तेरी मर्जी पूरण हो

तेरी मर्जी पूरण हो


पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से

आत्मा अचल है, परमात्मा अचल है । तुम अचल से मिलो । तुम तिनके की नाईं अपने को कितना बहा रहे हो – जरा सा मनचाहा नहीं हुआ तो अशांति…. जरा विकार को पोषण नहीं मिला तो अशांति…. जरा सा अहं को पोषण नहीं मिला तो अशांति, दुःख…. जरा सा किसी नौकर ने सलाम नहीं मारा तो अशांति… जरा किसी ने तुम्हारी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ नहीं भरी तो अशांति…. छोटी-छोटी बात में तुम कितने छोटे हो जाते हो !

तुम जैसा चिंतन करते हो वैसा तुम्हारा चित्त हो जाता है ।  इसलिए कृपा करके तुम भगवद्चिंतन करो । सुबह उठो और स्मरण करो कि ‘मेरे हृदय में भगवान है । बाहर घूमूँगा लेकिन उसी की सत्ता से । बार-बार उसी में आऊँगा ।’ श्वासोच्छवास में अजपा गायत्री को जपो । नामदान के वक्त जो युक्तियाँ बतायी थीं, उनका अभ्यास करो । व्यवहार के हरेक घंटे में 2-5 मिनट आत्मविश्रांति का अभ्यास करो ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (8.8) में कहा हैः

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।

‘हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी और न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।’

अभ्यास को योग में बदल दो । तुम्हारा चित्त अन्यगामी मत होने दो, चित्तवृत्ति अन्य-अन्य व्यक्तियों में जायेगी, अन्य-अन्य व्यवहार में जायेगी लेकिन अन्य-अन्य की गहराई में जो भगवान छुपा है वह अनन्य है, बार-बार उसी का स्मरण करो ।

टयूबलाइट अलग है, पंखा अलग है, मोटर पंप अलग है, फ्रिज अलग है लेकिन है तो सबसे बिजली की सत्ता, ऐसे ही सबमें मेरा प्रभु है । मित्र के रूप में भी तू है, पिता के रूप में भी तू है, माता के रूप में भी तू है । बोलेः ‘पिता के रूप में भी भगवान है तो वह भगवान बोलता है सत्संग में मत जाओ तो फिर हम सत्संग में जायें कि नहीं जायें ? उसकी मर्जी पूर्ण करें कि नहीं करें ?’

एक महिला ने रामसुखदासजी महाराज से पूछा कि ‘हमारे ससुर में भी तो ब्रह्म है, भगवान है । ससुर जी कहते हैं कि कथा में मत जाओ तो हम कथा में आयें कि नहीं आयें ? अगर कथा में नहीं आते तो सत्संग नहीं मिलता, मन पवित्र नहीं रहता, संसार में जाता है । अगर कथा में आते हैं तो ससुररूपी भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होता है ।

ससुररूपी भगवान नहीं रोकता है, ससुररूपी मोह रोकता है, ससुररूपी अहंकार रोकता है । पितारूपी भगवान नहीं रोकता है, पितारूपी अहंकार रोकता है । पिरता के रूप में जो अहं है वह ‘ना’ बोलता है । ईश्वर सत्संग में जाने को ‘ना’ कभी नहीं बोलता । तो सास की, ससुर की, माँ की, बाप की इस प्रकार की आज्ञा कैसी है ? मोहयुक्त है ।

तुमने सुना है कि सबमें भगवान है और भगवान की मर्जी पूर्ण हो तो पत्नी कहेगीः ‘चलो पिक्चर में, मेरे में भी तो भगवान है, मेरी बात मान लो ।’ शराबी कहेगाः ‘मेरे में भी भगवान है, पी लो प्याली ।’ जुआरी कहेगाः ‘मेरे में भी भगवान है, जरा खेल लो मेरे साथ चौसर, ताश ।’

नहीं ! सबमें भगवान है अर्थात् मेरा (अंतर्यामी) भगवान है । हजारों जुआरी खेल रहे हैं, खेलने दो उनको । चलो, हम उसी अंतर्यामी के साथ खेलते हैं । ऐसा करके हमको अंतर्मुख होना है । निगुरो लोगों की हाँ में हाँ करके अपनी साधना नहीं बिगाड़नी है । मोह में आये हुए कुटुम्बियों की हाँ में हाँ करके अपने को खपा नहीं देना है । उस ईश्वर की हाँ में हाँ का अर्थ है – आप जो नहीं चाहते वह हो रहा है …. समझो आप अपमान नहीं चाहते और हो रहा है तो उसकी हाँ में हाँ करो तो अपमान की समस्या खत्म हो जायेगी । आप चाहते हैं कि ऐसा खाने को मिले, ऐसा रहने को मिले और वह नहीं हो रहा है तो चलो, जैसी उसकी मर्जी ! – ऐसा करके आत्मसंतोष कर आत्मसुख में जाना है । ऐसा नहीं कि जुआरियों के साथ चल दिये, गँजेड़ियों के साथ चल दिये, फिल्म में चल दिये ।

विकारों की मर्जी पूर्ण न हो, ईश्वर की मर्जी पूर्ण हो, बस । अहंकार की मर्जी पूरी न हो, वासना वाले दोस्तों की मर्जी पूरी न हो लेकिन उनकी गहराई में जो मेरा परमात्मा है उसकी मर्जी पूर्ण हो । बस, इतना ही तो करना है ! दिखता इतना है लेकिन इसमें सब कुछ आ जाता है । श्वासोच्छवास की साधना शुरु करो, उससे अंतरात्मा का सुख शुरु हो जायेगा । आत्मविश्रांति…. ॐ आनंद…

कई लोग ध्यान करते हैं न, तो अपेक्षा रखते हैं कि ध्यान ऐसा लगना  चाहिए… अरे, ऐसा लगना चाहिए, वैसा दिखना चाहिए…. – इससे तो फिर  नहीं होगा । ध्यान में बैठो तो तेरी मर्जी पूरण हो प्रभु तेरी जय हो ।….’ शुरु हो गया बस, चिंतन हो गया, आराम हो गया ! निःसंकल्प होते जाओ…. ‘श्री नारायण स्तुति (आश्रम से प्रकाशित एक पुस्तक) पढ़ते जाओ, निःसंकल्प होते जाओ… श्री नारायण स्तुति पढ़ी और गोता मारा… इससे जल्दी भगवत्सुख, दिव्य सुख शुरु हो जायेगा ।

शरीर से जो कुछ कर्म करते हो उस अंतर्यामी की प्रसन्नता के लिए करो । विकार को पोसने के लिए नहीं, अहंकार को पोसने के लिए नहीं, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए काम करो तो वह तुम्हारी सच्ची सेवा हो जायेगी । ‘फलाना भाई, फलाना भाई’ – ऐसा करके लोग तुम्हारे से काम लेना चाहते हैं तो तुम अंदर सावधान रहो कि इस शरीर का नाम करने के लिए हम सेवा कर रहे हैं या शरीर में छुपे हुए परमात्मा अथवा गुरु को साक्षी रखकर हम सेवा कर रहे हैं ? केवल सावधानी बरतो तो तुम्हारी सेवा में चार चाँद लग जायेंगे !

जो वाहवाही के लिए सेवा करते हैं उनका स्वभाव उद्धत हो जाता है, गंदा हो जाता है । वे कुत्तों की नाईं आपस में लड़त-झगड़ते रहते हैं लेकिन भगवान की प्रसन्नता के लिए, गुरु की प्रसन्नता के लिए जो सेवा करते हैं उनका स्वभाव बड़ा मधुर हो जाता है ।

शास्त्र, ईश्वर तथा गुरु को स्वीकृति दे दो और अहं को अस्वीकृति दे दो, कल्याण हो जायेगा । तुम स्वीकृति दे दोः ‘वाह ! तेरी मर्जी ! तेरी मर्जी पूरण हो !’ भगवान की मर्जी अगर पूर्ण करने लग गये तो भगवान पूर्ण हैं, पूर्ण तो पूर्ण ही चाहेगा । ऐसे ही भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं, मुक्तस्वरूप हैं तो उनकी मर्जी पूर्ण होने दो, तुम्हारे बाप का जाता क्या है ! हम स्वीकृति नहीं देते हैं, अपनी मर्जी अड़ाते हैं तभी परेशान होते हैं । तेरी मर्जी पूरण हो ! अपना नया कोई संकल्प न करो, अपनी नयी कोई पकड़ न रखो, ईश्वर की मर्जी पूर्ण होगी तो ईश्वर तुमको ईश्वर बना देगा, ब्रह्म तुमको ब्रह्म बना देगा क्योंकि तुम उसके सनातन अंश हो ।

बेवकूफी यह होती है कि हम ईश्वर को भी बोलते हैं कि मेरी मर्जी से करः ‘हे भगवान ! बेटा हो जाय । इतने साल के अंदर हो जाय और ऐसा हो जाय….।’ मानो उसको कोई अक्ल ही नहीं है । तू भगवान के पास गया कि नौकर के पास गया रे ! यह असावधानी है । ‘हे भगवान ! जरा ऐसा हो जाय, मौसम अच्छा हो जाय ।’ अरे ! वह जो करता है ठीक है, उसकी मौज है ! ‘मौसम ऐसा है वैसा है…. तू ऐसा कर दे, वैसा कर दे….।’ नहीं, तेरी मर्जी पूर्ण हो !’ तो मौसम आपको परेशान नहीं करेगा । आप स्वीकृति दे दो, बस । कोई दो गालियाँ देता है तो ‘आहा ! गालियाँ दिलाकर अपमान कराके तू मेरा अहंकार मिटाता है । ॐॐ… तेरी मर्जी पूरण हो !’ – ऐसा मन ही मन कहो तुम्हारी साधना हो जायेगी यार ! ‘बहुत गर्मी हो रही है… हाय रे ! गर्मी हो रही है….’ ऐसा करोगे तो गर्मी सतायेगी । जिसको बारिश का मजा लेना है उसको गर्मी भी सहनी पड़ती है । बारिश के लिए गर्मी भी जरूरी है । सर्दी पचाने के लिए भी गर्मी जरूरी है और गर्मी पचाने के लिए सर्दी जरूरी है । मान पचाने के लिए अपमान जरूरी है । जीवन को पचाने के लिए मृत्यु जरूरी है । वाह ! जो जरूरी है सब तूने किया । तेरी मर्जी पूरण हो ! बस इतना ही तो मंत्र है ! और कोई बड़ा नहीं है और गुप्त भी नहीं है बाबा ! आनंद ही आनंद है !

हर रोज खुशी, हम दम खुशी, हर हाल खुशी ।

जब आशिक मस्त प्रभु का हुआ, तो फिर क्या दिलगीरी बाबा ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 194

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