श्री रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़ जी काकभुशुंडिजी से पूछते हैं- ‘कौन सा दुःख सबसे बड़ा है ? आप संत और असंत के मर्म (भेद) को जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिये। श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन-सा है और सबसे भयंकर पाप कौन सा है ?
काकभुशुंडिजी कहते हैं- “हे तात ! बड़े आदर के साथ और प्रेम से सुनो। दरिद्रता (अज्ञान) से बढ़कर दुःख संसार में कोई नहीं है। संसार में जो आसक्ति है, यही सभी दुःखों का कारण है और संत-मिलन के समान जगत में कोई दूसरा सुख नहीं है। हे गरुड़ ! मन, वचन, शरीर से दूसरे पर उपकार करना संत का सहज स्वभाव है। संत दूसरे के हित के लिए दुःख सहते हैं और असंत, अभागी दूसरे को दुःख देने के लिए सब कुछ करते हैं।”
दुष्ट बिना स्वार्थ के भी दूसरे को हानि पहुँचाता है। जैसे साँप डंक मारता है तो उसको कुछ खाने-पीने को मिलता है ? बस, दूसरे के अंदर जहर डालता है। चूहा भी दूसरों का कपड़ा काट देता है तो क्या उसका पेट भरता है ? नहीं, वह निरर्थक दूसरों को हानि पहुँचाता है। ओले बरसकर गेहूँ चने को नष्ट करके स्वयं धरती में मिट्टी में मिल गये, दुष्ट का भी जन्म जगत के अनर्थ के लिए है।
‘संत उदय संतत सुखकारी ‘ संत का उदय, जन्म, अभ्युदय हमेशा वैसे ही सुखकारी होता है जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय लोगों के लिए हितकारी है।
‘परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा’ – श्रुति विदित परम धर्म है दूसरे को कष्ट नहीं पहुँचाना, जानबूझकर किसी को तकलीफ न देना। दूसरे की निंदा करने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। जो भगवान और गुरु की निंदा करता है, वह मेंढक होता है। टर्र… टर्र….. तो बहुत करे लेकिन ऐसी जीभ का क्या होना और क्या न होना ! जीभ निंदा करने के लिए नहीं मिली है, यह तो भगवद्-गुणानुवाद के लिए मिली है। ब्राह्मण (ब्रह्म में रमण करने वाले संत-महापुरुषों) का निंदक बहुत नरक-भोग के बाद कौए का शरीर धारण करके संसार में पैदा होता है और व्यर्थ काँव-काँव करता है क्योंकि पहले जो बोलने की शक्ति मिली थी, वह तो निंदा करने में खर्च कर दी।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी।
रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत।
मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
‘जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोहरूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है।’
जो मूर्ख मनुष्य सबकी निंदा करते हैं वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। कैसी भयंकर दुर्गति होती है निंदा करने वालों की !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 8, अंक 274
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