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Rakshabandhan

शुभ संकल्पों के द्वारा रक्षा करने वाला पर्वः रक्षाबंधन


पूज्य बापू जी

ऋषिपूजन का दिवस, यज्ञोपवीत पहनने व बदलने का दिवस, स्वाध्याय और आत्मिक शुद्धि के लिए अनुष्ठान करने या पूर्णाहुति करने का दिवस है रक्षाबंधन।

कैसी है भारतीय संस्कृति, ऋषियों की परम्परा का चलाया धागा ! अगर ईमानदारी से आप इसका फायदा उठाते हैं तो आज का जवान पड़ोस की बहन को बहन कहने की जो लायकी खो बैठा है, युवती पड़ोस के भाई को भाई कहने की लायकी खो बैठी है, वह लायकी फिर से विकसित हो सकती है, युवा पीढ़ी की रक्षा हो सकती है, ब्रह्मचर्य की रक्षा हो सकती है। आपके अंदर देश की रक्षा, अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने वाला ऋषि-ज्ञान नहीं है तो दूसरे लोग आकर आपको क्या ऊपर ऊठायेंगे ! कोई भी आकर आपको क्या ऊपर उठायेंगे ! कोई भी आकर आपको ऊपर नहीं उठायेगा, जो आपके पास है उसको खींचने के लिए ही योजना बनायेगा। ऊपर तो आपको आत्मा उठायेगा, आपकी संस्कृति उठायेगी, आपका धर्म और ब्रह्मवेत्ता संत उठायेंगे।

मेरे सदगुरु को उनके शिष्यों ने राखी बाँधी थी। साधकों की यह कामना होती है कि ‘हमारे गुरुदेव अधिक-से-अधिक हम जैसों को परमात्म-अमृत पिलायें और राखी बाँधकर हम अपनी रक्षा चाहते हैं। गुरुदेव ! व्यासपूर्णिमा का पूजन करने के बाद महीनाभर हो गया, संसार में हम गये हैं, चाहते हैं ध्यान करना लेकिन मन इधर-उधर चला जाता है। चाहते हैं आत्मसाक्षात्कार करना लेकिन संसार के विषय-विकार हमें खींच लेते हैं। चाहते हैं सबमें समता लेकिन विषय विकार विषम कर देते हैं। इन विषय-विकाररूपी राक्षसों से हमारी रक्षा करना, संसाररूपी भोग से और जन्म-मरण के चक्कर से हमारी रक्षा करना।’ – इस  प्रकार की साधकों की भावना होती है, रक्षा चाहते हैं।

बहन भाई के द्वारा अपने धन-धान्य, सुख-समृद्धि व शील की रक्षा चाहती है, पड़ोस की बहन  पड़ोस के भाई के द्वारा अपनी इज्जत और शील की रक्षा चाहती है। साधक अपने संतों के द्वारा अपनी साधना की रक्षा चाहते हैं। यह राखी मंगलकारी संकल्पों को अभिव्यक्त करने का एक प्रतीक है। मनुष्य संकल्पों का पुंज है।

समुद्र की उपमा दी जाती है ज्ञानी को। यह दिवस समुद्र-पूजन का दिन है। समुद्रों का समुद्र जो परमात्मा है उसके पूजन का दिन है। व्यापारियों के लिए बाह्य समुद्र पूजने योग्य है और साधकों के लिए भीतर का समुद्र पूजने योग्य है। व्यापारी लोग इस दिन समुद्र की पूजा करते हैं। आप लोग भगवान के आशिक हैं, आपकी आँखों में प्रभुप्रेम है, श्रद्धा है और संसाररूपी समुद्र को तय करने के लिए आपके पास छोटी-सी साधना की नौका है। ‘ये ज्वार-भाटे आते रहते हैं। इनसे हमारी रक्षा होती रहे।’ – ऐसी सत्कामना साधकों की होती है और यह अच्छी भी है।

साधक का राखी बाँधने का भाव क्या ?

कई लोग चाहते हैं कि हमारा धन-धान्य, पुत्र-परिवार और बढ़े लेकिन साधक चाहता है कि मेरी जो ईश्वरीय मस्ती है, शांति है, एकाग्रता है, मेरा जो आत्मज्ञान का खजाना है, मौन है और मेरी जो ईश्वर के बारे में समझ है वह और बढ़े।

हमने कुंता जी से धागा नहीं बंधवाया है, कर्मावती या इन्द्राणी से धागा नहीं बंधवाया है, हमने साधक और साधिकाओं से धागा बँधवाया है। यह धागा बाँधना मतलब क्या ? ये धागे हमारे पास आ गये, साधक-साधिकाओं की दृष्टि मुझ पर पड़ी, मेरी दृष्टि उन पर पड़ी….. तो सूक्ष्म जगत में स्थूलता का कम मूल्य होता है, यहाँ सूक्ष्म संकल्प एक दूसरे की रक्षा करते हैं। जो देह में अहंबुद्धि करते हैं उनको धागे की याद चाहिए लेकिन जो ब्रह्म में या गुरु-तत्त्व में या आत्मा में अहंबुद्धि करते हैं उनको तो धागा देखने भर को है, बाकी तो उनके संकल्प ही एक दूसरे के लिए काफी हो जाते हैं।

राखी पूर्णिमा के दिन यज्ञ की भभूत शरीर को लगायें, मृत्तिका (मिट्टी) लगाकर स्नान करें, फिर गाय का गोबर लगा के स्नान करें। यह कितने ही दोषों एवं चर्मरोगों को खींच लेगा। इससे शारीरिक शुद्धि हो गयी। पंचगव्य पीने का दिन राखी पूनम है। और दिनों में भी पिया जाता है लेकिन इस दिन का कुछ विशेष महत्त्व है।

पर्व का आध्यात्मिक रूप

आध्यात्मिक ढंग से इस पर्व के दिन गौतम ऋषि, अरुंधती माँ को याद करके, वसिष्ठजी, विश्वामित्र जी आदि सप्तऋषियों को याद करके ब्राह्मण लोग गाँव की उत्तर दिशा में नदीं, तालाब या सागर के किनारे बैठकर जनेऊ बदलते हैं। पुराना जनेऊ सरिता में, सागर में बहा देते हैं और नया जनेऊ धारण करते हैं। जनेऊ बदलवाकर यह पर्व हमें अपने पूर्वजों की स्मृति कराता है कि आपके पूर्वज कितने महान थे और उनकी तरह आप भी छोटी-छोटी उपलब्धियों में रुकिये मत। रक्षाबंधन महोत्सव आपके आत्मा की जागृति का संदेश देता है। मंत्रोच्चार में, वेदपाठ में अथवा सत्कर्म करने में जो गलतियाँ हो गयी हों, उनका प्रायश्चित्त करके अपनी आध्यात्मिकता को उज्जवल करने का संकल्प करते हैं इस दिन।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 283

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भगवान को सौंपकर निर्भार हो जाओ !


 

एक साधु भिक्षा लेने एक घर में गये। उस घर में माई भोजन बना रही थी और पास में बैठी उसकी लगभग 8 वर्ष की पुत्री बिलख-बिलख कर रो रही थी। साधु का हृदय करुणा से भर गया, वे बोलेः “माता ! यह बच्ची क्यों रो रही है ?”

माँ भी रोने लगी, बोलीः “महाराज जी ! आज रक्षाबंधन है। मुझे कोई पुत्र नहीं है। मेरी बिटिया मुझसे पूछ रही है कि ‘मैं किसके हाथ पर राखी बाँधूँ ?’ समझ में नहीं आता कि मैं क्या उत्तर दूँ, इसके पिता जी भी नहीं हैं।”

साधु ऊँची स्थिति के धनी थे, बोलेः “हे भगवान ! मैं साधु बन गया तो क्या मैं किसी का भाई नहीं बन सकता !” बालिका की तरफ हाथ बढ़ाया और बोलेः “बहन ! मैं तुम्हारा भाई हूँ, मेरे हाथ पर राखी बाँधो।”

साधु ने राखी बँधवायी और लीला नामक उस बालिका के भाई बन गये। लीला बड़ी हुई, उसका  विवाह हो गया। कुछ वर्षों बाद उसके पेट में कैंसर हो गया। अस्पताल में लीला अंतिम श्वास गिन रही थी। घर वालों ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी।

लीला ने कहाः “मेरे भाई साहब को बुलवा दीजिए।”

साधु महाराज ने अस्पताल में ज्यों ही लीला के कमरे में प्रवेश किया, त्यों ही लीला जोर-जोर से बोलने लगीः “भाई साहब ! कहाँ है भगवान ? कह दो उसे कि या तो लीला की पीड़ा हर ले या प्राण हर ले, अब मुझसे कैंसर की पीड़ा सही नहीं जाती।”

लीला लगातार अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी। साधु महाराज लीला के पास पहुँचे और उन्होंने शांत भाव से कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद कीं, फिर अपने कंधे पर रखा वस्त्र लीला की तरफ फेंका और बोलेः “जाओ बहन ! या तो प्रभु तुम्हारी पीड़ा हर लेंगे या प्राण हर लेंगे।”

उनका बोलना, वस्त्र का गिरना और लीला का उठकर खड़े हो जाना – सब एक साथ हो गया। लीला बोल उठीः “कहाँ है कैंसर ! मैं एकदम ठीक हूँ, घर चलो।”

लीला की जाँच की गयी, कैंसर का नामोनिशान नहीं मिला। घर आकर साधु ने हँसकर पूछाः “लीला ! अभी मर जाती तो ?”

लीला बोलीः “मुझे अपने दोनों छोटे बच्चों की याद आ रही थी, उनकी चिंता हो रही थी।”

“इसलिए प्रभु ने तुम्हें प्राणशक्ति दी है, बच्चों की सेवा करो, बंधन तोड़ दो, मरने के लिए तैयार हो जाओ।” ऐसा कहकर साधु चले गये।

लीला सेवा करने लगी, बच्चे अब चाचा, चाची के पास अधिक रहने लगे। ठीक एक वर्ष बाद पुनः लीला के पेट में पहले से जबरदस्त कैंसर हुआ, वही अस्पताल, वही वार्ड, संयोग से वही पलंग ! लीला ने अंतिम इच्छा बतायीः “मेरे भाई साहब को बुलाइये।”

साधु बहन के पास पहुँचे, पूछाः “क्या हाल है ?”

लीला एकदम शांत थी, उसने अपने भाई का हाथ अपने सिर पर रखा, वंदना की और बोलीः “भाई साहब ! मैं शरीर नहीं हूँ, मैं अमर आत्मा हूँ, मैं प्रभु की हूँ, मैं मुक्त हूँ….” कहते-कहते ॐकार का उच्चारण करके लीला ने शरीर त्याग दिया।

लीला के पति दुःखी होकर रोने लगे। साधु महाराज उन्हें समझाते हुए बोलेः “भैया ! क्यों रोते हो ? अब लीला का जन्म नहीं होगा, लीला मुक्त हो गयी।” फिर वे हँसे और दुबारा बोलेः “हम जिसका हाथ पकड़ लेते हैं, उसे मुक्त करके ही छोड़ते हैं।”

पति का दुःख कम हुआ। उन्होंने पूछाः “महाराज ! गत वर्ष लीला तत्काल ठीक कैसे हो गयी थी, आपने क्या किया था ?”

“गत वर्ष लीला ने बार-बार मुझसे पीड़ा या प्राण हर लेने के लिए प्रभु से प्रार्थना करने को कहा। मैंने प्रभु से कहाः ‘हे भगवान ! अब तक लीला मेरी बहन थी, इस क्षण के बाद वह आपकी बहन है, अब आप ही सँभालिये।’ प्रभु पर छोड़ते ही प्रभु ने अपनी बहन को ठीक कर दिया। यह है प्रभु पर छोड़ने की महिमा !”

इँसां की अज्म से जब दूर किनारा होता है।

तूफाँ में टूटी किश्ती का

एक भगवान सहारा होता है।।

ऐसे ही जब आपके जीवन में कोई ऐसी समस्या, दुःख, मुसीबत आये जिसका आपके हल न हो तो आप भी घबराना नहीं बल्कि किसी एकांत कमरे में चले जाना और भगवान, सदगुरु के चरणों में प्रार्थना करके सब कुछ उनको सौंप देना और शांत निर्भार हो जाना। फिर जिसमें आपका परम मंगल होगा, परम हितैषी परमात्मा वही करेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,  मई 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 281

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शुभ भाव व पवित्रता देने वाला पर्व


(रक्षाबन्धनः 29 अगस्त 2015)
राखी पूनम उच्च उद्देश्य से मन को बाँधने की प्रेरणा देने वाली पूनम है। बहन भाई के हाथ पर राखी बाँधती है। राखी महँगी है या सस्ती इसका महत्त्व नहीं है, सादी-सूदी राखी हो, सादा रंगीन धागा हो, चल जाता है। शुभ भाव को दिखावे में नहीं बदलना चाहिए बल्कि सात्त्विकता व पवित्रता का सम्पुट देना चाहिए।
बहन भावना करती है कि ‘मेरा भैया विमल विवेकवान हो।’ रक्षाबंधन महोत्सव फिसलते हुए आस-पड़ोस के युवक-युवतियों के लिए सुरक्षा की सुंदर खबर लाने वाला महोत्सव है। वयस्क बहन-भाई पड़ोस में रहें, हो सकता है कि ऊर्जा का स्रोत यौवन में विकारों की तरफ जोर मारता हो तो कहीं वे फिसल न जायें इसलिए पड़ोस की बहन पड़ोस के भाई को राखी बाँधकर अपनी तो सुरक्षा कर लेती है, साथ ही भाई के विचारों की भी सुरक्षा कर लेती है कि पड़ोस का भाई भी संयमी बने, सदाचारी बने, तेजस्वी बने, दिव्यता की तरफ चले।
राखी दिखता तो धागा है लेकिन उस धागे में संकल्पशक्ति होती है, शुभ भावना होती है। शची (इन्द्र की पत्नी) ने देखा कि इन्द्र दैत्यों के साथ जूझ रहे हैं, कहीं पराजय की खाई में न गिर जायें इसलिए शची ने इन्द्र को राखी बाँधी। अपना शुभ संकल्प किया कि ‘मेरे पतिदेव विजेता बनें।’
मेरे गुरुदेव (साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) अहमदाबाद पधारे थे, तब उनके चरणों में जूनागढ़ का एक प्राध्यापक और प्राचार्य आये। बोलेः “साँईं ! भाई तो बहन की रक्षा करे लेकिन हम भी तो रक्षा चाहते हैं। इन्द्र को युद्ध में विजय चाहिए लेकिन हमें तो विकारों पर विजय चाहिए। सद्गुरुदेव ! आप हमारी विषय-विकारों से रक्षा करते रहें। जब तक हम ईश्वर तक न पहुँचे, तब तक गुरुवर ! आप हमें सँभालना।
गुरु जी अमीरी संभाळ ले जो रे।
दिलड़ां मां रहीने दोरवणी देजो रे।।”
‘गुरु के दिव्य ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो, लाखों लोग गुरुदेव के दैवी कार्य से लाभान्वित हों’ ऐसा शुभ भाव मन ही मन करके साधक गुरु को राखी बाँध सकता है और गुरु भी शुभ संकल्प करें कि ‘इनकी विषय विकारों से, अविवेक व अशांति से सुरक्षा हो और विमल विवेक जागे।’
इस पूनम को ‘नारियली पूनम’ भी कहते हैं। सामुद्रिक धंधा करने वाले लोग जलानां सागरो राजा…. सारे जलाशयों में सागर राजा है…. इस भाव से नारियल अर्पण करते हैं कि ‘अगर आँधी-तूफान आये तो हमारी देह की बलि न चढ़े इसलिए हम आपको यह बलि अर्पण कर देते हैं।’ यह कृतज्ञता व्यक्त करने का भी उत्सव है।
ब्राह्मण ‘श्रावणी पर्व’ मनाते हैं और जनेऊ बदलते हैं। जनेऊ में तीन धागे होते हैं। 1-1 में 9-9 गुण… 9×3=27. प्रकृति के इन गुणों से और बंधनों से पार होने के लिए जनेऊ धारण किया जाता है। ‘जनेऊ का धागा तो भले पुराना हो गया इसलिए बदल देते हैं लेकिन हमारा उत्साह तो जैसे पूनम का चाँद पूर्ण विकसित है, ऐसे ही धर्म और कर्म में हमारा उत्साह बना रहे, साहस और प्रेम बना रहे’ – यह भावना करते हैं।
भद्राकाल के बाद ही राखी बँधवायें
जैसे शनि की क्रूर दृष्टि हानि करती है, ऐसे ही शनि की बहन भद्रा का प्रभाव भी नुकसान करता है। रावण ने भद्राकाल में सूर्पणखा से रक्षासूत्र बँधवा लिया, परिणाम यह हुआ कि उसी वर्ष में उसका कुल सहित नाश हुआ। भद्रा की कुदृष्टि से कुल में हानि होने की संभावना बढ़ती है। अतः भद्राकाल में रक्षासूत्र (राखी) नहीं बाँधना चाहिए।
(29 अगस्त 2015 को दोपहर 1-53 तक भद्राकाल है, इसके बाद ही राखी बाँधें।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 11, अंक 272
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