Monthly Archives: January 2002

तब लग दोनों एक हैं….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा हैः

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान।

तब लग दोनों एक हैं क्या मूरख अरु विद्वान।।

कोई अनपढ़, गँवार और मूर्ख हो एवं अध्यात्मविद्या से अनजान हो अथवा कोई अध्यात्म विद्या का बड़ा जानकार हो, बड़ा पंडित, उपदेशक अथवा कथाकार हो लेकिन उसके अंदर अगर काम, क्रोध, लोभ और मोह हो तो दोनों समान ही हैं क्योंकि गँवार भी अपनी उम्र बेचकर जी रहा है और पंडित भी संसार के दलदल में फँसकर अपनी आयु गँवा रहा है।

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान… अगर हृदय में इन चीजों को जगह दी तो फिर शाश्वत शांति नहीं मिलती, शाश्वत सुख नहीं मिलता, शाश्वत को पाने की सूझबूझ नहीं मिलती और शाश्वत शांति नहीं मिली तो फिर अशांतस्य कुतः सुखम् ? अर्थात् अशांत को सुख कहाँ ?

काम क्रोधादि दोषों के कारण ही व्यक्ति राग-द्वेष, वैर विरोध, कलह-विवाद आदि में पड़ता है और अशांत हो जाता है। इसलिए अपने हृदय में द्वेष रखने की अपेक्षा द्वेष निकालने का उपाय खोजना चाहिए। मारपीट अथवा लड़ाई झगड़ा करने की जगह तटस्थ होकर विचारें तो लगेगा कि 90 प्रतिशत बेवकूफी हमारी ही है और 10 प्रतिशत जिससे हम द्वेष करते हैं उसकी है या उसे भिड़ाने वाले की है। जैसे हम दूसरों के दोष देखने में सतर्क रहते हैं वैसे ही हम अपने दोष देखने में सतर्क हो जायें और जैसे अपने गुण देखने में सतर्क होते हैं, वैसे ही सामने वाले के गुण देखें तो राग-द्वेष से बच जायें।

राग-द्वेष, छल-कपट इत्यादि हमारी क्षमताओं को हर लेते हैं। जैसे पूनम, एकादशी आदि पर्वों का संसार-भोग स्वास्थ्य और प्रसन्नता को हर लेता है और एकादशी, पूनम का  व्रत, ध्यान-भजन, संयम हमारे पापों को हर लेता है वैसे ही भगवद् चिंतन, भगवद् ध्यान, औदार्यचिंतन और ऊँचा उद्देश्य हमारे राग-द्वेष को, हमारी अशांति को, हमारे कष्टों को हर लेता है।

जैसे, सूर्य के उदित होने से वसुंधरा का तिमिर भाग जाता है, वैसे ही ईश्वरप्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य हमारे जीवन में से काम-क्रोधादि शत्रुओं को भगा देता है।

चाहे घर में रहो या पड़ोस में, चाहे ऑफिस में रहो या व्यापार में लेकिन तुम्हारे हृदय में अगर द्वेष बना रहा तो फिर विद्वान होने पर भी तुम्हारे बुरे हाल होते रहेंगे। भाई-भाई का द्वेष, अधिकारी-अधिकारी का द्वेष, देवरानी-जेठानी का द्वेष, पड़ोसी-पड़ोसी का द्वेष, व्यापारी-व्यापारी का द्वेष….. उनको परेशान करता रहेगा।

दो व्यापारी थे। दोनों में बड़ी मित्रता थी। दोनों की दुकानें आमने-सामने थीं फिर भी दोनों में बड़ा स्नेह था। एक के मुनीम ने देखा कि सामने वाले का धंधा बहुत चलता है। ‘वह हमारे ग्राहक खींच लेता है। हमने थोड़ा कमा लिया तो कया हो गया ?’ ऐसा कहकर मुनीम ने अपने सेठ को भड़काया।

इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा करते-करते दोनों के बीच जो स्नेह की सरिता थी वह सूख गयी और परस्पर द्वेष की आग भड़कने लगी, दोनों बड़े दुःखी हो गये और मित्र में से शत्रु बन गये।

उस नगर में एक महात्मा आये। दोनों व्यापारियों ने महात्मा का सत्संग सुनाः “द्वेष बड़ा हानिकारक है। जिसके प्रति द्वेष है उसको तो बाद में नुकसान है लेकिन जिस हृदय में द्वेष होता है उसकी सुख-सरिता को वह पहले जला देता है। द्वेष रखना समझो, अपनी तबाही करना है। द्वेष और कपट अपनी बरबादी के, अपने पतन के मुख्य साधन हैं। जिसके मन में द्वेष और छल-कपट नहीं और जो सबसे सरलता का व्यवहार करता है वह भवसागर से पार हो जाता है।

कपट गाँठ मन में नहीं सबसों सरल सुभाव।

नारायण ता दास की लगे किनारे नाव।।

मन में कपट न रखें, द्वेष न रखें। हम लोग भजन तो करते हैं, मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे में भी जाते हैं लेकिन हृदय मंदिर को साफ-सुथरा रखने पर ध्यान नहीं देते इसलिए बाहर के मंदिर में भी घूमते रह जाते हैं, हृदय मंदिर की परमात्म गहराई में नहीं पहुँच पाते हैं।

याद रखना तुम्हारा जन्म संसार के विषयों में पच मरने के लिए नहीं हुआ है। तुम बाहर के मंदिर में भले जाओ, साधना कक्ष में भले जाओ लेकिन हृदय मंदिर में पहुँचने का यत्न भी अवश्य करना ।

बाहर के मंदिर में जाने का फल है कि हृदय मंदिर में पहुँचाने वाले संत मिल जायें, सत्संग मंदिर में पहुँच जायें और सत्संग सुनते-सुनते सत्यस्वरूप ईश्वर की शांति पा लें, ईश्वर का माधुर्य पा लें, ईश्वरीय आनंद पा लें।

ईश्वर सर्वत्र है, सदा है सबमें है। आप जिससे द्वेष करते हो उसकी गहराई में बैठे हुए परमात्मा के प्रति भी आप थोड़ी नफरत की ही धारणा बना लेते हो। किसी से आपके कोई विचार नहीं मिलते नहीं मिलते हैं लेकिन जो विचार मिलते हैं इस कारण तो उनसे स्नेह करें।

कोई विचार नहीं मिलता…. लेकिन एक सिद्धान्त तो मिलता है कि सबकी आँखों को देखने की सत्ता परमेश्वर की है, सबके कानों में सुनने की सत्ता परमेश्वर की है, सबकी जिह्वा में चखने की सत्ता परमेश्वर की है, सबके दिलों में धड़कन परमेश्वर की है। ‘मेरे प्रभु की सत्ता के बिना क्या मेरा दुश्मन देख सकता है ? मेरे प्रभु की सत्ता के बना क्या मेरे शत्रु के दिल की धड़कनें चल सकती हैं ? चाहे वह कितना भी द्वेष करे… द्वेष उसकी मति में है, मेरी मति में है लेकिन दोनों की गहराई में तो तू ही है प्रभु !’ ऐसा करके अपने हृदय को शीतल बनायें तो द्वेषी का द्वेष देर-सवेर प्रेम में बदल जायेगा। यह दर्शनशास्त्र की बात है, ब्रह्मज्ञान की ऊँची बात है।

पाश्चात्य जगत के महान दार्शनिक सुकरात ने अपने सत्संग में कुछ कह दिया होगा। एक व्यक्ति ने उसे अपने लिए कहा गया मान लिया और कसम खा लीः ‘जब तक सुकरात की हत्या न करूँगा तब तक चैन की नींद न लूँगा।’

किसी ने सुकरात को बता दिया कि फलाने व्यक्ति ने आपकी हत्या करने की कसम खा ली है।

सुकरात ने कहाः “हम भी कसम खाते हैं।”

“आप कसम खायेंगे ?”

“हाँ, मैं भी कसम खाता हूँ कि जब तक उसे अपना मित्र न बना लूँगा तब तक चैन से न जीऊँगा।”

लोगों को हुआ कि देखते हैं कि अब द्वेषी का द्वेष जीतता है कि सुकरात की समता और प्रेम जीतता है ?

सुकरात के हृदय में तो किसी के लिए नफरत नहीं थी, वे तो किसी को भी पराया नहीं मानते थे, किसी का भी अमंगल नहीं चाहते थे। उनके पास समता थी, हृदय सबके कल्याण की भावना से परिपूर्ण था, उनके हृदय में प्रेम था।

जिसके हृदय में प्राणिमात्र के लिए प्रेम है उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। वह व्यक्ति अपने विचार से ही त्रस्त हो उठा एवं उसकी अंतरात्मा लानत बरसाने लगी कि इतने महान पुरुष के लिए इतना बुरा विचार किया ? आखिर उससे रहा न गया। वह जाकर सुकरात के चरणों में गिर पड़ा और बोलाः “मैंने आपके लिए इतना बुरा सोचा, मैं अशांत हो गया हूँ। कृप्या, आप मुझे माफ कर दें।”

सुकरातः “मित्र ! आप मुझे माफ करें।”

“आप यह क्या कह रहे हैं ?” यह कहते-कहते तो वह पानी-पानी हो गया।

राग-द्वेष रहित चित्त बनाना बड़ा बहादुरी का काम है। परमात्मा प्राप्ति का कार्य उसके लिए बड़ा सहज हो जाता है।

क्यों किसी से द्वेष करना ? द्वेष करना ही है तो अपने दुर्गुणों से द्वेष करें, काम-क्रोधादि से द्वेष करें। किसी के दोष देखकर उससे द्वेष करने की जगह अपने दोषों से द्वेष करें। लेकिन मैं इस बात पर भी इतना राजी नहीं हूँ…. अपने दोषों से द्वेष करेगा तब भी चिंतन तो करेगा कि ‘मुझमें यह दोष है।’ अतः, न दूसरों के दोषों का चिंतन करो न ही अपने दोषों का चिंतन करो वरन् अपनी और दूसरों की गहराई में जो रहता है उस परमेश्वर का ही चिंतन करो। यदि केवल उस परमेश्वर का ही चिंतन करोगे तो अन्य चिंतन स्वाभाविक ही छूट जायेंगे। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा हैः

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान।

तब लग दोनों एक हैं क्या मूरख अरू विद्वान।।

अतः इन विकारों से बचने का प्रयत्न करें।

स्वभावः विजयः शौर्यं।

श्रीकृष्ण भागवत में कहते हैं- “अपने स्वभाव पर विजय पाना ही शौर्य है, वीरता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 109

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उद्देश्य ऊँचा बनायें


(उच्च कोटि के साधकों के लिए)

संत श्री आशाराम जी के सत्संग प्रवचन से

धन जोबन का करे गुमान वह मूरख मंद अज्ञान।

धन, यौवन, पद, विद्या, चतुराई, प्रमाणपत्र का जो गुमान करता है वह मूर्ख है, अज्ञानी है। जब तक तू ब्रह्मवेत्ता की तराजू में सही नहीं उतरता तब तक जीवात्मा है और जीवात्मा तो जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि का खिलौना है। जब तक ब्रह्मवेत्ताओं के गढ़ में ईमानदारी, समर्पण भाव या सच्चाई से नहीं पहुँचा तब तक तू जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि का खिलौना है।

वशिष्ठ जी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! ज्ञानवान की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए। उनका बड़ा उपकार है। वे संसार-सागर से तारते हैं। आत्मज्ञानी के वचनों का आदर करना चाहिए। आत्मज्ञानी के वचनों का अनादर करना मुक्तिफल का त्याग करना है। आत्मज्ञानी में एक भी गुण हो तो ले लेना चाहिए किंतु उनमें दोष नहीं देखना चाहिए।”

आत्मज्ञानी का अपना प्रारब्ध होता है मिलने-जुलने, लेने-देने, खाने पीने इत्यादि का…. कुछ लोग गुरु के आगे तो कुछ बात करते हैं और अंदर में होता है कुछ दूसरा…. तो ऐसे लोगों पर गुरुकृपा नहीं छलकती। उनका मन भी मलीन हो जाता है।

अतः साधक को चाहिए की ईमानदारी से अपना कर्तव्य  करे। ईमानदारी से सेवा करे। ईमानदारी और सच्चाई उसमें सत्य की जिज्ञासा पैदा कर देगी।

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।

जो ज्यादा चतुराई करते हैं, आलस करते हैं, कामचोर बनते हैं उनको भगवान के रास्ते जाने की रूचि नहीं होगी।

साधक होने का मतलब है अपनी इच्छाएँ,  वासनाएँ, आलस्य-प्रमाद और दुष्चरित्र का त्याग करके भगवान के लिए अपने अहं को मिटाकर भगवत्प्रीति बढ़ाने हेतु, एक ऊँचा उद्देश्य पाने के लिए पूरे प्रयत्न से लग जाना।

अगर उद्देश्य ऊँचा बनाया है तो उसमें विकल्प के लिए कोई स्थान नहीं है। हजारों जन्मों का काम एक ही जन्म में करना है, हजारों जन्मों के संस्कार इसी जन्म में मिटाने हैं, हजारों जन्मों की दुष्ट वासनाएँ इसी जन्म में नष्ट करनी है।

साधक को चाहिए कि तत्परता और ईमानदारी से सेवा करे। अगर वह ईमानदारी और सच्चाई से सेवा करेगा तो उसकी सेवा भी साधना बन जायेगी। जो तत्परता से सेवा करता है उसे किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए-यह अपने आप ही आ जाता है। जैसे, अपनी दुकान अथवा घर का काम तत्परता से करते हैं उससे भी ज्यादा सेवा के स्थल पर तत्परता आ जाये तो समझो, ईमानदारी की सेवा है।

नौकरी कामधंधे से समय बचाकर सेवा मिल गयी तो सेवा करें, नहीं तो जप ध्यान करें। अपना समय व्यर्थ न गँवायें।

भगवान सत्यस्वरप हैं। जो सच्चाई से जीता है, सच्चाई से सेवा करता है और सच्चाई से ध्यान-भजन करता है, वही ईश्वर के मार्ग पर दृढ़ता से चल पाता है।

लोग अपने कपड़े बदल देते हैं, मकान बदल देते हैं, अपना व्यवसाय बदल देते हैं लेकिन अपना स्वभाव नहीं बदलते। स्वभाव ही मनुष्य को स्वर्ग में ले जाता है, उसमें देवत्व ला देता है, स्वभाव ही मनुष्यों को नरकों में ले जाता है, स्वभाव ही मनुष्य को कामी-क्रोधी-लोभी-मोही बना देता है, स्वभाव ही मनुष्य को दूसरे की निन्दा करने वाला बना देता है और अगर स्वभाव दिव्य हो जाये तो ब्रह्मज्ञान भी प्राप्त हो जाता है।

शरीर तो जैसे का तैसा ही होता है, शरीर को क्या बदलेंगे और आत्मा तो अबदल है, अतः स्वभाव को ही बदलना है। उद्धव ने कृष्ण से पूछाः “सबसे बड़ी बहादुरी, शौर्य क्या है ?”

श्रीकृष्ण ने कहाः “बाह्य शत्रुओं पर विजय, दुनिया की सारी सत्ता पर विजय यह बड़ा शौर्य नहीं है अपने स्वभाव पर विजय पाना ही सबसे बड़ी बहादुरी, शौर्य है। स्वभावो विजयं शौर्यं।” श्रीमद भागवत

अपने अंतःकरण को बदलना चाहिए। अंतःकरण में अगर भगवद् ज्ञान, भगवन्नामजप और भगवद् ध्यान होगा तो अंतःकरण पवित्र होगा और पवित्र अंतःकरण में ही भगवद् प्राप्ति की प्यास जग सकेगी। भगवद् प्राप्ति से मनुष्य सारे पाशों से, सारे बंधनों से सदा के लिए छूट जायेगा।

अतः अपना उद्देश्य् भगवत्प्राप्ति का बनायें। अपना उद्देश्य ऊँचा बनायें और उसकी प्राप्ति में ईमानदारी से लगें। सावधान और सतर्क रहें कि कहीं समय व्यर्थ तो नहीं जा रहा ? अपने परमात्मप्राप्ति के लक्ष्य को सदैव याद रखें और लक्ष्य की तरफ जाने वालों का संग करें। अपने से ऊँचों का संग करें। इससे उद्देश्य को पाने में सहायता मिलेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 109

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आसुरी, राक्षसी और मोहिनी भाव


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा हैः

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।

‘वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।’ गीताः 9.12

आसुरी भाव, दैत्य भाव और मोहिनी भाव – ऐसे तीन प्रकार के भाव वाले लोग भगवान से विमुख होकर सारे किये-कराये पर पानी फिरा देते हैं। उनकी जो कुछ भी अच्छी प्रवृत्ति होती है वह भी अंत में नष्ट हो जाती है क्योंकि अच्छी प्रवृत्ति का फल भी वे नश्वर प्रकृति की चीजें चाहते हैं।

मानों यज्ञ भी कर लेते हैं, दान भी कर लेते हैं, पुण्य कर्म भी कर लेते हैं लेकिन दान पुण्यादि सत्कर्म का फल वे स्वर्ग चाहते हैं और स्वर्ग का भोग भोगकर उनके पुण्य नष्ट हो जाते हैं। अच्छे कर्म करके वाहवाही चाहते हैं तो अच्छे कर्म हुए, वाहवाही मिली…. बस, वाहवाही । भोगकर समय खराब हो जाता है। हाथ में  मिला क्या ?

बुरे कर्म करने वाले तो अपना सत्यानाश करते ही हैं लेकिन अच्छे कर्म करने वाले ज्ञानविहीन लोग भी आसुरी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। मोघाशा….. भगवान से विमुख होना यह ‘मोघ’ है। स्वर्ग को पाया, ऋद्धि-सिद्धि को पाया, प्रसिद्धि को पाया लेकिन आखिर क्या ?

मैं हनुमान जी से स्नेह करता हूँ, उनको प्रणाम करता हूँ। उनके पास इतनी योग्यताएँ होने के बावजूद वे उन योग्यताओं में रूके नहीं। आत्मा-परमात्मा को पाने के लिए श्रीराम जी की सेवा में लग गये। अर्जुन ने श्री कृष्ण की आज्ञा में रहकर परमात्मतत्व को पा लिया।

ईश्वर के सिवाये कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा। मोघाशा मोघकर्माणो.… भगवान से विमुख आशा एवं भगवान से विमुख कर्म जो चाहते हैं ऐसे लोग अपना जीवन, समय और ज्ञान व्यर्थ कर देते हैं।

लोग दुनियाभर के ज्ञान से अपनी बुद्धि को सम्पन्न कर दें, धन के भण्डार कर लें, स्वदेश में धन्य हो लें, विदेश में सम्मानित हो लें लेकिन गुरुतत्व अर्थात् आत्मा-परमात्मा में प्रीति नहीं हुई तो आखिर क्या ? जो भगवान से विमुख हैं वे यज्ञ कर लें, दान कर लें, तप कर लें, लेकिन उसका फल यदि सत्यस्वरूप ईश्वर को नहीं चाहते तो असत् भोग चाहेंगे और असत् भोग समय लेकर नष्ट हो जाते हैं। तो आखिर मिला क्या ? मिली समय की बरबादी, वासनाओं की गुलामी, दीनता-हीनता। स्वार्थ से, कामना की पूर्ति से प्रेरित होकर जो कर्म करते हैं, ‘भले किसी की हानि हो तो हो लेकिन मेरा यह काम होना ही चाहिए….’ ऐसा सोचकर उस काम के पीछे अपना ज्ञान, अपनी क्रियाशक्ति और अपनी भावना लगा देते हैं, ऐसे स्वभाव वाले लोगों को ही आसुरी प्रकृति के लोग कहा गया है।

आसुरी प्रकृति के लोग अर्थात् ऐसे लोग नहीं जो अनपढ़ होते हैं, अश्रद्धालु होते हैं या मूर्ख होते हैं। नहीं….. उनमें योग्यताएँ तो बहुत सारी होती हैं लेकिन ईश्वर प्राप्ति के सिवाय की चीजों में ही उनकी योग्यताएँ लगती हैं। मिथ्या सुख की प्राप्ति में, मिथ्या देह के आराम में ही उनकी सारी योग्यताएँ लगी रहती हैं। आसुरी भाव का आश्रय लेने वाला व्यक्ति अपनी कामनापूर्ति के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जायेगा लेकिन ईश्वर प्राप्ति की कामना नहीं करेगा।

दूसरे होते हैं राक्षसी भाव वाले व्यक्ति। अपने स्वार्थ की पूर्ति में यदि कोई विघ्न डालेगा तो उस पर कोपायमान हो जायेंगे। ‘अपना स्वार्थ सिद्ध हो फिर दूसरे चाहे भूखे रहें चाहे मरें, चाहे कुछ भी हो लेकिन मेरी लौकिक कामना सफल हो…’ ऐसी वृत्तिवाले लोग राक्षसी भाव का आश्रय लेते हैं।

तीसरे होते हैं मोहिनी भाव का आश्रय लेने वाले। मोहिनी भाव उसे कहते हैं कि उड़ते हुए पक्षी को गोली मार दी, बैठे हुए किसी निर्दोष आदमी को ठोकर मार दी। कोई सोया है और उसके कान में सलाई भोंक दी। किसी से कोई लाभ की इच्छा नहीं, फिर भी ऐसे ही किसी को सताते रहना इसको बोलते हैं मोहिनी भाव।

आसुरी, राक्षसी और मोहिनी भाव का आश्रय लेने वाले लोग सम्मोह, लोभ और मूर्खता के कारण अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं। जैसे बन्दरको नारियल मिले तो व्यर्थ है, अंधे आदमी को हीरा मिले तो व्यर्थ है और अपवित्र,निंदक, क्रूर एवं धोखेबाज को गुरूदीक्षा मिले तो व्यर्थ है। जो सुधरना तो नहीं चाहता वरन् गुरु के नाम को भुनाना चाहता है उसकी गुरुदीक्षा व्यर्थ है।

आगे के श्लोक में भगवान कहते हैं-

महात्मनास्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।

‘परन्तु हे पृथानंदन ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा लोग मुझको सम्पूर्ण प्राणियों का सनातन कारण और अविनाशी अक्षरस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं। (गीता- 9.13)

आसुरी प्रकृति में तमस, राक्षसी प्रकृति में रजस उन्मुख तमस है और मोहिनी प्रकृति में घोर तमस है लेकिन महात्मा लोग इस रजस-तमस-घोर तमस आदि से ऊपर दैवी प्रकृति के होते हैं। देव कहा जाता है परमात्मा को। उस परमात्मदेव के स्वाभाविक सदगुण उनमें रहते हैं। जैसे पानी का स्वभाव तरल है, अग्नि का स्वभाव उष्ण है, बर्फ का स्वभाव शीतल है ऐसे ही भगवान के जो स्वाभावि गुण हैं – निर्भयता, सात्विकता, ज्ञान में स्थिति, आचार्य की उपासना, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि…. ये दैवी प्रकृति के गुण हैं। महात्मा इस दैवी प्रकृति का आश्रय लेते हैं।

26 गुण हैं दैवी प्रकृति के। इन 26 गुणों में जितनी-जितनी गहरी स्थिति होगी, उतना-उतना मनुष्य महात्मा के जैसे स्वभाव से सम्पन्न होता जायेगा। किंतु जितना-जितना वह इन तीन गुणों में…. आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति में होगा उतना-उतना वह क्रूर स्वभाव का होगा।

हालाँकि महात्मा की नजर तो क्रूर स्वभाव वाले की गहराई में जो चैतन्य है और शुभ स्वभाव वाले की गहराई में जो चैतन्य है, वहीं होती है। साधारण व्यक्ति तो किसी के गुण-दोष पर नजर रखता है लेकिन महापुरुष लोग गुणदोष को मिथ्या मानकर, गुण दोष जिससे प्रकाशित होते हैं, जहाँ से सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं उस निर्गुण नारायण को अपने अंतःकरण एवं औरों के अंतःकरण में देखते हैं। ऐसे महात्मा लोग सार बातें समझने में कुशल होते हैं।

जो दैवी प्रकृति का आश्रय नहीं लेते अर्थात् सात्विक आहार नहीं लेते, सात्विक व्यवहार नहीं करते, सात्विक स्थानों पर नहीं जाते, सात्विक वातावरण में जीना पसंद नहीं करते बल्कि जो आया सो खा लिया, जो आया सो पी लिया, वे अच्छे कर्म भी करेंगे लेकिन उनकी बुद्धि ईश्वर के अनुभव तक नहीं पहुँचेगी।

कोई यदि राजा को रिझाना चाहे लेकिन इसके लिए किसी छोटे अमलदार को रिझाने लगे तो जरूरी नहीं कि सभी अमलदार रीझ जायें और राजा भी रीझ जाये। लेकिन वह एक राजा को अगर राजी कर दे तो सभी अमलदार रीझ जायेंगे। यदि वह राजा से एक हो गया तो सारे अमलदार-अधिकारी-मंत्री उसकी प्रसन्नता चाहेंगे। इसी प्रकार दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले महात्मा लोग राजाओं के राजा उस परब्रह्म परमात्मा को आत्मसात् कर लेते हैं। फिर ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ, देवी देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि एवं भूत-प्रेत, आसुरी प्रकृति वाले, तामसी प्रकृतिवाले, मोहिनी प्रकृतिवाले सभी के सभी लोग ऐसे महात्मा पुरुष को चाहते हैं एवं उनकी बात मानते हैं।

भगवान को तो कोई मानता है कोई नहीं मानता है लेकिन भगवान के दैवी स्वभाव को आत्मसात् किये हुए महात्मा को बहुत लोग मानते हैं। जैसे हिरण्यकशिपु भगवान का विरोधी था लेकिन नारद जी आये तो उसने उठकर नारदजी का सत्कार किया। कंस भगवान का विरोधी था लेकिन नारदजी की आज्ञा में चला। कुछ लोग भगवान को मानते हैं तो कुछ लोग अल्लाह को लेकिन जो दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर बह्मज्ञान को पा लेते है उनको अल्लाह को मानने वाले भी मानते हैं, भगवान को मानने वाले भी मानते हैं और नास्तिक लोग भी उन महात्मा के सम्पर्क में आकर उनके प्रति आदरभाव रखते हैं। ये दैवी गुण इतना महान बना देते हैं !

ईश्वर का आश्रय लेना हो तो ईश्वर के दैवी गुणों का आश्रय लो। दैवी गुणों का आश्रय लेने से चित्त के दुर्गुण क्षीण होते जाते हैं एवं भगवान के दिव्य गुण प्रगट होते जाते हैं जिससे दिव्य सुख उभरने लगता है। ज्यों-ज्यों दिव्य गुण एवं दिव्य सुख उभरेगा, त्यों-त्यों संसार की चोटें आपके चित्त पर कम असर करेंगी।

ऐसा नहीं कि परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया तो आपकी कोई निंदा नहीं करेगा, आपका कोई विरोध नहीं करेगा, आपके सब  दिन सुखद हो जायेंगे। नहीं….. परमात्म-साक्षात्कार हो जाय फिर भी दुःख तो आयेंगे ही। भगवान राम जैसे राम को चौदह वर्ष का बनवास मिला, युधिष्ठिर को बारह साल का वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास मिला। बुद्ध हों या महावीर,कबीर हों या नानकदेव, रमण महर्षि हों या रामकृष्ण, रामतीर्थ हों या पूज्य लीलाशाहजी बापू…. विघ्न बाधाएँ तो सभी देहधारियों के जीवन में आती ही हैं लेकिन विघ्न बाधाओं का प्रभाव जहाँ पहुँच नहीं सकता, उस आत्मसुख में वे महापुरुष इतने सराबोर होते हैं कि जीते जी इन विघ्न-बाधाओं में होते हुए भी वे मुक्तात्मा होते हैं।

जैसे जंगल में आग लग जाने पर सयाने पशु सरोवर में खड़े हो जाते हैं तो जंगल की आग उन्हें नहीं जला सकती। ऐसे ही जो महापुरुष आत्मसरोवर में आने की कला जान लेते हैं, वे संसार की तपन के समय अपने आत्मसुख के विचार कर तपन के प्रभाव से परे हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 109

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