साकार और निराकार की बात – पूज्य बापू जी

साकार और निराकार की बात – पूज्य बापू जी


संत लाल जी महाराज के प्रेम, भक्ति का भी कुछ प्रसाद लोगों को मिले इस हेतु मैंने एक बार नारेश्वर के अपने शिविर का उदघाटन उनके हाथों करवाया। इस प्रसंग पर उन्होंने कहाः “लोग निराकार की बातें करते हैं, ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, ‘मैं ब्रह्म हूँ, तुम ब्रह्म हो’ – ऐसा ब्रह्मज्ञान का उपदेश सबको देने लगते हैं। स्वयं पूरा दिन साकार में रहते हैं, शरीर साकार है, खाते हैं साकार में और बातें निराकार की करते हैं। तो क्या साकार के बिना उनका काम चल सकता है ?”

मैं समझ गया कि उऩकी कैंची मेरी ओर है। उनके हृदय में मेरे लिए तो बहुत प्रेम था परंतु उनकी दृष्टि में तो ज्ञान-ज्ञान क्या ? हकीकत में उऩ्होंने जिस भक्तिमार्ग से यात्रा की थी, उसी मार्ग के लिए उऩ्हें इतनी आत्मीयता हो गयी थी कि दूसरे ज्ञानादि मार्ग उन्हें अधिक पसंद नहीं थे।

लाल जी महाराज ने अव्यक्त की बात काट डाली। इसलिए दूसरे दिन जब वे शिविर में आकर बैठे तब मैंने कहाः “कल उदघाटन में मेरे मित्रसंत ने कहा कि “पूरा दिन साकार में रहते हैं और बातें  निराकार की करते हैं, परंतु साकार के बिना छुटकारा नहीं है।” तो मैं अर्ज करूँगा कि साकार के बिना छुटकारा नहीं है या निराकार के बिना छुटकारा नहीं है ? – इस बात को जरा हमें समझना पड़ेगा। पूरा दिन तो हम सब साकार में जीते हैं लेकिन झख मारकर रात को साकार और शरीर निराकार से मिलता है कि नहीं ? और साकार शरीर निराकार से मिलता है कि नहीं ? और साकार को सँभालने की शक्ति भी निराकार में डूबते हैं तभी आती है कि नहीं ? गन्ने का रस मीठा और पानी फीका। तो भी गन्ने का रस पीने से प्यास नहीं बुझती। यद्यपि गन्ने के रस में भी तो पानी ही आधारस्वरूप है। वैसे ही साकार मीठा लगता है, निराकार प्रारम्भ में फीका लगता है परंतु साकार को सत्ता भी निराकार से ही मिलती है। अखा भगत की बात सुनने जैसी हैः

सजीवाए निर्जीवाने घड्यो अने पछी कहे मने कंई दे।

अखो तमने ई पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?

‘सजीव ने निर्जीव (मूर्ति, प्रतिमा) को बनाया, फिर वही उससे माँगने लगता है कि मुझे कुछ दो। तो अखा भगत तुमसे यह पूछते हैं कि तुम्हारी एक आँख फूट गयी है या दोनों ?’

जो साकार है उसके गर्भ में निराकार ही है। तुम्हारे मूल में देखो अथवा परमात्मा के मूल में देखो कि वह निराकार है या नहीं ? अव्यक्त ही व्यक्त होकर भासित होता है। व्यक्त असत्य है, अव्यक्त ही सत्य है।”

मेरी बातें सुनकर वे मेरे सामने देखने लगे और फिर हम दोनों हँस पड़े। वास्तव में हम दोनों की ऐसी जोड़ी थी कि ऐसी जोड़ी तुमने कहीं और नहीं देखी होगी। हम दोनों के बीच अनोखा प्रेम था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 19 अंक 259

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