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सर्वसमर्थ आत्मदेव


पूज्य बापू जी

(संत रविदास जयंतीः 7 फरवरी)

मंदिरों में, पूजा-पाठ में, इधर-उधर जा-जाकर आखिर उस प्रेमस्वभाव अपने अंतरात्मा में आये, हृदय ही प्रेम से भरपूर मंदिर बन जाय तो समझो हो गयी भक्ति, हो गया ज्ञान, हो गया ध्यान ! ऐसी भक्ति जिनके जीवन में हो, वे चाहे किसी भी उम्र के हों, किसी जाति के हों, किसी मत, पंथ, महजब के हों, वे सम्मान के योग्य हैं, पूजने योग्य हैं।

चित्तौड़ के राणा ने भगवान श्रीकृष्ण का एक मंदिर बनवाया। फिर सोचा कि ʹमंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा किसके हाथों की जाय ?ʹ विचार विमर्श के बाद राणा को लगा कि संत रविदास जी को ही आमंत्रित किया जाये। आमंत्रण भेजा गया और राणा का आमंत्रण संत रविदास जी ने स्वीकार भी कर लिया।

प्राण-प्रतिष्ठा के निर्धारित दिन से पहले ही संत रविदास जी चित्तौड़गढ़ पहुँच गये। अपने शरीर को, जाति को ही विशेष मानने वाले ब्राह्मणों के जमघट ने आपस में कानाफूसी कीः ʹयह तो अनर्थ हो रहा है ! रविदास जाति का चमार है और वह भगवान की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करेगा ! जूता सीने वाले व्यक्ति के हाथ से श्रीकृष्ण की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा ! कौन जायेगा मंदिर में ? वैदिक मंत्रोच्चारण करने वाले ब्राह्मण से प्राण-प्रतिष्ठा करानी चाहिए। पर राजा का विरोध करना भी सहज नहीं है। अब क्या करें ?ʹ

चित्तौड़ के राणा के कान भरे गये कि ʹयह अनर्थ हो जायेगा !ʹ

राणा ने कहाः “जो भगवान के प्रेमी भक्त हैं, उन भक्तों की, संतों की जाति नहीं होती। संत की जाति क्यों मानते हो ?”

ब्राह्मणों ने देखा कि राजा रविदास के प्रभाव में है लेकिन हमें भी अपना तो कुछ करना पड़ेगा। जिस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा होने वाली थी, उसे अपनी व्यूह रचना से चुरा लिया।

जब प्राण-प्रतिष्ठा का मौका आया तो वह मूर्ति नहीं है ! हाहाकार मच गया। राणा बड़े चिंतित हो गये क्योंकि राज्य की इज्जत का सवाल है। ब्राह्मण लोग राणा के पास आये और बोलेः “आप कहते हो कि रविदास श्रेष्ठ संत हैं। अगर वे ऐसे हैं तो भगवान की मूर्ति को प्रकट करके दिखाएँ। फिर हम लोग उनके हाथों प्राण-प्रतिष्ठा कराने का विरोध नहीं करेंगे।”

राणा ने रविदासजी से प्रार्थना कीः “महाराज ! जिस मूर्ति की आप प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले हैं, वह अदृश्य हो गयी है। अब इस समस्या का समाधान राज्यसत्ता से नहीं हो सकता। साम, दाम, दंड, भेद से यह काम  नहीं हो सकता है। केवल आप जैसे संत-महापुरुष चाहें तो राज्य की इज्जत बचा सकते हैं। अन्यथा शत्रु राजाओं को भी मेरी खिल्ली उड़ाने का अवसर मिलेगा।”

रविदास जी ने कहाः “इस छोटी सी बात के लिए चिंता क्यों करते हो, ठीक है, मिल जायेगी। मंदिर के द्वार बंद करवा दो।”

रविदास जी शांत हो गये, “भगवान हैं और वे सर्वसमर्थ हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, प्रेमस्वरूप हैं, सौंदर्य के भंडार हैं, ʹकर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्ʹ सामर्थ्य के धनी हैं। फिर चिंता किस बात की ? हमारा चित्त समर्थ के हाथों में है, पूर्ण के हाथों में है।ʹ

चित्त को उस चैतन्यस्वरूप प्रभु की स्मृति में लगाकर रविदास जी एकांत में बैठ गये। कोई भी बड़े-में-बड़ी समस्या आ जाय तो आप समस्या को अधिक महत्त्व न देना, सृष्टिकर्ता को महत्त्व देना। आप अपने अहं को महत्त्व न देना, परमात्मा को महत्त्व देना। अहं हार मान ले और परमात्मा की श्रेष्ठता, समर्थता स्वीकार कर ले तो प्रार्थना फलने में देर नहीं होती।

रविदास जी ने ध्यानस्थ होकर प्रार्थना कीः “महाराज ! आपकी मूर्ति इन हठी ब्राह्मणों ने कहाँ रखी है यह हम नहीं जानते। अब वह मूर्ति कैसे लायी जाय यह भी हमें पता नहीं लेकिन महाराज ! आप इतने ब्रह्माण्ड बना लेते हो तो अपने-आपकी मूर्ति मंदिर में स्थित कर दो न ! महाराज ! लाज रखो राज्य की और अपने रविदास की, महाराज ! प्रभु जी ! नमो भगवते वासुदेवाय….

जो सब जगह बस रहा है, उस परमेश्वर को मैं नमन करता हूँ। जो सबका अंतरात्मा है, जो दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं और सदा सबका प्यारा है, उसको मैं नमन करता हूँ। ૐ… ૐ… प्रभु जी ! हे आनन्ददाता, ज्ञानदाता ! कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्। हे देव!

श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे !

हे नाथ नारायण वासुदेवा !….ʹ

प्रीतिपूर्वक भगवान की स्मृति करते-करते अपने संकल्प को भगवान में विलय कर देना ही सच्ची प्रार्थना है।

कुछ समय बीतने के बाद रविदास जी को संतोष हुआ, अंतरात्मा में प्रेरणा हुई कि ठाकुर जी आ गये हैं।

रविदासजीः “महाराज ! शहनाइयाँ, बिगुल, बाजे आदि बजवाओ। भगवान पधार गये हैं।”

राणाः “मूर्ति मिल गयी ?”

“अरे, मिल क्या गयी, भगवान आ गये हैं !”

“कैसे, कौन उठा लाया ?”

“ये उठा के लाने वाले भगवान नहीं, स्वयं आने वाले भगवान हैं।”

मंदिर के कपाट खोले तो… ʹओ हो, ठाकुर जी मूर्ति ! जय हो, कृष्ण-कन्हैया लाल की जय !ʹ रविदास जी ने विधिवत मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की। ब्राह्मणों ने रविदास जी का जयघोष किया, कृष्णजी का जयघोष किया। प्राण-प्रतिष्ठा के निमित्त उत्सव हुआ। उत्सव के बाद भोजन होता है। भोजन में बहुत से पकवान एवं व्यंजन बने-घी के लड्डू, चावल, दाल, सब्जी आदि।

राणा ने कहाः “ऐसे महापुरुष हमारे बीच में ही भोजन करेंगे।”

ब्राह्मणों ने कहाः “हद हो गयी ! फिर वही चमार हमारे साथ आ के भोजन करेगा ! यह कैसा आदमी है ! जहाँ रविदास बैठेंगे, वहाँ हम नहीं खायेंगे।”

रविदास जी के कान में बात गयी। रविदासजी ने सोचा, ʹराजा की बाजी बिगड़ेगी।ʹ उन्होंने कहाः “नहीं-नहीं, मैं ब्राह्मणों के बीच बैठने के योग्य नहीं हूँ। ब्राह्मण देवता हैं, जन्मजात शुद्ध हैं, और भी इनके वैदिक कर्म हैं। मैं इनके बीच नहीं बैठूँगा। मैं मंदिर परिसर के बाहर रहूँगा। ब्राह्मणों का भोजन आदि हो जायेगा, बाद में जब मुझे आज्ञा मिलेगी तब मैं आऊँगा। उनकी पत्तलें आदि उठाऊँगा, जो भी सेवा होगी करूँगा।”

रविदास जी बाहर चले गये। मंदिर के परिसर में ब्राह्मणों की कतारें लगीं, भोजन परोसा गया। और ज्यों ही वे लोग ʹनमः पार्वतीपते ! हर हर महादेव !ʹ करके ग्रास लेने लगे, त्यों ही एक ब्राह्मण ने दायीं ओर देखा कि ʹरविदास तो इधर बैठा है ! उसने बोला था बाहर चला जाता हूँ।ʹ बायीं ओर देखा तो उधर भी रविदास ! एक को नहीं, सभी ब्राह्मणों को ऐसा दिख रहा था। अपने को छोड़ के सब रविदास, रविदास ! ब्राह्मण चौंके। इतने सारे रविदास ! कहाँ से आ गये ?

तुम्हारे आत्मा में कितना सामर्थ्य है, कितनी शक्ति है ! अगर योग-सामर्थ्य, ध्यान के अभ्यास से आप अपनी गहराई में जाओ तो आपको ताज्जुब होगा कि “मैं फालतू गिड़गिड़ा रहा था – नौकरी मिल जाय, नौकर बन जाऊँ….. प्रमाणपत्र मिल जाय, ऐसा बन जाऊँ – वैसा बन जाऊँ….ʹ

अरे, तू जो है उसमें गोता मार !

आठवें अर्श1 तेरा नूर चमकदा, होर2 भी उचा हो।।

फकीरा ! आपे अल्लाह हो।

1.आकाश। 2. और।

तेरा खुद खुदा आत्मदेव है। कुछ ब्राह्मण चौकन्ने होकर मंदिर-परिसर से बाहर गये। देखा तो रविदास तो ब्राह्मणों के जूते साफ कर रहे हैं।

ब्राह्मण बोलेः “क्या तुम अंदर घुस गये थे ? हम भोजन कर रहे थे तब तुम हमारे बीच बैठ गये थे क्या ?”

“नहीं-नहीं, मैं तो यही हूँ।”

ब्राह्मणों ने सोचा, ʹयह सच्चा कि वह सच्चा ?ʹ

महाराज ! सच्चा तो वह परमेश्वर है। परमेश्वर जिसको अपना मान लेता है, जो प्रीतिपूर्वक भगवान को भजता है उसको भगवान बुद्धियोग तो देते ही हैं, साथ में अपना सामर्थ्य-योग भी दे देते हैं। उस दाता को देने में कोई देर नहीं लगती। किसको, कब, कहाँ से उठाकर कहाँ पहुँचा दे !

ब्राह्मणों की बुद्धि का प्रेरक, रविदासजी की बुद्धि का प्रेरक ऐसी लीला रचकर हम सबकी आध्यात्मिकता की तरफ चलने की योग्यता भी तो जगा रहा है ! यदि ब्राह्मण ऐसा नहीं करते तो रविदास जी का नाम नहीं चमकता। इस प्रसंग से आने वाली पीढ़ियों को प्रभुप्राप्ति, प्रभुविश्वास की प्रेरणा भी मिली।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 6,7,8 अंक 229

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माता-पिता व सदगुरु की महत्ता


(मातृ-पितृ पूजन दिवसः 14 फरवरी)

धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्मजी से पूछाः ʹʹपितामह ! धर्म का रास्ता बहुत बड़ा है और उसकी अनेक शाखाएँ हैं। उनमें से किस धर्म को आप सबसे प्रधान एवं विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं, जिसका अनुष्ठान करके मैं इस लोक व परलोक में भी धर्म का फल पा सकूँगा ?”

भीष्मजी ने कहाः

मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।

इह युक्तो नरो लोकान् यशश्च महदश्नुनुते।।

ʹराजन्, मुझे तो माता-पिता तथा गुरुओं की पूजा ही अधिक महत्त्व की वस्तु जान पड़ती है। इस लोक में इस पुण्यकार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान यश और श्रेष्ठ लोक पाता है।ʹ

(महाभारत, शांति पर्वः 108.3)

दस श्रोत्रियों (वेदवेत्ताओं) से बढ़कर है आचार्य (कुलगुरु), दस आचार्यों से बड़ा है उपाध्याय (विद्यागुरु), दस उपाध्यायों से अधिक महत्त्व रखता है पिता और दस पिताओं से भी अधिक गौरव है माता का। माता का गौरव तो सारी पृथ्वी से बढ़कर है। मगर आत्मदेव का उपदेश देने वाले गुरु क दर्जा माता-पिता से बढ़कर है। माता-पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देते हैं किंतु आत्मतत्त्व का उपदेश देने वाले आचार्य द्वारा जो जन्म होता है, वह दिव्य है, अजर-अमर है।

यश्चावृणोत्यवितथेन कर्मणा।

ऋतं ब्रुवन्नमृतं सम्प्रयच्छन्।

तं वै मन्येत पितरं मातरं च

तस्मै न द्रुह्येत कृतमस्य जानन्।।

ʹजो सत्यकर्म (और यथार्थ उपदेश) के द्वारा पुत्र या शिष्य को कवच की भाँति ढँक लेते हैं, सत्यस्वरूप वेद का उपदेश देते हैं और असत्य की रोकथाम करते हैं, उन गुरु को ही पिता और माता समझे और उनके उपकार को जानकर कभी उनसे द्रोह न करे।ʹ (महाभारत, शांति पर्वः 108.22)

जिस व्यवहार से शिष्य अपने गुरु को प्रसन्न कर लेता है, उसके द्वारा परब्रह्म परमात्मा की पूजा सम्पन्न होती है, इसलिए गुरु माता-पिता से भी अधिक पूजनीय हैं। गुरुओं के पूजित होने पर पितरों सहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते हैं, इसलिए गुरु परम पूजनीय हैं।

जो लोग मन, वाणी और क्रिया द्वारा गुरु, पिता व माता से द्रोह करते हैं, उऩ्हें गर्भहत्या का पाप लगता है, जगत में उनसे  बढ़कर और कोई पापी नहीं है। अतः माता, पिता और गुरु की सेवा ही मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मों का अनुसरण करके यहाँ सबका सार बताया गया है।”

(महाभारत के शांति पर्व से)

क्या अपना कल्याण चाहने वाले आज के विद्यार्थी, युवक-युवतियाँ भीष्मजी के ये शास्त्र-सम्मत वचन बार-बार विचारकर अपना कल्याण नहीं करेंगे !ʹ ʹगर्भहत्यारों की कतार में आना है या श्रेष्ठ पुरुष बनना है ?ʹ – ऐसा अपने-आपसे पूछा करो। अब भी समय है, चेत जाओ ! समय है भैया !….. सावधान !!…

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

ऐसे सदगुरुओं का सान्निध्य पाकर अनंत पद में प्रवेश करो तो आपकी सात पीढ़ियाँ भी तर जायेंगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 11, अंक 229

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देवत्व जागरण की चाह


(नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जयंतीः 23 जनवरी)

कटक नगर में एक बालकर शिबू अक्सर अपनी माँ प्रभावती के साथ मंदिरों में देव-दर्शन के लिए जाता था। एक दिन वे शिवरात्रि को दर्शन करने गये। खूब सर्दी पड़ रही थी। मंदिर में भगवान आशुतोष की भव्य मूर्ति देखकर शिबू ने माँ से पूछाः “अम्मा ! क्या भगवान शंकर को सर्दी नहीं लगती, जो ऐसी ठंड में भी नंगे बदन बैठे हैं ?”

माँ बोलीः “नहीं बेटा ! उन्हें सर्दी नहीं लगती। वे तो सदा कैलास पर्वत पर निवास करते हैं। वे तो भोले नाथ हैं, भक्तों के दुःख दूर करते हैं।”

“अम्मा ! वहाँ तो इससे भी ज्यादा ठंड होती है, फिर ये इतनी ठंड कैसे सहन कर लेते हैं ?”

“हाँ बेटे ! ठंड तो वहाँ इससे बहुत अधिक होती है किंतु भगवान शंकर तपस्या करते हैं इसलिए उन्हें सर्दी नहीं लगती। तपस्या से उनका देवत्व जाग उठा है, अतः वे लोगों के कष्ट दूर करने में भी पूरी तरह समर्थ हैं।”

“तो अम्मा ! आपका प्यारा बेटा शिबू भी तपस्या करके अपना देवत्व जागृत करने की कोशिश में आज से ही लग जायेगा।”

“ठीक है, जो तुम चाहो वही करना लेकिन अभी तो भगवान के दर्शन करो और उनकी स्तुति करो।” माँ ने बात टाल दी।

एक दिन माँ उसे संतों-महापुरुषों की कहानियाँ सुना रही थी कि कैसे हमारे महापुरुषों ने समाज-सेवा में ही अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसी कारण आज वे संसार में श्रद्धा, प्रेम व सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं।

उन कहानियों से उत्साहित होकर शिबू बोलाः “तो अम्मा ! आपका प्यारा बेटा शिबू भी सेवा करने में किसी से पीछे नहीं रहेगा। मैं भी जरूरतमंद लोगों की सेवा करूँगा।”

देवीस्वरूपा उस माँ ने अपने लाडले को और भी प्रोत्साहित कियाः “हाँ बेटे ! अच्छे बालक सदैव अपना कुछ समय बचाकर सेवाकार्यों में लगाते हैं।”

अब तो शिबू की दिनचर्या विलक्षण ही हो गयी। ठंड में भी कभी वह कम-से-कम कपड़े पहन कर पूजा-अर्चना करने का अभ्यास करता। कभी जेब-खर्च से दवाई, फल आदि खरीद कर अस्पताल के रोगियों में बाँटता। किसी मोहल्ले में गंदगी देखता तो अपने हम उम्र साथियों को बुलाकर सफाई करने में जुट जाता। यह बात उसके पिता जानकीनाथ तक पहुँची। वे चिंता में पड़ गये। एक दिन उन्होंने शिबू को प्यार से समझायाः “बेटा शिबू ! तुम्हारी उम्र अभी पढ़ने की है। तुम्हें सिर्फ पढ़ने और खेलने से ही सरोकार होना चाहिए। तुम अभी से सेवा की आड़ में आवारागर्दी करने लगे हो, यह बात ठीक नहीं है।”

शिबू ने साहस एवं विनम्रतापूर्वक जवाब दियाः “नहीं पिता जी ! मैं जरा भी आवारागर्दी नहीं कर रहा हूँ। हाँ, जहाँ तक पढ़ने का ताल्लुक है, मैं पढ़ने के समय पढ़ता हूँ, खेलने के समय खेलता हूँ और इनसे समय बचाकर कुछ समाज-सेवा भी कर लेता हूँ। जिस समाज से मैंने शिक्षा और आपने इज्जत पायी, उसकी सेवा करना हमारा फर्ज है न पिता जी !”

जानकीनाथ कुछ क्षण अपने लाल की ओर अपलक नेत्रों से निहारते ही रहे। फिर पूछाः “और कभी सर्दी में कपड़े उतारकर तुम कौन सी साधना करते हो ?”

“पिता जी ! मैं हर परिस्थिति में सम रहने की आदत का विकास करना चाहता हूँ। जब हमारे महापुरुष, हमारे देवता कठोर जीवन अपनाकर, सेवा करके अपने देवत्व की मनोवृत्ति को विकसित कर सकते हैं तो मैं क्यों पीछे रहूँ ! पिताजी ! मैं अपने भीतर देवत्व की गरिमा, देवत्व के आदर्शों को विकसित करने का प्रयत्न करूँगा। मैं अभी से उसी अभ्यास में जुट गया हूँ।”

यही दृढ़निश्चयी बालक शिबू आगे चलकर नेता जी सुभाषचन्द्र बोस कहलाया, जिन्होंने युवकों को जागृत कर देश के लिए एक समर्पित पीढ़ी तैयार की।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 229

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