कल हमने सुना कि पहलवान मस्कीनिया अखाड़े में आकर कहने लगा कोई है जो मुझसे लड़ेगा लेकिन तभी “मस्कीनिया पहलवान मैं भिडूंगा तुम्हारे साथ” ऐसी आवाज आई । सबकी गर्दनें उस आवाज़ की तरफ उठ गई, इसी सोच के साथ कि शेर को ललकारने वाला यह कौन बब्बर शेर है, परन्तु यह क्या सामने तो बकरी थी वह भी मरियल सी । मस्कीनिया को ललकारने वाली वह बकरी थी गुरु महाराज जी का दुर्बल-सा शिष्य । कुछ बुजुर्गों ने नेक सलाह देते हुए कहा कि अरे क्यूं पागल हो रहे हो, क्या तुझे पता नहीं कि मस्कीनिया तुझे फूंक मारकर ही उड़ा देगा । कुछ युवकों ने मस्करी भी की हमारे नये-नवेले पहलवान जी शाबाश बहुत अच्छे, फटाफट एक ही धोबी पलटी में मस्कीनिया को चित्त कर दो । मस्कीनया भी अट्टहास करता हुआ बोला अरे ओ सिकुडू पहलवान ! अगर मरने का इतना ही शौक है तो जा किसी कुएं में कूद पड़, क्यूं मुझसे गरीब मार करवा रहा है ? परन्तु शिष्य आंखों में गुरु के लिए मरने का जुनून लिए अखाड़े के बीचों-बीच आकर खड़ा हो गया । अब मस्कीनिया सोचने पर मजबूर हो गया कि आज तक ऐसे निर्भय होकर मेरी आंखों में आंखें डालकर देखने की ताकत तो स्वयं यमराज में भी नहीं । फिर यह अदना-सा आदमी आखिर माजरा क्या है ? फिर उसके दिमाग में आया, कहीं यह किसी मजबूरी के कारण तो नहीं लड़ रहा । उसने कहा सुनो भाई जबकि तुम्हें पता है कि मैं तुम्हें मिट्टी की तरह मसल दूंगा और स्वयं ईश्वर भी तुम्हें नहीं बचा पायेगा तो फिर क्यूं तुम मेरे हाथों मरना चाहते हो ? शिष्य मुस्कुरा पड़ा और सहजता से बोला कि मस्कीनिया जी ! कैसी नादानों वाली बातें करते हो । मिट्टी को अगर आप मिट्टी की तरह मसल भी देंगे तो मिट्टी का क्या बिगड़ेगा, मिट्टी तो मिट्टी ही रहेगी । वैसे भी अनेक जन्मों से यह शरीर सांसारिक रिश्तों के लिए खाक होता आया है । आज मेरे प्यारे गुरुदेव की सेवा के लिए यह अगर मिट जाए तो इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा । खैर मस्कीनिया जी यह बातें आपको समझ में नहीं आयेंगी, आप आगे बढ़िए और मुझे मारिये । शिष्य के इन अध्यात्मिक शब्दों से मस्कीनिया का पहलवान जिगर घायल हो गया । उसने आज तक ऐसे दिव्य वाक्य बड़े-2 धर्म पुजारियों से भी नहीं सुने थे । आखिर कौन से गुरु की बात कर रहा है यह, क्यूं उसकी सेवा में जान देने को भी तैयार है फिर अगर इसके विचार इतने ऊंचे हैं तो इसका गुरु कैसा होगा ? अगर शिष्य काल को ललकार सकता है तो उसके गुरु में कितनी शक्ति होगी । सुनो भाई ! कौन हैं तुम्हारे गुरुदेव, कौन-सी सेवा की तुम बात कर रहे हो ? पता नहीं क्यूं मेरा मन उनकी ओर खिंच रहा है । अपने गुरुदेव का पूरा परिचय देकर मेरी जिज्ञासा को शांत करो । शिष्य गर्व से तन कर बोला कि मेरे गुरु का मैं क्या परिचय दूं वे दिन के सूर्य, रात्रि के चंद्रमा, आसमान की विशालता और ऋतुओं की बहार हैं । मेरे दिल की धड़कन, आंखों की पुतली और मेरा श्रृंगार हैं । उनकी नज़रें झुकने से प्रलय और उठने से सृष्टि का निर्माण होता है, उनकी दिव्य वाणी सुनकर सरस्वती भी लज्जा जाए और उनके दरबार की शोभा क्या कहूं देवलोक से भी बढ़कर है । ऐसे महामानव श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज का मैं अदना-सा शिष्य हूं । उन्होंने मेरी 500 चांदी के सिक्कों की सेवा लगाई है, मैं यह सेवा करने के बिल्कुल भी लायक नहीं था लेकिन उनकी नज़रें इनायत, कर्म नवाजी देखिए कि आज ही यह मुनादी हुई कि आपसे हारने वाले को 500 सिक्के मिलेंगे । नहीं तो क्या कभी हारने वाले को कुछ मिलता है । धन्य हैं मेरे गुरुदेव धन्य हैं ! मस्कीनिया जी आप कुश्ती शुरू करें, आज आपके हाथों मरकर धन के साथ-2 मेरे तन की भी सेवा लगेगी । इतना कहकर महाराज जी का शिष्य भावुक हो गया और उधर पहलवान मस्कीनिया की मरुस्थल-सी सूखी आंखों में नदियां उमड़ आयी । वह शिष्य के सामने दोनों हाथ जोड़कर घुटने के बल बैठ गया फिर रोता हुआ बोला मुझे नफरत हो रही है अपने आप से, इतना बलिष्ठ शरीर बनाने के बाद भी मैंने सबको पलटनी देकर गिराया है, लेकिन महान हैं आपके सदगुरु जो गिरे हुओं को उठाते हैं, धन्य हैं आपके गुरुवर जिन्होंने आप जैसे शिष्य बनाए । आपके गुरुप्रेम ने तो मुझे बिना दंगल किए ही जीत लिया । ऐसा प्रेम मैंने पहले कभी संसार में नहीं देखा । इतना कहकर मस्कीनिया ने आंसू पोंछे, उसकी आंखों में सज्जनता की रोशनी चमक उठी । उसने मन ही मन संकल्प लिया कि चल मस्कीनिया आज कुछ अजब घटाकर दिखा दे । जिस मस्कीनिया ने आज तक सांसारिक पहलवानों को क्षणों में हराया है उसे आज एक शिष्य ने हराया, इसे आज एक शिष्य से हारना होगा । जिस मस्कीनिया ने असंख्य रणबांकुरों को धाराशायी किया है, आज उसे अपनी छाती पर पूर्ण गुरु के शिष्य को बिठाना होगा । अब मस्कीनिया शिष्य की तरफ मुड़ा और खुसर-फुसर करता हुआ धीरे से बोला, तुमने कहा ना शरीर मिट्टी है पता नहीं कब खत्म हो जाए । सो मैं भी थोड़ा पुण्य कमा लूं ! भाई मना मत करना, जैसा मैं कहता हूं बस वैसा करते जाओ । मुझे ज़रा-सा धक्का मारो मैं गिर जाऊंगा फिर तुम मेरी छाती पर बैठ जाना । हिचकिचाना मत क्यूंकि मैं चाहता हूं कि तुम हारकर 500 सिक्के नहीं बल्कि जीतकर पूरे 1000 चांदी के सिक्के ले जाओ । जिसमें 500 तुम्हारे और 500 मेरी तरफ से गुरु चरणों में अर्पित हों । बस अब शिष्य मस्कीनिया के कहे अनुसार उसकी छाती पर बैठ गया और 1000 चांदी के सिक्के जीत लिए । अंत में शिष्य सिक्कों को सेठ की ओर बढ़ाते हुए विनय पूर्वक बोला सेठ जी यह लीजिए 1000 सिक्के । इंतजाम पहले से ही तय होते हैं, देखी आपने उनकी कृपा, मैंने तो 500 सिक्के मिलने की ही आशा रखी थी लेकिन उसने पूरे दे दिए । सेठ का अहंकार चूर-चूर हो चुका था वाकई में वह अपने आप को दरिद्र और शिष्य को रईस देख पा रहा था । उसके मुंह से बस यही शब्द निकले सच में भाई तुम गुरु के सेठ हो । गुरु दरबार में तुम जैसे सेठों के होते हुए हम जैसे सेठों की क्या औकात । इसके तुरंत बाद सेठ 1000 चांदी के सिक्के लेकर गुरु दरबार की तरफ चल पड़ा । सदगुरु हर युग में सदैव मानव जाति के कल्याण हेतु तत्पर रहते हैं । वे शिष्य को किस प्रकार क्या सीख दे दें वो तो वे दाता ही जानते हैं परन्तु सदगुरु की प्रत्येक क्रिया, हर हील-चाल मात्र शिष्य के उत्थान हेतु ही होती है । यदि गुरु कोई सेवा देते हैं तो उसको पूरा करने के साधन पहले ही बना देते हैं । बस आवश्यकता है तो गुरु आज्ञा पर पूर्ण श्रद्धा रखने की और कर्म में पूर्ण प्रयास की । संत और सदगुरु का मत है कि गुरु की आज्ञाओं के प्रति लापरवाही यह स्वयं से दुश्मनी है । जैसे किश्ती में छोटा-सा छिद्र भी पूरी किश्ती को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है, वैसे ही गुरु आज्ञा के प्रति थोड़ी भी लापरवाही साधक के पतन हेतु पर्याप्त है । कभी-2 गुरु ऐसे आदेश दे देते हैं जो शिष्य के मस्तिष्क के भीतर नहीं उतरते हैं, ऐसे क्यूं होता है क्यूंकि श्रद्धा की कमी है । जहां श्रद्धा की कमी होगी वहीं गुरु आज्ञा के प्रति लापरवाही होगी, संशय होगा । छोटी से छोटी गुरु आज्ञा भी शिष्य के कल्याण के लिए बड़ी सीढ़ी बनती जाती है लेकिन प्रश्न यह है कि हम गुरु आज्ञा पालन के कल्याणकारी प्रभाव को जानकर उसमें कितना डट पाते हैं ।