अर्जुनदेव जी का वह अनोखा शिष्य (भाग-2)

अर्जुनदेव जी का वह अनोखा शिष्य (भाग-2)


कल हमने पढ़ा कि लाहौर का सेठ गुरु के सेठ से मिलने के लिए निकल पड़ा । सेठ की शाही बग्गी गांव के अंदर दाखिल हुई और एक बड़े से पेड़ के पास रुक गई । वहां कई बुजुर्ग और युवकों की मंडलियां ताश के पत्तों से खिलवाड़ कर रही थी । सेठ ने रोबीले स्वर में पूछा यहां गुरु के सेठ की हवेली कहां है, क्या बता सकते हैं ? एक युवक अचकचा कर बोला कौन से सेठ की हवेली ! अरे वही जो अर्जुन देव जी का शिष्य है, जिसका छत्र इस पूरे इलाके में व्याप्त है, जिसको गुरुजी अपना सेठ कह कर पुकारते हैं वही गुरु का सेठ । इतना सुनना था कि युवक हाथ पर हाथ मार कर ठहाका लगाकर हंस पड़ा । अच्छा-2 उस पागल की बात कर रहे हैं जो चौबीसों घंटे अपने गुरु की ही बातें करता रहता है । उधर गंदे से पोखरे के पास झोंपड़ी है उसकी, जाओ मिल लो अपने सेठ से । सेठ को जबरदस्त झटका लगा, गुरु का सेठ और झोंपड़ी में फिर सोचा होगा तो वह बेअंत संपदा का स्वामी लेकिन चोर, डाकुओं के भय से जान-बूझकर झोंपड़ी में रहता होगा ताकि कोई शक ना करे इसी विचार के साथ सेठ उस शिष्य की झोंपड़ी की तरफ बढ़ चला । पोखरे के किनारे बनी यह झोंपड़ी अंतिम मयाद को पार कर चुकी थी पास में ही एक खूंटे से मरियल सी बकरी बंधी थी जो सूखी घास से भूख मिटाने में संघर्षरत थी । उसका मेमना उसके सूखे थनों से दूध ना मिलने पर थक कर बैठ गया था । गंदे पोखरे से बेइंताह बदबू उठ रही थी, तभी झोंपड़ी से एक अधेड़ कुपोषित मैले कुचैले कपड़ों में अर्धनग्न-सा आदमी बाहर आया । उसके मांस से हड्डियां बाहर झांक रही थी, उसे देख कर सेठ की बची-खुची उम्मीद भी सूर्य डूबने के साथ अस्त हो गई । शाही बाग के पास आकर वह हाथ जोड़कर बोला श्रीमान गुरु का दास आपकी क्या सेवा कर सकता है । किस कारण से आप हमारे गरीब खाने पहुंचे हैं । सेठ बिल्कुल चुप ! वह शिष्य को ऐसे घूर कर देख रहा था जैसे कोई स्त्री अपनी सौतन को देखती है । इतने में झोंपड़ी से एक स्त्री भी बाहर निकल आई जो उस शिष्य की पत्नी थी, फटी बेहाल साड़ी मुश्किल से उसका तन ढक पा रही थी । सेठ ने थके से स्वर में पूछा क्या तुम ही श्री गुरु अर्जुन देव महाराज के शिष्य हो । गुरुदेव का नाम सुनते ही उस शिष्य का चेहरा खिल गया, दोनों हाथ जुड़ गए । हां-हां श्रीमान मैं ही श्रीगुरू अर्जुन देव जी का निमाना दास हूं । क्या आप गुरु दरबार से आए हैं ? मेरे गुरुदेव कैसे हैं, क्या गुरुदेव ने मुझे याद किया है ? एक ही श्वास में उसने ढेर सारे प्रश्न कर दिए । सेठ को शिष्य की खुशी से कोई वास्ता नहीं था । अच्छा सच-सच बताओ क्या तुम्हारी हालत सचमुच ऐसी खस्ता है या तुम जान बूझकर ऐसे रहते हो । क्यूंकि गुरु महाराज जी तो तुम्हें अपना सेठ कह रहे थे । शिष्य की आंखें डबडबा आईं, वह भावुक हो उठा क्या मेरे गुरुदेव अपना सेठ कह रहे थे । श्रीमान जी धन्य हैं मेरे प्रभु जो ऐसा मान बख्श रहे हैं । अपना सेठ कह रहे थे । श्रीमान जी धन्य हैं मेरे प्रभु जो ऐसा मान बख्श रहे हैं मुझे माता की तरह दुलार दे रहे हैं जैसे एक मां अपने अपंग, काने बेटे को भी कहती है कि यह तो मेरा राजा बेटा है चांद के जैसा सुंदर है । मेरे गुरुदेव भी वैसे ही कह रहे हैं, एक कंगाल को अपना सेठ बोलते हैं । सच यह तू ही बोल सकता है मेरे दाता और कोई नहीं, इससे अधिक वह शिष्य कुछ बोल ना पाया । उसकी आंखों से आंसुओं की लड़ियां बह चली, उसका मन प्रेम, श्रद्धा की लहरों में गोता लगाने लगा लेकिन तभी उसे ख्याल आया कि सेठजी को तो अंदर बुलाया ही नहीं । वैसे ही बाहर अंधेरा हो चुका था, क्षमा करें श्रीमान आपको अंदर लिवाना तो मैं भूल ही गया, आईए अंदर आईए । आप मेरे गुरु-दरबार से आए हैं आज तो हम पूरी रात आपसे गुरुदेव की महिमा सुनेंगे । शिष्य भावना में क्या-2 बोले जा रहा था, इसका उसे भान ही नहीं था । गुरुभक्ति में रंगा वह इतना भी भूल गया था कि उसके सामने शाही बग्गी पर सवार होकर आया एक रईस सेठ खड़ा है कोई भिखारी नहीं जो उसकी झोंपड़ी में रात भर ठहर सके । अब सेठ की तो सर्प के मुंह में मेंढक वाली बात हो गई, उसके लिए झोंपड़ी में रहना भी दूभर था और वापिस जाना भी असंभव क्यूंकि अब तक पूरा अंधेरा हो चुका था । उसे रात भर झोंपड़ी में रुकने वाला कड़वा जहर आखिर पीना ही पड़ा । झोंपड़ी के अंदर दाखिल होते ही सेठ को ऐसा लगा मानो काल कोठरी में आ गया हो । झोंपड़ी के बीचों-बीच एक टूटा-सा लालटेन झूल रहा था, जिसमें जलती लौ अंतिम दम भर रही थी क्यूंकि लालटेन के पेट में तेल की एकाध बूंद ही शेष रह गई थी । एक कोने में चूल्हा रखा था और मिट्टी के कुछ गिने-चुने बर्तन उसके आस-पास बिखरे पड़े थे । बस इसके अलावा झोंपड़ी में और कुछ नहीं था, शिष्य ने सेठ से बैठने का आग्रह किया लेकिन कैसे बैठता सेठ जमीन पर । सेठ ने अपना कीमती शॉल उतारा, चटाई की तरह बिछाया और बैठ गया । इतने में शिष्य की पत्नी सेठ के लिए टूटे घड़े के ठिकरे में पानी लेकर आयी । यह देखकर सेठ के सब्र की बाधा ही टूट गई, वह खीज कर बोला नहीं पीना मुझे और सुनो खाना भी मत बनाना । मुझे भूख नहीं वैसे भी आज मेरा एकादशी का व्रत है । इसके बाद दोनों पति-पत्नी सेठ के सामने जिज्ञासु मुद्रा में बैठ गए । उन्हें पता था कि गुरुदेव ने कोई संदेश तो जरूर भेजा होगा । शिष्य विनीत भाव से बोला श्रीमान क्या हमारे लिए गुरु महाराज जी ने कोई संदेश नहीं भेजा, हमारे दिल की धड़कनें उनके हुकुम को सुनने के लिए बेताब हैं । दोनों पति-पत्नी की आंखों में गुरु आज्ञा को सुनने की इतनी अधीरता थी जैसे रोटी के टुकड़े के प्रति किसी भूखे की होती है । सेठ ने एक बार तो सोचा कहीं 500 सिक्कों की बात सुनकर इन बेचारों को दिल का दौरा ना पड़ जाए । परन्तु दूसरे ही पल मन ने एक और बात कही कि गुरुजी ने तो इतनी शान से दावा किया था तो क्यूं घबरा रहा है, जो तमाशा होगा देखा जायेगा ताकि वहां पहुंचकर सबको बताया जा सके । सेठ अखड़-सा होकर बोला हालांकि मुझे पता है तुम यह आज्ञा स्वप्न में भी पूरी नहीं कर पाओगे, फिर भी बताए देता हूं पूरे 500 सिक्के मांगे हैं तुम्हारे गुरु ने और सिक्के भी कोई लोहे के खोटे नहीं बल्कि चमचमाती चांदी के खनकते सिक्के । इससे भी बड़ी बात कि चाहिए भी कल सुबह तक अब बोलो दे पाओगे या मैं सुबह ऐसे ही लौट जाऊं । बड़ा कह रहे थे गुरु आज्ञा, गुरु आज्ञा क्यूं हो गया ना जोश ठंडा इतना कहकर सेठ दूसरी ओर मुंह करके बैठ गया जैसे कोई साहूकार किसी खैराती को डांटने-फटकारने के बाद मुंह फेर लेता है । लेकिन यह क्या सेठ की सोचानुसार जिन्हें सदमा पहुंचना चाहिए था वे तो खुशी से उछल पड़े ऐसे जैसे किसी रूठे बालक को उसकी मन पसंद मिठाई मिल गई हो । शिष्य खुशी से बावला होता हुआ बोला सच गुरुवर ने ऐसा बोला क्या ? श्रीमान यह शुभ समाचार आपने आते ही हमें क्यूं नहीं दिया ? इतना विलंब कर हमें तड़पाया क्यूं ? सेठ उन्हें खुशी में झूमता देखकर आश्चर्य में पड़ गया । अरे पागल हो क्या ? धरती पर तो हो या ठीक से सुना ही नहीं । पूरे 500 चांदी के सिक्के देने को कहा है, कोई मजाक नहीं है यह । तुम पूछ रहे हो मैंने अब तक छुपाया क्यूं बल्कि मैं सोच रहा हूं कि मैंने बताया ही क्यूं । और तो और खुश तो ऐसे हो रहे हो जैसे इंतजाम पहले से ही कर रखा हो और बस सुबह उठाकर देना ही हो । शिष्य सेठ की ऐसी बातें सुनकर मंद-मंद मुस्कुरा पड़ा । सेठ को उसकी यह मुस्कान चुभ गई, क्रोध चढ़े स्वर में बोला इसमें हंसने की क्या बात है । क्या भिखारी होने के साथ-2 पागल भी हो । श्रीमान आप चिंता ना करें, गुरुदेव ने जब कहा है आप 500 सिक्के मुझसे ले आएं तो देखिएगा सुबह तक सिक्कों का इंतजाम भी हो जायेगा । कैसे शिष्य दृढ़-विश्वास के साथ बोला, देखिए ना उसकी कुदरत जब बच्चा जन्म लेता है तो कुछ भी चबाने या खाने के योग्य नहीं होता । वह जानता है बालक की यह मजबूरी इसलिए तो पहले ही माता को जरिया बनाकर उसके दूध का इंतजाम कर देता है तो क्या आज हमारे लिए नहीं करेगा । गुरु ही सब कुछ करते हैं हम तो मात्र निमित्त बनते हैं इसलिए मुझे कोई चिंता नहीं, मैं क्यूं व्यर्थ चिंता करूं । गुरु ही आज्ञा करते हैं और गुरु ही उसे पालन करवाते हैं उन्होंने कहा है तो वे ही पूरा करेंगे भले मुझे निमित्त क्यूं ना बनना पड़े । शिष्य की पत्नी ने कहा सेठजी अब आप विश्राम करें और हम साधना करने चले । तत्पश्चात शिष्य और उसकी पत्नी साधना में बैठ गए । सेठ अपने दुशाले पर ही सिमट, सिकुड़ कर लेट गया । पूरी रात पति-पत्नी ध्यान में बैठे रहे, गुरुदेव से प्रार्थना करते रहे कि गुरुदेव आपने हमें याद किया, आपने कुछ आज्ञा की अब आप ही उसकी लाज रखें । हम समर्थ नहीं हैं लेकिन आप सर्व-समर्थ हैं । मुर्गे की बांग के साथ साधना से वे उठे, शिष्य झोंपड़ी से बाहर आया और दातुन करता हुआ गांव के अंदर की ओर चल पड़ा । दिमाग में कहीं कोई बोझ नहीं बल्कि दिल में एक उमंग थी कि गुरुदेव आज आपकी लीला मैं भी प्रत्यक्ष देखूंगा । मेरे पास तो 5 फूटी कौड़ी नहीं, 500 चांदी के सिक्के तो कैसे देगा यही नज़ारा देखने की इच्छा है बस । तभी चौराहे पर कोई ढोल पीट-2 कर मुनादी करने लगा कि सुनो सुनो सुनो ! आम और खास को सूचना दी जाती है कि ठीक सुबह 10 बजे धर्मशाला वाले मैदान में पहलवान-ए-आलम मस्कीनिया का दंगल होगा । जो कोई भी पहलवान उससे भिड़ना चाहे उसे खुला निमंत्रण है । राजा का हुकुम है कि जीतने वाले को 1000 और हारने वाले को 500 चांदी के सिक्के दिए जाएंगे । सुनो सुनो सुनो ! इतना कहकर मुनादी वाला आगे बढ़ गया लेकिन शिष्य की आंखें सावन और भादौं हो आईं । गुरुदेव की कृपा देखकर मन कृतज्ञता से भर उठा, भाव शब्द बन कर निकल पड़ा कि धन्य हैं गुरुदेव आप । आज्ञा देने वाले भी आप, पूरी कराने वाले भी आप , हम तो बस आपकी लीला के दर्शक हैं । वह तुरंत झोंपड़ी में लौटा और अपनी पत्नी को यह खुश खबरी दी । उत्साहित स्वर में सेठ से कहा श्रीमान आपको पूरे 10:30 बजे 500 चांदी के सिक्के मिल जाएंगे, मैं भले ही उसके बाद मिलूं या ना मिलूं । मस्कीनिया आज तक एक भी दंगल ना हारा था, उससे भिड़ना मतलब मौत को आमंत्रित करना । मस्कीनिया अखाड़े में दूसरे दिन प्रवेश करके अखाड़े में ललकारने लगा कि कोई है जो मुझसे भिड़ना चाहेगा तभी भीड़ में से मस्कीनिया पहलवान मैं भिडूंगा ! तुम्हारे साथ । सबकी गर्दन उस आवाज़ की तरफ उठ गई इसी सोच के साथ कि शेर को ललकारने वाला यह कौन बब्बर शेर है । परन्तु यह क्या सामने तो बकरी थी और वह भी मरियल-सी । मस्कीनिया को ललकारने वाली यह बकरी थी, गुरु महाराज जी का दुर्बल-सा शिष्य । गुरु की आज्ञा पालन में यह शिष्य किस प्रकार गुरु भक्तों की सूची में खुद को अंकित करेगा यह हम कल के प्रसंग में पढ़ेंगे ।=====================आगे की कहानी कल की पोस्ट में दिया जाएगा….

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