आदर्श गृहस्थ जीवन के सोपान

आदर्श गृहस्थ जीवन के सोपान


सद्गृहस्थ, आदर्श गृहस्थ बनकर जीवन में सद्गति चाहते हो तो घर को, परिवार को अपना मानकर लोभी, मोही, अभिमानी न बनो। घर, परिवार, धन को अपने लिए समझो परंतु अपना न समझो क्योंकि ये सब संसार की वस्तुएँ हैं, तुम्हारी नहीं हैं। जो कुछ तुम्हारे साथ है वह तुम्हें भाग्य के अनुसार मिला है किंतु वह सदा न रहेगा और तुम स्वयं वर्तमान शरीर के साथ सदा न रहोगे।

तुम्हें जो कुछ सुंदर, अनुकूल, सुखकर मिला है वह किसी प्रकार के तप या पुण्य का फल है। अतः जहाँ तक शुभ, सुंदर का भोग करते हो, वहाँ तक अपने ही पुण्य को क्षीण करते जाते हो। यदि भोग के साथ तुम पुनः तप, दान, पुण्यमत कर्म न करोगे तो एक दिन तुम्हारे पुण्यजनित भोग-सुखों का अंत हो जायेगा।

सुख का भोग करते हुए दूसरों को भी सुख देते रहो, जिससे आगे फिर सुख मिले परंतु दुःख का भोग करते हुए किसी को दुःख न दो, जिससे आगे तुम्हें दुःख न भोगना पड़े।

भोग्य वस्तुओँ का औषधि की नाईं उपयोग करना मना नहीं है, उपभोग करना हानिकारक है। उनमें आसक्त होना, अनुकूल वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति के बिना दुःखी होना, बेचैन होना तुच्छ मानसिकता और मति है। सुखद अथवा दुःखद, अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने सम, साक्षी स्वभाव में प्रतिष्ठित रहें, यही ज्ञानयोग की महिमा है। भगवान श्रीकृष्ण गीता (6.32) में कहते हैं-

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।

सुखद अवस्था आये चाहे दुःखद अवस्था, उनमें जो सम रहता है वह परम योगी है।

आदर्श सद्गृहस्थ वही है जो दानी, संतोषी, विनम्र, विवेकी होता है और भोग से विमुख होकर योगपथ में चलता है।

गृहस्थ जीवन में तुम्हारे साथ जो कुछ सूझबूझ, योग्यता, शक्ति है, उसके द्वारा सदा ऐसे ही कार्य करो जिनके द्वारा तुम दयालुता, उदारता, सहिष्णुता और नम्रता की वृद्धि कर सको। प्राप्त शक्ति का उपयोग उस रूप में न करो जिससे क्रोध, कठोरता, हिंसा, मोह, ममता, अभिमान, द्वेष आदि दोषों की परिपुष्टि होती हो। शक्ति के द्वारा यथाशक्थि शक्तिहीनों के काम आओ।

जो गृहस्थ अपने जीवन में गृहसंबंधी चिंताओं से, कर्तव्यों व बंधनों से मुक्त नहीं हो जाता वह सद्गृहस्थ नहीं, आदर्श, धर्मात्मा गृहस्थ नहीं। कहीं न कहीं उसने अकर्तव्य का, अन्याय का आश्रय अवश्य लिया होगा। कर्तव्यपरायण, धर्मात्मा, न्यायी गृहस्थ का सब कार्य ठीक समय पर समाप्त होगा, उसकी अवश्य ही सद्गति, परम गति होगी। मन, वाणी, कर्म से यदि तुम भगवान की ही आराधना करना चाहते हो तो जो कुछ करो उस समय यही सोचो क हम भगवान के लिए कर रहे हैं।’ यदि कोई प्रेमी दौड़ना आरम्भ करे और यही समझ ले कि ‘हम भगवान के लिए दौड़ रहे हैं’ तो उसका दौड़ते  रहना भजन हो  जायेगा। यदि कोई निश्चय करके परिवार की सेवा करे कि ‘हम भगवान के लिए ही  परिवार की सेवा कर रहे हैं’ तो उसकी सेवा भजन बन जायेगी। भगवदाकार वृत्ति का दृढ़ होना ही तो भजन-आराधना है।

गृहस्थी के प्रपंच से संबंध, बंधन तोड़ना चाहते हो तो जो कुछ भी प्राप्त है उसे अपना न मानो, जो कुछ भी सुना तथा देखा हुआ अप्राप्त है उसकी इच्छा न करो। जगत के प्राणियों को प्रसन्न करना चाहते हो तो उनकी सेवा करो। गुरुदेव को प्रसन्न एवं संतुष्ट करना चाहते हो तो विषयासक्ति को विषय-विरक्ति में, स्वार्थभाव को सेवा में, संबंधियों के चिंतन को भगवच्चिंतन में, देहाभिमान को आत्मज्ञान में बदल दो। चित्त को स्थिर रखना चाहते हो तो भोग-वासनाओं तथा मोह, लोभ, अभिमान का जिस प्रकार हो सके पूर्ण त्याग करो।

गुरुकृपा अथवा भगवत्कपृपा का निरंतर अनुभव करना चाहते हो तो सत्संग मिलने पर मिथ्या आग्रह, दुराग्रह न करो, स्वच्छंद (मनमुखी) होकर कर्म न करो, प्रमाद में शक्ति तथा आलस्य में समय नष्ट न करो और विषयासक्ति का त्याग करो। शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति के लिए वासना-विकारों का त्याग अत्यावश्यक है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 289

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