सत्वगुण की रक्षा की जाती है। अशुद्ध आहार, अशुद्ध विचारोंवाले व्यक्तियों का संग छोडो और जीवन की तरफ लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना, बढना, टूटना, फूटना होता रहता है। इसीलिए साधक साध्य तक पहुँचने में उसे वर्षों गुजर जाते है। कभी-कभी तो पूरा जन्म गुजर जाता है फिर भी साक्षात्कार नही कर पाते है। हकीकत में छ: महीना अगर ठीक से साधना की जाए खाली छ: महीना, फक्त छ: महीना ठीक से साधना की जाए तो संसार की वस्तुएँ और संसार आकर्षित होने लगता है, सूक्ष्म जगत की कुंजियाँ हाथ में आने लगती है। छ: महीना अगर सात्विक श्रद्धा से, ठीक साधन किया जाए तो बहुत आदमी ऊँचा उठ जाता है। रजोगुण, तमोगुण से बचकर जब सत्वगुण बढ़ता है तो तत्वज्ञानी गुरुओं के ज्ञान में आदमी प्रविष्ट होता है। तत्वज्ञान का अभ्यास करने की आवश्यकता नही रहती, अभ्यास तो भजन करने का है और अभ्यास तो श्रद्धा को सात्विक बनाने का है, भजन का अभ्यास बढने से, सत्वगुण बढ़ने से विचार अपनेआप उत्पन्न होता है । महाराज! ऐसा विचार उत्पन्न करने के लिए भी साधन-भजन में सातत्य होना चाहिए और श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क होना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, गुरु में श्रद्धा। श्रद्धा हो गई तो तत्वज्ञान में गति करना।
तत्वज्ञान तो कईयों को मिल जाता है लेकिन उस तत्वज्ञान में स्थिति नही करते और स्थिति करते है तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की खबर हम नही रख पाते है। महाराज! ऐसा विचार उत्पन्न करने के लिए भी साधन-भजन में सातत्य होना चाहिए और श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क होना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, गुरु में श्रद्धा। श्रद्धा हो गई तो तत्वज्ञान में गति करना। तत्वज्ञान तो कईयों को मिल जाता है लेकिन उस तत्वज्ञान में स्थिति नही करते और स्थिति करते है तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की खबर हम नही रख पाते है। ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न हो जाए तो साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार करने के बाद भी अगर उपासना तगड़ी नही किया और गुरूकृपा से जल्दी हो गया साक्षात्कार, तभी विक्षेप रहेगा, मनोराज आने की संभावना है। साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्म अभ्यास करने में लगे रहते है बुद्धिमान उच्च कोटि के साधक। साक्षात्कार करने के बाद भी भजन में अथवा ब्रह्म अभ्यास में, ब्रह्मानंद में लगे रहना, ये साक्षात्कारी की शोभा है। अब जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है वे भी ध्यान, भजन में और शुद्धि में ध्यान रखते है तो हम लोग अगर लापरवाही कर दे तो हमने तो अपने पुण्यों की कब्र ही खोद दी। जीवन में जितना उत्साह होगा, सतर्कता होगी और जीवनदाता का मूल्य समझेंगे, उतना ही यात्रा उच्च कोटि की होगी।