श्रीकृष्ण अवतार का उद्देश्य-पूज्य बापू जी

श्रीकृष्ण अवतार का उद्देश्य-पूज्य बापू जी


(श्रीकृष्ण जन्माष्टमीः 14 अगस्त 2009)

मनुष्य जीवन कितना ऊँचा है कि वह भगवान का भी अवतरण करा सकता है । अपने अंतःकरण में भगवान का अवतरण, अपनी बुद्धि में भगवान का अवतरण, अपने ‘स्व’ में भगवान का अवतरण हो गया तो फिर साक्षात्कार हो जाता है । निष्काम कर्म करते हो तो कर्म में भगवान का अवतरण होता है और कर्म स्वार्थ से जुड़ा हो तो मनुष्य दुःख पाता है ।

मनुष्य को दुःख तीन बातों से होता है – एक कंस से दुःख होता है, दूसरा काल से और तीसरा अज्ञान से दुःख होता है । मथुरा के लोग कंस से दुःखी थे, यह संसार ही मथुरा है । कंस के दो रूप हैं – एक तो खपे-खपे (और चाहिए, और चाहिए….) में खप जाय और दूसरे का चाहे कुछ भी हो जाय, उधर ध्यान न दे । यह कंस का स्थूल रूप है । दूसरा है कंस का सूक्ष्म रूप – ईश्वर की चीजों में अपनी मालिकी करके अपने अहं की विशेषता मानना कि ‘मैं धनवान हूँ, मैं सत्तावान हूँ, मेरा राज्य है, मेरा वैभव है, मुझसे बड़ा कोई नहीं….।’ यह अंदर में भाव होता है ।

तीन भेद होते हैं समय, वस्तु और स्थान के कारण दुःख होना । जैसे – यह कलियुग का काल है, इस काल में अमुक-अमुक समय में, अमुक-अमुक वस्तु से, अमुक-अमुक स्थान में व्यक्ति दुःख पाता है । दूषित काल है, प्रदोषकाल है तो उस काल में व्यक्ति पीड़ा पाता है, दुःख पाता है । शराब का अड्डा है, वेश्यागृह है, झगड़ा करने वाले लोगों का संग है तो उस स्थान के कारण किसी को दुःख होता है । वस्तु से भी व्यक्ति दुःख पाता है । जैसे – शराब है, कबाब है और दूसरे हानि पहुँचाने वाले व्यसन आदि । फास्टफूड खा लिया तो आगे चलके बीमारी होगी । खूब नाचे फिर खड़े-खड़े ठंडा पानी पिया तो आगे चलकर पैरों की पिण्डलियाँ दर्द करेंगी । यह काल का दुःख है कि अभी तो कर लिया लेकिन समय पाकर दुःख होगा । अभी तो निन्दा कर ली, सुन ली लेकिन समय पाकर अशांति होगी, दुःख होगा, नरकों में पड़ेंगे, आपस में लड़ेंगे, उपद्रव होगा ।

तीसरा होता है अज्ञानजन्य दुःख । अज्ञान क्या है ? हम जो हैं उसको हम नहीं जानते और हम जो नहीं हैं उसको हम मैं मानते हैं तो

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।

‘अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ।’ (गीताः 5.15)

कितने बचपन आये, कितनी बार मृत्यु आयी, कितने जन्म आये और गये फिर भी हम हैं…. तो हम नित्य हैं, चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, अमर हैं । इस बात को न जानना यह अज्ञान है । इससे उलटा ज्ञान हो गया इसलिए हम जिस शरीर में आये उसी के कर्म और व्यवहार को सच्चा मानने लगे ।

तो कंस से, काल से और अज्ञान से छुटकारा – यह है श्रीकृष्ण-अवतार का उद्देश्य । श्रीकृष्ण कंस को तो मारते हैं, काल से अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और ज्ञान से अज्ञान हरके भक्तों को ब्रह्मज्ञान देते हैं । यह श्रीकृष्ण-अवतार है ।

श्रीकृष्ण-अवतार मतलब तुम्हारे हृदय में भगवदावतार कैसे हो ? यह जन्माष्टमी का पर्व सत्संग के द्वारा तुम्हारे हृदय में श्रीकृष्ण अवतार कराना चाहता है, तुम्हारा कितना सौभाग्य है ! श्रीकृष्ण नाम का अर्थ क्या है ? कर्षति आकर्षति इति कृष्णः । जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आनंदित कर दे उसको कृष्ण बोलते हैं । आप सुख और आनंद से कर्षित होते हैं और जहाँ-जहाँ, जिस-जिस में सुख होता है, उस-उस अवस्था से आप आकर्षित होते हैं और उस-उस परिस्थिति से आप आनंदित होते हैं । श्रीकृष्ण का यह बाह्य अवतार कर्षित-आकर्षित, आनंदित करने वाला है और श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप सत्संग से समझ में आता है । श्रीकृष्ण बंसी बजाते हैं तो सब कर्षित-आकर्षित होते हैं और फिर कुछ लीला करते हैं तो आनंदित होते हैं । ऐसा हो-होके बदल जाता है लेकिन श्रीकृष्ण का तात्त्विक अवतार अर्जुन के अंतःकरण में हुआ तो अर्जुन सदा के लिए पार हो गये । जिस-जिस गोपी के अंतःकरण में श्रीकृष्ण का तात्त्विक अवतरण हुआ, वे सब सदा के लिए पार हो गयीं ।

तो हम कंस में फँसे हैं, काल से फँसे हैं, अज्ञान से फँसे हैं और इनको निवृत्त करने के लिए श्रीकृष्ण अवतार चाहिए ।

‘पातंजल योगदर्शन’ के ‘व्यासभाष्य’ में व्यास जी ने लिखा हैः

नानुपहत्य भूतानि उपभोगः सम्भवतीति ।

‘प्राणियों को हानि पहुँचाये बिना उपभोग कभी संभव नहीं हो सकता ।’ (यो.द.सा.प. – 15)

‘दूसरों का जो होने वाला हो, हो लेकिन मेरे को भोग मिले, यश मिले, पद मिले, सब कुछ मैं-ही-मैं हो जाऊँ’ – इसी वृत्ति का नाम है कंस । यहाँ तक कि ग्वाल-गोपियाँ अपने बच्चों को मक्खन नहीं दे सकते थे, कंस का इतना आतंक था । अपने भोग के लिए, अपनी सत्ता के लिए, अपनी अहंता के लिए कुछ भी करने को तैयार – वह है कंस और सभी के मंगल के लिए, माधुर्य जगाने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े, उसके लिए जो हमेशा तैयार है – उसका नाम है कृष्ण । ‘बहुजनहिताय-बहुजन सुखाय’ व्यापक जनसमाज के विकास के लिए चाहे नंद बाबा का बेटा बनना पड़े, चाहे वसुदेव का बेटा बनना पड़े, चाहे दशरथनंदन बनना पड़े, चाहे किसी संतरूप में किसी माई का और बाबा का बेटा कहलाना पड़े, चाहे निंदा हो, चाहे आरोप लगें फिर भी लोक-मांगल्य करता है – यह संत अवतरण है ।

तो अब क्या करना है ? अपना उद्देश्य बना लें कि हमारे अंतःकरण में श्रीकृष्ण अवतार हो, भगवदावतार हो, भगवद्ज्ञान का प्रकाश हो, भगवत्सुख का प्रकाश हो तो भगवदाकार वृत्ति पैदा होगी । जैसे घटाकार वृत्ति से घट दिखता है, ऐसे ही भगवदाकार वृत्ति बनेगी, ब्रह्माकार वृत्ति बनेगी तब ब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार होगा । तो भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रेम और भगवद्विश्रांति सारे दुःखों को सदा के लिए उखाड़ के रख देगी । इसलिए ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनना चाहिए, उसका निदिध्यासन करके विश्रांति पानी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 200

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