Monthly Archives: January 2002

प्रार्थना की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

किसी ने कहा हैः

जब और सहारे छिन जाते, कोई न किनारा मिलता है।

तूफान में टूटी किश्ती का, भगवान सहारा होता है।।

सच्चे हृदय की पुकार को वह हृदयस्थ परमेश्वर जरूर सुनता है, फिर पुकार चाहे किसी मानव ने की हो या किसी प्राणी ने। गज की पुकार को सुनकर स्वयं प्रभु ही ग्राह से उसकी रक्षा करने के लिए वैकुण्ठ से दौड़ पड़े थे, यह तो सभी जानते हैं।

पुराणों में कथा आती हैः

एक पपीहा पेड़ पर बैठा था। वहाँ उसे बैठा देखकर एक शिकारी ने धनुष पर बाण चढ़ाया। आकाश से भी एक बाज उस पपीहे को ताक रहा था। इधर शिकारी ताक में था और उधर बाज। पपीहा क्या करता ?

कोई ओर चारा न देखकर पपीहे ने प्रभु से प्रार्थना कीः “हे प्रभु ! तू सर्वसमर्थ है। इधर शिकारी है, उधर बाज है। अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं है। हे प्रभु ! तू ही रक्षा कर….”

पपीहा प्रार्थना में तल्लीन हो गया। वृक्ष के पास बिल में से एक साँप निकला। उसने शिकारी को दंश मारा। शिकारी का निशाना हिल गया। हाथ में से बाण छूटा और आकाश में जो बाज मँडरा रहा था उसे जाकर लगा। शिकारी के बाण से बाज मर गया और साँप के काटने से शिकारी मर गया। पपीहा बच गया।

इस सृष्टि का कोई मालिक नहीं है ऐसी बात नहीं है। यह सृष्टि समर्थ संचालक की सत्ता से चलती है।

कुछ समय पहले की बात हैः

जबलपुर (म.प्र.) में किसी कुम्हार ने देखा कि चिड़िया ने ईंटों के बीच में घोंसला बनाकर अण्डे दे दिये हैं। उसने सोचाः ‘आँवों में ईँटों को पकाते समय घोंसला निकाल देंगे।’ किन्तु वह भूल गया और आँवों में आग लगा दी। फिर उसे याद आया किः ‘अरे ! घोंसला तो रह गया !’ कुम्हार उनकी प्राणरक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। लोगों ने कहाः

“तुम पागल हो गये हो ? यह कैसे सम्भव है कि आँवों की आग से घोंसला बच जाये ?”

कुम्हारः “जब प्रह्लाद के जमाने में सम्भव था तो इस जमाने का स्वामी भी तो वही है ! जमाना बदला है, पर परमात्मा थोड़े बदला है !”

उस कुम्हार ने आर्तभाव से प्रार्थना की और उस समर्थ सत्ता में खो गया। सुबह जब उसने अपना आँवाँ खोला और एक-एक करके ईंटें उठायीं तो क्या देखता है कि आँवों के बीच की ईंटों तक आग की आँच नहीं लगी है। चिड़िया उड़कर आकाश की ओर चली गयी और घोंसले में अण्डे ज्यों के त्यों !

यह घटित घटना है। ‘हिन्दुस्तान’ समाचार-पत्र में यह घटना छपी भी थी।

वह परमात्मा कैसा समर्थ है ! वह ‘कर्तुं अकर्तुं अन्याथाकर्तुं समर्थः’ है। असम्भव भी उसके लिए सम्भव है।

1970 की एक घटना अमेरिका के विज्ञान जगत में चिरस्मरणीय रहेगी।

अमेरिका ने 11 अप्रैल, 1970 को अपोलो-13 नामक अंतिरक्षयान चन्द्रमा पर भेजा। दो दिन बाद वह चन्द्रमा पर पहुँचा और जैसे ही कार्यरत हुआ कि उसके प्रथम युनिट ऑडीसी (सी.एस.एम.) के ऑक्सीजन की टंकी में विद्युत तार में स्पार्किंग होने के कारण अचानक विस्फोट हुआ जिससे युनिट में ऑक्सीजन खत्म हो गयी और विद्युत आपूर्ति बंद हो गयी।

उस युनिट में तीन अंतरिक्षयात्री थेः जेम्स ए. लोवेल, जॉन एल. स्वीगर्ट और फ्रेड वोलेस हेईज। इन अंतरिक्षयात्रियों ने विस्फोट होने पर सी.एस.एम. युनिट की सब प्रणालियाँ बंद कर दीं एवं वे तीनों उस युनिट को छोड़कर एक्वेरियस (एल.एम.) युनिट में चले गये।

अब असीम अंतरिक्ष में केवल एल.एम. युनिट ही उनके लिए लाइफ बोट के समान था। परंतु बाहर की प्रचंड गर्मी से रक्षा करने के लिए उस युनिट में गर्मी रक्षा कवच नहीं था। अतः पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रविष्ट होकर पुनः पृथ्वी पर वापस लौटने में उसका उपयोग कर सकना सम्भव नहीं था।

पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार पृथ्वी पर वापस लौटने में अभी चार दिन बाकी थे। इतना लम्बा समय चले उतना ऑक्सीजन एवं पानी का संग्रह नहीं बचा था। इसके अतिरिक्त इस युनिट के अंदर बर्फ की तरह जमा दे ऐसा ठंडा वातावरण एवं अत्यधिक कार्बन डाईऑक्साइड था। जीवन बचने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

अंतरिक्षयात्री पृथ्वी के नियंत्रणकक्ष के निरंतर सम्पर्क में थे। उन्होंने कहाः “अंतरिक्षयान में धमाका हुआ है…. अब हम गये….”

लाखों मील ऊँचाई पर अंतरिक्ष में मानवीय सहायता पहुँचाना सम्भव नहीं था। अंतरिक्षयान गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से भी ऊपर था। इस विकट परिस्थिति में सब निःसहाय हो गये। कोई मानवीय ताकत अंतरिक्षयात्रियों को सहाय पहुँचा सके यह सम्भव नहीं था। नीचे नियंत्रण कक्ष से कहा गयाः

“अब हम तो कुछ नहीं कर सकते। हम केवल प्रार्थना कर सकते हैं। जिसके हाथों में यह सारी सृष्टि है उस ईश्वर से हम केवल प्रार्थना कर सकते हैं…… May God help you ! We too shall pray to God. God will help you.” और देशवासियों ने भी प्रार्थना की।

युवान अंतरिक्षयात्रियों ने हिम्मत की। उन्होंने ईश्वर के भरोसे पर एक साहस किया। चंद्र पर अवरोहण करने के लिए एल.एम. युनिट के जिस इन्जन का उपयोग करना था उस इन्जन की गति एवं दिशा बदलकर एवं स्वयं गर्मी-रक्षक कवचरहित उस एल.एम. युनिट में बैठकर अपोलो – 13 को पृथ्वी की ओर मोड़ दिया। ….और आश्चर्य ! तमाम जीवनघातक जोखिमों से पार होकर अंतरिक्षयान ने सही सलामत 17 अप्रैल, 1970 के दिन प्रशान्त महासागर में सफल अवरोहण किया।

उन अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने बाद में वर्णन करते हुए कहाः “अंतरिक्ष में लाखों मील दूर से एवं एल.एम. जैसे गर्मी-रक्षक कवच से रहित युनिट में बैठकर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रवेश करना और प्रचण्ड गर्मी से बच जाना, हम तीनों का जीवित रहना असम्भव था…. किसी भी मनुष्य का जीवित रहना असम्भव था। यह तो आप सबकी प्रार्थना ने काम किया है एवं अदृश्य सत्ता ने ही हमें जीवनदान दिया है।”

सृष्टि में चाहे कितनी भी उथल-पुथल मच जाय लेकिन जब अदृश्य सत्ता किसी की रक्षा करना चाहती है तो वातावरण में कैसी भी व्यवस्था करके उसकी रक्षा कर देती है। ऐसे तो कई उदाहरण हैं।

कितना बल है प्रार्थना में ! कितना बल है उस अदृश्य सत्ता में ! अदृश्य सत्ता कहो, अव्यक्त परमात्मा कहो, एक ही बात है लेकिन वह है जरूर। उसी अव्यक्त, अदृश्य सत्ता का साक्षात्कार करना यही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 12-14, अंक 109

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तू सूर्य बन !


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

उत्तरायण अर्थात् सूर्य का उत्तर दिशा की और प्रयाण। जैसे मकर-सक्रान्ति से सूर्य उत्तर दिशा की तरफ प्रयाण करता है वैसे ही आपका जीवन भी उन्नति की ओर अग्रसर होता जाय….. ऋषि कहते हैं- ‘तुम सूर्य की नाईं बनो।’

कोई प्रश्न करता है कि ‘महाराज ! सूर्य तो दो सौ करोड़ वर्ष पुराना है और नौ करोड़, तीस लाख मील दूर रहता है। हम उसके समान कैसे बन सकते हैं ? अगर बनें तो सूर्य कैसा है ? हाईड्रोजन और हीलीयम गैस का गोला, उसके आगे बड़े-बड़े भयानक बम भी कुछ नहीं हैं इतना वह गर्म है और ऋषि कहते हैं- ‘सूर्य की नाईं बनो।’ लेकिन ऋषि के इस वचन के पीछे बड़ा गहरा आशय छिपा हुआ है।

ऋषि के कहने का भावार्थ यह है कि जैसे सूर्य अपने व्रत पर अडिग रहता है वैसे ही मनुष्य ! तू अपने व्रत पर अडिग रह। तू अपनी मनुष्यता बनाये रख। तू अपनी मान्यता से गिर मत। अगर तू मनुष्यता से ऊपर उठ जाय, योगसिद्ध हो जाय, समता के सिंहासन पर बैठ जाय तो और ऊँची बात है। लेकिन कम-से-कम मनुष्यता से कभी गिरना मत।

सूर्य की दूसरी विशेषता है कि वह नदियों, तालाबों आदि से पानी उठा लेता है, लेकिन पानी का अपने पास संग्रह नहीं करता वरन् उस पानी को पुनः लौटा देता है। खारे सागर में से भी अपनी किरणों द्वारा जल ले लेता है और मीठा जल बरसाता है। उसी पानी से खेत हरे-भरे लहलहाने लगते हैं, फूल खिलने लगते हैं, धरती माता शीतल हो जाती है।

अतः हे मनुष्य ! तू सूर्य से त्याग सीख। तू भी धन बढ़ा, योग्यता बढ़ा, अक्ल बढ़ा किन्तु उस धन, योग्यता एवं विद्या को केवल अपने अहंकार के पोषण के लिए उपयोग न कर परन्तु उनका उपयोग बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय हो, ऐसा प्रयत्न कर। सूर्य सब जगह से पानी ले लेता है और देने में राग-द्वेष नहीं करता, ऐसे ही तू भी प्राप्त योग्यता को बिना राग-द्वेष के मानवता की सेवा में लगाने की प्रेरणा सूर्य से ले।

सूर्य की तीसरी विशेषता है कि वह गंदी नालियों, कीचड़ आदि से भी पानी उठा लेता है लेकिन गंदी जगहों से स्वयं प्रभावित नहीं होता। सूर्य गंदी जगहों से भी अपनी किरणों द्वारा पानी ले लेता है, वैसे तू भी हर जगह से गुण लेना सीख ले लेकिन स्वयं किसी के भी दुर्गुणों से प्रभावित न हो। सूर्य यह सिखाता है कि वमन जैसी गंदी चीज से भी जैसे वह वाष्प बनाकर पानी ले लेता है, ऐसे ही किसी के रोकने-टोकने में अथवा फटकारने में से भी अपने हित की बात लेकर तू अपनी समता, नम्रता आत्मसुख की वृत्ति बनाकर तू निरंतर आगे बढ़ता जा।

सूर्य की चौथी विशेषता है कि वह कभी निराश नहीं होता है। कभी पलायनवादी विचार नहीं करता है। घनघोर घटायें छा जाती हैं और सूर्य को ढँक लेती हैं फिर भी सूर्य कभी यह नहीं सोचता है कि ‘हाय रे ! इन घनघोर घटाओं ने मुझे घेर लिया…. कभी-कभी 8-8 दिन तक तो कहीं 4 से 6 महीने तक इन घटाओं से घिरा रहता हूँ…. मैं इतना देता हूँ फिर भी मेरे साथ अन्याय हो रहा है।’ नहीं, सूर्य कभी निराश नहीं होता है। सूर्य कभी अपने को लघुता ग्रंथी में नहीं बाँधता है।

सूर्य देखता है कि घनघोर घटायें आती-जाती रहती हैं। कई बार आयीं और गयीं। ऐसे ही तुम्हें भी कभी कोई विफलता मिल जाय, परेशानी आ जाय, कोई रोग घेर ले, अथवा कभी निंदा हो जाय…. इस प्रकार की कोई भी घटा तुम्हारे जीवन में आने पर तो, निराश मत होना और न ही पलायनवादी बनना वरन् तुम तो अपनी महिमा में वैसे ही चमकते रहना जैसे सूर्य चम-चम चमकता रहता है।

जो मंजिल चलते हैं वे शिकवा नहीं किया करते हैं।

जो शिकवा किया करते हैं वे मंजिल पहुँचा नहीं करते हैं।।

तू फरियाद मत कर, पुरुषार्थ कर। निराश मत हो, आशावादी बन, उत्साही बन तो दुःख के बादल बिखर जायेंगे। तू विघ्न-बाधाओं के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ता चला जा तो सफलता तेरी दासी हो जायेगी। विघ्न-बाधाएँ पैरों तले कुचलने की चीज है तथा सुख, प्रेम और आनंद बाँटने की चीज है।

सूर्य कितना पुरुषार्थी है, निरन्तर पुरुषार्थ करता रहता है। सूर्य कभी हड़ताल नहीं करता वरन् सदैव अपने कर्तव्य का पालन करता है। नित्य अपना कर्तव्य पालते हुए भी उसको कर्तव्य करने का बोझा नहीं लगता और न ही वह किसी पर एहसान करने की डीँग हाँकता है, ऐसे ही तू भी अपना कर्तव्यपालन कर और काम करने की डीँग मत हाँक।

इसीलिए ऋषि कहते हैं कि तू सूर्य बन। हो सके तो सूर्य से ऊपर उठ जाना। सूर्य जिससे चमकता है उस चैतन्य को ‘मैं’ मानकर मुक्त होह जाना, लेकिन अगर तुम उतने उन्नत नहीं हो सकते तो कम से कम मानवता से नीचे तो मत गिरना। तुम भी सूर्य की भाँति अपना आत्मतेज विकसित करना।

सूर्य तुम्हें पौरूष और प्रकाश की प्रेरणा देता है। ऐसा सूर्य जिस तेज से चमकता है वह आत्मतेज तुम्हारे पास, तुम्हारे साथ है। तुम उसका आदर करते रहो, उससे लाभ लेते रहो और जानकर मुक्त हो जाओ। ॐॐ पुरुषार्थ…. ॐॐ सतर्कता…. ॐॐसाहस…. ॐॐ सहजता…. ॐॐ सरलता…. ॐॐ शातिं ॐ शांति….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 109

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तीव्र विवेक


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

विवेक किसको बोलते हैं ?

दो चीजें मिल गयी हों, मिश्रित हो गयी हों उनको अलग करने की कला का नाम है विवेक। परमात्मा चेतन है, जगत जड़ है और दोनों के मिश्रण से सृष्टि चलती है। सृष्टि में सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छा-बुरा, जीवन-मरण ये सब मिश्रित हो गया है। उसमें से सार-असार को, नित्य-अनित्य को, जड़ और चेतन को पृथक समझने की कला है विवेक।

जगत में जितने भी दुःख हैं, क्लेश हैं, अनर्थ हैं सबके मूल में है विवेक की कमी। विवेक की कमी के कारण ही हम जो हैं उसका हमको पता नहीं है और जो हम नहीं हैं उसको (देह को) हम ‘मैं’ मान बैठे हैं।

सत् क्या है – असत् क्या है ? शाश्वत क्या है – नश्वर क्या है ? नित्य क्या है – अनित्य क्या है ? इसका अगर विवेक हो जाये तो नश्वर का नश्वर समझने से दुःख नहीं होगा और शाश्वत को शाश्वत मानने से उसे पाये बिना मन नहीं मानेगा।

जैसे, मिट्टी का घड़ा। कच्चे घड़े में यदि पानी डालो तो वह पानी में पिघल जाता है लेकिन उस घड़े को आग में बराबर पकाओ तो वह पक्का घड़ा पानी की गर्मी आदि दोषों को हर लेता है और पानी को भी अमृतसम शीतल बना देता है। ऐसे ही सत्संग के द्वारा विवेक को जागृत किया जाता है। फिर ध्यानादि करके विवेक को परिपक्व किया जाता है। विवेक परिपक्व होने से संसार का व्यवहार भी शीतल हो जाता है, दोषों को हरने वाला हो जाता है और दूसरों को भी सुख से, शीतलता से भरने वाला हो जाता है।

कच्चा घड़ा पानी को नहीं थाम सकता। घड़ा अग्नि में परिपक्व होता है तभी वह पानी को थाम सकता है। ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा के आनंद को, रस को, माधुर्य को वही थाम सकता है जिसका चित्त योगाग्नि में परिपक्व हुआ है।

सुना तो हैः ‘परमात्मा अपना आत्मा है… संसार स्वप्न है… सब मरते हैं… दुःखी होने की कोई जरूरत नहीं है…’ फिर भी दुःखी हो रहे हैं, चिंता कर रहे हैं। क्यों ? क्योंकि चित्तरूपी घड़ा अभी ध्यानगोरूपी अग्नि में परिपक्व नहीं हुआ है। जब यह परिपक्व होगा तभी संसार का जल उसमें शीतल होगा अर्थात् दुःख नहीं देगा।

आप दुनिया में दो रोटी कमाकर, दो बच्चे-बच्ची पैदा करके, उनको पाल-पोसकर मर मिटने के लिए नहीं आये हो अपितु सत्य-असत्य का विवेक करके, मिथ्या और शाश्वत का विवेक करके, नित्य-अनित्य का विवेक करके मुक्ति पाने के लिए आये हो।

‘मैं कौन हूँ ? शरीर मेरा है तो मैं शरीर नहीं हूँ। मन मेरा है तो मन मैं नहीं हूँ। बुद्धि मेरी है तो मैं बुद्धि नहीं हूँ… आखिर मैं कौन हूँ ?’ इसका विवेक करके अपने-आपको पाकर उसमें विश्रांति पाने के लिये आये हो।

विवेक से अपने स्वरूप का बोध मिल जाय और आप उसमें टिक जायें तो  परिपक्व स्थिति आ जायेगी। परिपक्व स्थिति आने से आपका संसाररूपी सर्प मारने योग्य अथवा जहर फूँकने योग्य नहीं होगा लेकिन संसाररूपी सर्प का व्यवहार भी आदर्श हो जायेगा, सुखदायी हो जायेगा। अपने लिए और दूसरों के लिए प्रेम देने  वाला हो जायेगा, माधुर्य निखारने  वाला हो जायेगा।

विवेक तीर्व होगा तो तुच्छ चीजों में राग करके फँसने का अवसर नहीं आयेगा वरन् वैराग्य आयेगा कि ‘इतना भोगा….. आखिर कब तक ? ऐसे बन गये…. फिर क्या?’

हम दिन रात विवेक को ढाँककर ही काम कर रहे हैं। इसलिए कर –करके मर जाते हैं फिर भी कर्तव्य का अंत नहीं होता है। पा-पाकर मर जाते हैं फिर भी पाने की वासना का अंत  नहीं होता है, जान-जानकर थक जाते हैं फिर भी जानकारी का अंत नहीं होता।

राजगृह में धन्यकुमार सुभद्रा आदि रानियों के साथ बात कर रहे थे। रानी सुभद्रा ने कहाः “मेरा भाई अब संन्यासी हो जायेगा। आचार्य धर्मघोष का प्रवचन सुनता है और प्रतिदिन एक-एक रानी से मिलता है और बोलता है कि अब मैं सदा के लिए साधु हो जाऊँगा। ऐसा करके वह 15 रानियों का त्याग कर चुका है। कुल 32 रानियाँ हैं। उसके बाद मेरा भाई संन्यासी हो जायेगा।”

धन्यकुमारः “तेरा भाई क्या साधु होगा, खाक ?”

सुभद्रा बोलीः “वह ऐसे ही थोड़ी रानियों को छोड़ रहा है ?”

धन्यकुमारः “ऐसे थोड़े ही साधु बनते हैं !”

सुभद्राः “तो कैसे बनते हैं ?”

धन्यकुमारः “ऐसे बनते हैं, देख। यह मैं साधु बना और चला। तुम्हारा भाई तो एक-एक रानी को छोड़ रहा है, अभी 17 बाकी हैं। मैं तो एक साथ मेरी आठों रानियों को छोड़ रहा हूँ।”

यह कहकर धन्यकुमार निकल पड़ा।

यदि दूरदर्शिता नहीं है, तीव्र विवेक नहीं है तो साधु होना मुश्किल है। जब तीव्र विवेक आता है तो एक झटके में ही सब छूट जाता है।

कई लोग बोलते हैं कि ‘धीरे-धीरे छोड़ूँगा… देखूँगा…. प्रयत्न करूँगा….’ तो उनके लिए छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जो एक ही झटके में छोड़ देते हैं वे ही छोड़ पाते हैं। ‘धीरे-धीरे भजन करेंगे… संसार में रहकर भजन करेंगे…’ तो करते रहो भजन और संसार भी भोगते रहो। फिर हो गया भजन !

विवेक होता है तो तीर लग जाता है, बात चुभ जाती है और मनुष्य लग पड़ता है।

विवेक तीव्र होने पर तो दो शब्द सुनकर भई व्यक्ति लग जाता हैः ‘कुछ भी हो जाय, ईश्वर को पाना ही है… समय नहीं गँवाना है।’

आवारा मन होता है वही फालतू बातें करता है, फालतू तर्क देता है, फालतू सुख-सुविधाएँ खोजता रहता है। जिनको लगन लगी है वे तो बस, ईश्वर की ही बातें सुनेंगे, ईश्वर का ही ध्यान करेंगे, ईश्वर के लिए ही सत्शास्त्र पढ़ेंगे अथवा ईश्वर के लिए ही सेवाकार्य करेंगे। विवेक नहीं है तो सुविधाएँ होते हुए भी व्यक्ति का मन भजन में नहीं लगता। जिनको तीव्र पुण्यमय विवेक होता है वे सुविधा हो तब भी और सुविधा न हो तब भी अपना काम बना लेते हैं। बस, विवेक होना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 109

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