कबीरा निंदक न मिलो….

कबीरा निंदक न मिलो….


अज्ञान-अंधकार मिटाने के लिए जो अपने-आपको खर्च करते हुए प्रकाश देता है, संसार की आँधियाँ उस प्रकाश को बुझाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। टीका, टिप्पणी, निंदा, गलत चर्चाएँ और अन्यायी व्यवहार की आँधी चारों ओर से उस पर टूट पड़ते हैं। स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता आदि को भी ऐसे निंदकों का सामना करना पड़ा था। महात्मा गाँधी जी की सेवा में कुछ महिलाएँ थीं तो गाँधी जी को भी निंदकों ने अपना शिकार बनाया था।

असामाजिक तत्त्व अपने विभिन्न षड्यन्त्रों द्वारा संतों और महापुरुषों के भक्तों व सेवकों को भी गुमराह करने की कुचेष्टा करते हैं। समझदार साधक यह भक्त तो उनके षड्यंत्र-जाल में नहीं फँसते। महापुरुषों के दिव्य जीवन के प्रतिपल से परिचित उनके अनुयायी कभी भटकते नहीं, पथ से विचलित नहीं होते अपितु सश्रद्ध होकर उनके दैवी कार्यों में अत्यधिक सक्रीय व गतिशील होकर सहभागी हो  जाते हैं। परंतु जिन्होंने साधना के पथ पर अभी-अभी कदम रखे है, ऐसे नवपथिकों को गुमराह कर पथच्युत करने में दुष्टजन आंशिक रूप से अवश्य सफलता प्राप्त कर लेते हैं और इसके साथ ही आरम्भ हो जाता है – नैतिक पतन का दौर, जो संत-विरोधियों की शांति व पुण्यों को समूल नष्ट कर देता है, कालांतर में उनका सर्वनाश हो जाता है। कहा भी गया हैः

संत सतावे तीनों जावे, तेज बल और वंश।

ऐड़ा-ऐड़ा कई गया, रावण कौरव केरो कंस।।

अतः संतों के निंदकों से सावधान करते हुए संत कबीर जी कहते हैं-

कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिले हजार।

एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।

जिनका जीवन किसी संत या महापुरुष के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सान्निध्य में है, उनके जीवन में निश्चिंतता, निर्विकारिता, निर्भयता, प्रसन्नता, सरलता, समता व दयालुता के दैवी गुण साधारण मानवों की अपेक्षा अधिक होते हैं और वे ईश्वरीय शांति पाते हैं, सद्गति पाते हैं। जिनका जीवन महापुरुषों का, धर्म का सामीप्य व मार्गदर्शन पाने से कतराता है, वे प्रायः अशांत, उद्विग्न, खिन्न व दुःखी देखे जाते है व भटकते रहते हैं। इनमें से कई लोग आसुरी वृत्तियों से युक्त होकर संतों के निंदक बनकर अपना सर्वनाश कर लेते हैं। इसीलिए संत तुलसीदास जी ने लिखा है-

हरि गुरु निंदा सुनहिं जे काना, होहिं पाप गौ घात समाना।

हरि गुरु निंदक दादुर1 होई जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

  1. दादुर = मेंढक

नानक जी ने भी कहा हैः

संत का निंदक महा हतिआरा। संत का निंदकु परमेसुरि मारा।

संत के दोखी की पुजै न आसा। संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

भारतवर्ष का इससे बढ़कर और क्या दुर्भाग्य हो सकता है कि यहाँ के निवासी अपनी ही संस्कृति के रक्षक व जीवनादर्श, ईश्वररत आत्मारामी संतों व महापुरुषों की निंदा में, उनके दैवी कार्यों में विरोध उत्पन्न करने के दुष्कर्मों में संलग्न होते जा रहे हैं। यदि यही स्थिति बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब हम अपने ही हाथों से अपनी पावन परम्परा, रीति रिवाजों व आचारों को लूटते हुए देखते रह जायेंगे। क्योंकि संत संस्कृति के रक्षक, उच्चादर्शों के पोषक, रोग-शोक, अहंकार, अशांति के शामक होते हैं और जिस देश में ऐसे संतों का अभाव या अनादर होता है, इतिहास साक्षी है कि या तो वह राष्ट्र स्वयं ही मिट जाता है अथवा उसकी संस्कृति ही तहस-नहस होकर छिन्न-भिन्न हो जाती है और वहाँ के लोग बाहर से स्वाधीन होते हुए भी वास्तव में अशांति, अकाल मृत्यु, अकारण तलाक, विद्रोह और खिन्नता में खप जाते हैं।

हमारे ही देश के कुछ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में हमारे ही संतों और संस्कृति के खिलाफ अनर्गल बातें लिखी होती हैं। विदेशियों द्वारा दिये जाने वाले चंद पैसों की लालच में अपनी ही संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों के लिए क्या कहा जाय ?

वे हिन्दू धर्म के साथ साधु-संतों और देवी देवताओं के विषय में ऐसी बातें लिखते हैं कि हिंदुओं की ही श्रद्धा टूट जाये। क्योंकि विदेशी जानते हैं कि हिन्दुओं को अगर हिन्दुओं को गुलाम बनाना है तो पहले इनकी अपने ही धर्म से श्रद्धा तोड़नी पड़ेगी, क्योंकि धर्म इनका हौसला बुलंद करता है। इनकी श्रद्धा धर्म से हटने पर ही हम इन पर राज कर सकेंगे।

सदैव सज्जनों व संतों की निंदा, विरोध, छिद्रान्वेषण व भ्रामक कुप्रचार में संलग्न लेखक व पत्र-पत्रिकाएँ समझदारों की नजरों से तो गिरते ही हैं, साथ ही साथ लोगों को भ्रमित व पथभ्रष्ट करने के पाप के भागीदार भी बनते हैं। इस प्रकार के पाप का उन्हें अभी भय नहीं है, फिर भी भक्तों की बददुआएँ, समझदारों की लानत उन पर पड़ती है और देर-सवेर कुदरत का कोप उनपर होता ही है।

बड़े धनभागी हैं वे सत्शिष्य जो द्वेषपूर्ण भ्रामक प्रचार की तुच्छता समझ लेते है और उन अखबारों व पत्रिकाओं की होली जला देते हैं। उनसे माफी मँगवा लेते हैं अथवा उनके लिए चूड़ियाँ ले जाते हैं और उनकी बेशर्मी का उन्हें एहसास कराते हैं। उन्हीं के कार्यालय के सामने उनके अखबारों को जलाते हैं और उनके ब्लैकमेलिंग करने के मनसूबे सफल नहीं होने देते।

कुछ दिन पहले चंडीगढ़ में योग वेदान्त सेवा समिति के भाइयों ने जमीन खरीदी। एक फुट भी सरकार से जमीन नहीं ली गयी है, सारी जमीन समिति के भाइयों ने खरीदी है। उन पर लांछन लगाकर अख़बार वाले कौनसा मनोरथ पूरा करना चाहते हैं ?

बीसों एकड़ तो क्या, अगर कोई 20 गज भी सरकार की जमीन ली है – ऐसा अख़बार वाले साबित कर दिखायें तो उन्हें लाखों रूपये इनाम दिये जायेंगे। बेबुनियादी बातें लिख देना, कहानी रच देना, बात कुछ की कुछ तोड़-मोड़ कर द्वेषपूर्ण लेख लिख देना इससे अख़बार वालो की कीमत बढ़ती नहीं, घटती है।

धनभागी हैं वे सत्शिष्य जो तितिक्षाओं को सहने के बाद भी अपने सदगुरु के ज्ञान और भारतीय संस्कृति के दिव्य प्रकाश को दूर-दूर तक फैलाकर मानव-मन पर व्याप्त अंधकार को नष्ट करते रहते हैं। ऐसे सत्शिष्यों को शास्त्रों में पृथ्वी पर के देव कहा जाता है। – सम्पादक

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 10-11, अंक 118

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