आत्मज्ञान के प्रकाश से अँधेरी अविद्या को मिटाओ

आत्मज्ञान के प्रकाश से अँधेरी अविद्या को मिटाओ


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मिथ्या प्रपंचच देख दुःख जिन आन जीय।

देवन को देव तू तो सब सुखराशि है।।

अपने अज्ञान ते जगत सारो तू ही रचा।

सबको संहार कर आप अविनाशी है।।

यह संसार मिथ्या व भ्रममात्र है लेकिन अविद्या के कारण सत्य भासता है। नश्वर शरीर में अहंबुद्धि तथा परिवर्तनशील परिस्थितियों में सत्यबुद्धि हो गयी है इसीलिए दुःख एवं क्लेश होता है। वास्तव में देखा जाये तो परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं लेकिन परिस्थितियों का जो आधार है, अधिष्ठान है वह नहीं बदलता।

ʹबचपन बदल गया। किशारावस्था बदल गयी। जवानी बदल गयी। अब बुढ़ापे ने घेर रखा है… लेकिन यह भी एक दिन बदल जायेगा। इन सबके बदलने पर भी जो नहीं बदलता, वह अबदल चेतना आत्मा ʹमैंʹ हूँ और जो बदलता है वह माया है….ʹ सदाचार व आदर के साथ ऐसा चिन्तन करने से बुद्धि स्वच्छ होती है और बुद्धि के स्वच्छ होने से ज्ञान का प्रकाश चमकने लगता है।

जिनके भाल के भाग्य बड़े, अस दीपक ता उर लसके।

ʹयह ज्ञान का दीपक उन्हीं के उर-आँगन में जगमगाता है, जिनके भाल के भाग्य-सौभाग्य ऊँचे होते हैं।ʹ उन्हीं भाग्यशालियों के हृदय में ज्ञान की प्यास होती है और सदगुरु के दिव्य ज्ञान व पावन संस्कारों का दीपक जगमगाता है। पातकी स्वभाव के लोग सदगुरु के सान्निध्य की महिमा क्या जानें ? पापी आदमी ब्रह्मविद्या की महिमा क्या जाने ? संसार को सत्य मानकर अविद्या का ग्रास बना हुआ, देह के अभिमान में डूबा हुआ यह जीव आत्मज्ञान की महिमा बताने वाले संतों की महिमा क्या जाने ?

पहले के जमाने में ऐसे आत्मज्ञान में रमण करने वाले महापुरुषों की खोज में राजा-महाराजा अपना राज-पाट तक छोड़कर निकल जाते थे और जब ऐसे महापुरुष को पाते थे तब उन्हें सदा के लिए अपने हृदय-सिंहासन पर स्थापित करके उनके द्वार पर ही पड़े रहते थे। गुरुद्वार पर रहकर सेवा करते, झाड़ू-बुहारी लगाते, भिक्षा माँगकर लाते और गुरुदेव को अर्पण करते। गुरु उसमें से प्रसाद के रूप में जो उन्हें देते, उसी को वे ग्रहण करके रहते थे। थोड़ा बहुत समय बचता तो गुरु कभी-कभार आत्मविद्या के दो वचन सुना देते। इस प्रकार वर्षों की सेवा-साधना से उनकी अविद्या शनैः-शनैः मिटती और उनके अंतर में आत्मविद्या का प्रकाश जगमगाने लगता।

आत्मविद्या सब राजाओं में सर्वोपरि विद्या है। अन्य विद्याओं में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियाँ बड़ी ऊँची चीजे हैं। पूरी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट से भी अष्टसिद्धि-नवनिधि का स्वामी बड़ा होता है लेकिन वह भी आत्मविद्या पाने के लिए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की शरण में रहता है।

हनुमान जी के पास अष्टसिद्धियाँ एवं नवनिधियाँ थीं फिर भी आत्मविद्या पाने के लिए वे श्रीरामजी की सेवा में तत्परता से जुटे रहे और अंत में भगवान श्रीराम द्वारा आत्मविद्या पाने में सफल भी हुए। इससे बड़ा दृष्टांत और क्या हो सकता है ? हनुमान जी बुद्धिमानों में अग्रगण्य थे, संयमियों में शिरोमणि थे, विचारवानों में सुप्रसिद्ध थे, व्यक्तियों को परखने में बड़े कुशल थे, छोटे बड़े बन जाना, आकाश में उड़ना आदि सिद्धियाँ उनके पास थीं, फिर भी आत्म-साक्षात्कार के लिए उन्होंने श्रीरामजी की जी-जान से सेवा की। हनुमान जी कहते हैं-

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम….

हनुमान जी की सारी सेवाएँ तब सफल हो गयीं जब श्रीरामजी का हृदय छलका और उन्होंने ब्रह्मविद्या देकर हनुमानजी की अविद्या को सदा-सदा के लिए दूर कर दिया।

मानव संसार को सत्य मानकर उसी में उलझा हुआ है और अपना कीमती जीवन बरबाद कर रहा है। जो वास्तव में सत्य है उसकी उसे खबर नहीं है और जो मिथ्या है उसी को सत्य मानकर, उसी में आसक्ति रखकर फँस गया है।

जो विद्यमान न हो किन्तु विद्यमान की नाईं भासित हो, उसको अविद्या कहते हैं। इस अविद्या से ही अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश पैदा होते हैं। अविद्या ही सब दुःखों की जननी है।

अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश-इनको ʹपंच-क्लेशʹ भी कहते हैं। पंच-क्लेश आने से षडविकार भी आ जाते हैं। उत्पत्ति (जन्मना), स्थिति (दिखना), वृद्धि (बढ़ना), रूग्णता (बीमार होना), क्षय (वृद्ध होना) और नष्ट होना – ये षडविकार अविद्या के कारण ही अपने में भासते हैं। इन षडविकारों के आते ही अनेक कष्ट भी आ जाते हैं और उन कष्टों को झेलने में ही जीवन पूरा हो जाता है। फिर जन्म होता है एवं वही क्रम शुरु हो जाता है। इस प्रकार एक नहीं, अनेकों जन्मों से जीव इसी श्रृंखला में, जन्म-मरण के दुष्चक्र में फँसा है।

गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक गंगा नदी में जितने रेत के कण होंगे उसे कोई भले ही गिन ले लेकिन इस अविद्या के कारण यह जीव कितने जन्म भोगकर आया है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

इस जन्म मरण के दुःखों  से सदा के लिए छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि अविद्या को आत्मविद्या से हटाने वाले सत्पुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए लग जाना चाहिए। जैसे, भूख को भोजन से तथा प्यास को पानी से मिटाया जाता है, ऐसे ही अज्ञान को, अँधेरी अविद्या को आत्मज्ञान के प्रकाश से मिटाया जा सकता है।

ब्रह्मविद्या के द्वारा अविद्या को हटाने मात्र से आप ईश्वर में लीन हो जाओगे। फिर हवाएँ आपके पक्ष में बहेंगी, ग्रह और नक्षत्रों का झुकाव आपकी ओर होगा, पवित्र लोकमानस आपकी प्रशंसा करेगा एवं आपके दैवी कार्य में मददगार होगा। बस, आप केवल उस अविद्या को मिटाकर आत्मविद्या में जाग जाओ। फिर लोग आपके दैवी कार्य में भागीदार होकर अपना भाग्य सँवार लेंगे, आपका यशोगान करके अपना चित्त पावन कर लेंगे। अगर अविद्या हटाकर उस परब्रह्म परमात्मा में दो क्षण के लिए भी बैठोगे तो बड़ी-से-बड़ी आपदा टल जायेगी।

जो परमात्मदेव का अनुभव नहीं करने देती उसी का नाम अविद्या है। ज्यों-ज्यों आप बुराइयों को त्यागकर उन्हें दुबारा न करने का हृदयपूर्वक संकल्प करके ब्रह्मविद्या का आश्रय  लेते हैं, ईश्वर के रास्ते पर चलते हैं त्यों-त्यों आपके ऊपर आने वाली मुसीबतें ऐसे टल जाती हैं जैसे कि सूर्य को देखकर रात्रि भाग जाती है।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! जिनको संसार में रहकर ही ईश्वर की प्राप्ति करनी हो, उन्हें चाहिए कि अपने समय के तीन भाग कर दें- आठ घंटे खाने-पीने, सोने नहाने-धोने आदि में लगायें, आठ घंटे आजीविका के लिए लगायें एवं बाकी के आठ घंटे साधना में लगायें…. सत्संग-सत्शास्त्र-विचार, संतों की संगति एवं सेवा में लगायें। जब शनैः शनैः अविद्या मिटने लगे तब पूरा समय अविद्या मिटाने के अभ्यास में लगा दें।”

इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के कृपा-प्रसाद को पचाकर तथा आत्मविद्या को पाकर अविद्या के अंधकार से, जगत के मिथ्या प्रपंच से सदा के लिए छूट सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 94

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *