इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता….

इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता….


 

सिख समाज के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव जी बचपन से ही धार्मिक कार्यों और सत्संगियों की सेवा में रूचि लेते थे। अर्जुनदेव अपने पिता गुरु रामदास जी से पिता के नाते उतना लगाव नहीं रखते थे, जितना गुरु के नाते रखते थे। एक भी क्षण के लिए वे अपने गुरु रामदास जी से दूर होना नहीं चाहते थे। गुरु राम दास जी ने अपने पुत्र अर्जुन देव में सेवा, गुरुचरणों में समर्पण, अधिकार नहीं कर्तव्य में रूचि, आज्ञापालन में निष्ठा आदि सदगुणों को देख के यह निश्चय कर लिया था कि ‘गुरुगद्दी का अधिकारी तो अर्जुनदेव ही हो सकता है।’ इसलिए उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया।
एक बार गुरु रामदासजी के पास उनके एक संबंधी का संदेश आया कि ‘मेरे पुत्र का विवाह है। आप इस अवसर पर लाहौर अवश्य पधारें।’ गुरु रामदास जी ने अपने बड़े बेटे पिरथीचंद को वहाँ जाने के लिए कहा तो पिरथीचंद ने अपने पीछे कहीं छोटे भाई अर्जुनदेव को गुरुगद्दी न सौंप दी जाय इस भय से मना कर दिया। तब गुरु जी ने दूसरे बेटे बाबा महादेव जी को वहाँ जाने के लिए कहा उन्होंने भी मना कर दिया क्योंकि उन्हें संसारी बातों में रूचि नहीं थी। तब रामदास जी ने अर्जुनदेव जी कहाः “बेटा ! तुम लाहौर जाओ और जब तक मैं न बुलाऊँ, तुम वहीं रहना।”

अर्जुनदेव जी गुरुआज्ञा पाते ही लाहौर निकल पड़े। विवाह-कार्य सम्पन्न हुआ। 3-4 महीने हो गये लेकिन अभी तक गुरु जी की ओर से न कोई पत्र आया न ही बुलावा। उनको 4 महीने का बिछुड़ना 4 युगों के समान प्रतीत होने लगा। गुरुदेव के बिना एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया तब अर्जुनदेव जी ने गुरु जी को पत्र लिखाः

मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई।
बिलप करे चात्रिक की निआई।…..

‘हे गुरु जी ! आपके दर्शन के लिए मेरा मन व्याकुल है और चातक की तरह विलाप करता है। हे संतजनों के प्यारे ! आपके दर्शन के बिना प्यास नहीं बुझती।’

यह पत्र पिरथीचंद के हाथ लगा। उन्होंने उसके गुरु जी तक इस डर से नहीं पहुँचने दिया कि कहीं गुरुजी उनको बुला न लें। 10-12 दिन हुए, गुरु जी की ओर से कोई पत्र न आया। अर्जुन देव जी ने दूसरा पत्र लिखाः

तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी।……

‘आपका मुख शोभनीय है और वाणी सहज अर्थात् शांतिरूप है। हे सारंगपाणि ! आपके दर्शन किये चिरकाल हो गया है। हे मेरे प्रभु ! मेरे मित्र ! सज्जन ! यह स्थान धन्य है जहाँ आप बस रहे हैं !’

यह पत्र भी पिरथीचंद को मिल गया, उन्होंने वह पत्र भी छुपा लिया। इधर अर्जुनदेव जी की व्याकुलता बढ़ती गयी। उन्होंने कुछ समय पश्चात् तीसरा पत्र लिखकर जिस सिख के हाथ भेजा, उससे कहा कि वह उसे गुरु जी के सिवा किसी को न दे। उसमें लिखा थाः

इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता।…..

‘एक घड़ी दर्शन न होने पर तो समय कलियुग सा लगता है लेकिन हे प्यारे ! अब आपको कब मिलूँगा ? हे गुरु ! आपका दरबार देखे बिना मुझे नींद नहीं आती और न ही मेरी रात्रि बीतती है। मैं तन, मन और वाणी से उस गुरु पर बलिहारी जाता हूँ, जिसका दरबार सच्चा है।’

सिख ने वह पत्र सीधा गुरु रामदास जी को दिया। गुरु जी ने अर्जुन देव का पत्र पढ़ा, उनके आँसू बह निकले। अर्जुनदेव जी का त्याग एवं समर्पण देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। पत्र पर तीन का अंक देखकर सिख से पूछाः “दूसरे दो पत्र कहाँ हैं ?” सिख ने उत्तर दियाः “मैंने वे पत्र तो पिरथीचंद को दिये थे।”

गुरु जी ने पिरथीचंद को बुलाकर पूछा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। अंतर्यामी गुरु जी ने अपने सेवक को कहाः “जाओ, पिरथीचंद की कोट की जेब में दोनों पत्र पड़े हैं, उनको ले आओ।” सिख जाकर पत्र ले आया।

पिरथीचंद शर्माये। उन्होंने कहाः “पिता जी ! वे पत्र मेरे द्वारा लिखे गये हैं।”

गुरु जी ने अर्जुनदेव जी को बुलवा लिया। फिर दोनों से कहाः “इस वाणी की तीन सीढ़ियाँ (पंक्तियाँ) हैं, जो इसकी चौथी सीढ़ी का उच्चारण करेगा, उसी की पहली तीनों सीढ़ियाँ समझी जायेंगी।”

पिरथीचंद तो झूठ बोला था, उनसे तो वाणी उच्चारित नहीं हो सकी। अर्जुनदेव जी ने चौथी सीढ़ी का उच्चारण करते हुए कहाः

भागु होआ गुरि संत मिलाइआ।
प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ।….

‘जब पुण्यों का प्रभाव हुआ, सौभाग्य हुआ तब संतों ने आप ही गुरु से मिलाप करा दिया और अब (आपकी कृपा से) अविनाशी प्रभु अंतःकरण रूपी घर में प्राप्त हुआ है। अब प्रार्थना है कि आपकी सेवा करते हुए पलभर भी न बिछड़ूँ। मैं आपका दास हूँ।’

गुरु राम दास जी बहुत प्रसन्न हुए और अर्जुनदेव जी को गले लगाकर बोलेः “बस बेटा ! तुम ही गुरु की पदवी के योग्य हो।” अर्जुनदेव जी गुरु के प्रति तड़प जल्दी ही उन्हें गुरु के निकट ले आयी।

जब बच्चा झूठमूठ में रोता है तो माँ ध्यान न भी दे लेकिन जब वह माँ के लिए सचमुच तड़पता है तो माँ उससे दूर नहीं रह पाती, तो हजारों माताओं की करुणा जिनके हृदय में होती है, ऐसे सदगुरु के लिए शिष्य के लिए हृदय में सच्ची तड़प जग जाय तो वे भला दूर कैसे रह सकते हैं !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 274
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