तब लग दोनों एक हैं….

तब लग दोनों एक हैं….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा हैः

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान।

तब लग दोनों एक हैं क्या मूरख अरु विद्वान।।

कोई अनपढ़, गँवार और मूर्ख हो एवं अध्यात्मविद्या से अनजान हो अथवा कोई अध्यात्म विद्या का बड़ा जानकार हो, बड़ा पंडित, उपदेशक अथवा कथाकार हो लेकिन उसके अंदर अगर काम, क्रोध, लोभ और मोह हो तो दोनों समान ही हैं क्योंकि गँवार भी अपनी उम्र बेचकर जी रहा है और पंडित भी संसार के दलदल में फँसकर अपनी आयु गँवा रहा है।

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान… अगर हृदय में इन चीजों को जगह दी तो फिर शाश्वत शांति नहीं मिलती, शाश्वत सुख नहीं मिलता, शाश्वत को पाने की सूझबूझ नहीं मिलती और शाश्वत शांति नहीं मिली तो फिर अशांतस्य कुतः सुखम् ? अर्थात् अशांत को सुख कहाँ ?

काम क्रोधादि दोषों के कारण ही व्यक्ति राग-द्वेष, वैर विरोध, कलह-विवाद आदि में पड़ता है और अशांत हो जाता है। इसलिए अपने हृदय में द्वेष रखने की अपेक्षा द्वेष निकालने का उपाय खोजना चाहिए। मारपीट अथवा लड़ाई झगड़ा करने की जगह तटस्थ होकर विचारें तो लगेगा कि 90 प्रतिशत बेवकूफी हमारी ही है और 10 प्रतिशत जिससे हम द्वेष करते हैं उसकी है या उसे भिड़ाने वाले की है। जैसे हम दूसरों के दोष देखने में सतर्क रहते हैं वैसे ही हम अपने दोष देखने में सतर्क हो जायें और जैसे अपने गुण देखने में सतर्क होते हैं, वैसे ही सामने वाले के गुण देखें तो राग-द्वेष से बच जायें।

राग-द्वेष, छल-कपट इत्यादि हमारी क्षमताओं को हर लेते हैं। जैसे पूनम, एकादशी आदि पर्वों का संसार-भोग स्वास्थ्य और प्रसन्नता को हर लेता है और एकादशी, पूनम का  व्रत, ध्यान-भजन, संयम हमारे पापों को हर लेता है वैसे ही भगवद् चिंतन, भगवद् ध्यान, औदार्यचिंतन और ऊँचा उद्देश्य हमारे राग-द्वेष को, हमारी अशांति को, हमारे कष्टों को हर लेता है।

जैसे, सूर्य के उदित होने से वसुंधरा का तिमिर भाग जाता है, वैसे ही ईश्वरप्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य हमारे जीवन में से काम-क्रोधादि शत्रुओं को भगा देता है।

चाहे घर में रहो या पड़ोस में, चाहे ऑफिस में रहो या व्यापार में लेकिन तुम्हारे हृदय में अगर द्वेष बना रहा तो फिर विद्वान होने पर भी तुम्हारे बुरे हाल होते रहेंगे। भाई-भाई का द्वेष, अधिकारी-अधिकारी का द्वेष, देवरानी-जेठानी का द्वेष, पड़ोसी-पड़ोसी का द्वेष, व्यापारी-व्यापारी का द्वेष….. उनको परेशान करता रहेगा।

दो व्यापारी थे। दोनों में बड़ी मित्रता थी। दोनों की दुकानें आमने-सामने थीं फिर भी दोनों में बड़ा स्नेह था। एक के मुनीम ने देखा कि सामने वाले का धंधा बहुत चलता है। ‘वह हमारे ग्राहक खींच लेता है। हमने थोड़ा कमा लिया तो कया हो गया ?’ ऐसा कहकर मुनीम ने अपने सेठ को भड़काया।

इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा करते-करते दोनों के बीच जो स्नेह की सरिता थी वह सूख गयी और परस्पर द्वेष की आग भड़कने लगी, दोनों बड़े दुःखी हो गये और मित्र में से शत्रु बन गये।

उस नगर में एक महात्मा आये। दोनों व्यापारियों ने महात्मा का सत्संग सुनाः “द्वेष बड़ा हानिकारक है। जिसके प्रति द्वेष है उसको तो बाद में नुकसान है लेकिन जिस हृदय में द्वेष होता है उसकी सुख-सरिता को वह पहले जला देता है। द्वेष रखना समझो, अपनी तबाही करना है। द्वेष और कपट अपनी बरबादी के, अपने पतन के मुख्य साधन हैं। जिसके मन में द्वेष और छल-कपट नहीं और जो सबसे सरलता का व्यवहार करता है वह भवसागर से पार हो जाता है।

कपट गाँठ मन में नहीं सबसों सरल सुभाव।

नारायण ता दास की लगे किनारे नाव।।

मन में कपट न रखें, द्वेष न रखें। हम लोग भजन तो करते हैं, मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे में भी जाते हैं लेकिन हृदय मंदिर को साफ-सुथरा रखने पर ध्यान नहीं देते इसलिए बाहर के मंदिर में भी घूमते रह जाते हैं, हृदय मंदिर की परमात्म गहराई में नहीं पहुँच पाते हैं।

याद रखना तुम्हारा जन्म संसार के विषयों में पच मरने के लिए नहीं हुआ है। तुम बाहर के मंदिर में भले जाओ, साधना कक्ष में भले जाओ लेकिन हृदय मंदिर में पहुँचने का यत्न भी अवश्य करना ।

बाहर के मंदिर में जाने का फल है कि हृदय मंदिर में पहुँचाने वाले संत मिल जायें, सत्संग मंदिर में पहुँच जायें और सत्संग सुनते-सुनते सत्यस्वरूप ईश्वर की शांति पा लें, ईश्वर का माधुर्य पा लें, ईश्वरीय आनंद पा लें।

ईश्वर सर्वत्र है, सदा है सबमें है। आप जिससे द्वेष करते हो उसकी गहराई में बैठे हुए परमात्मा के प्रति भी आप थोड़ी नफरत की ही धारणा बना लेते हो। किसी से आपके कोई विचार नहीं मिलते नहीं मिलते हैं लेकिन जो विचार मिलते हैं इस कारण तो उनसे स्नेह करें।

कोई विचार नहीं मिलता…. लेकिन एक सिद्धान्त तो मिलता है कि सबकी आँखों को देखने की सत्ता परमेश्वर की है, सबके कानों में सुनने की सत्ता परमेश्वर की है, सबकी जिह्वा में चखने की सत्ता परमेश्वर की है, सबके दिलों में धड़कन परमेश्वर की है। ‘मेरे प्रभु की सत्ता के बिना क्या मेरा दुश्मन देख सकता है ? मेरे प्रभु की सत्ता के बना क्या मेरे शत्रु के दिल की धड़कनें चल सकती हैं ? चाहे वह कितना भी द्वेष करे… द्वेष उसकी मति में है, मेरी मति में है लेकिन दोनों की गहराई में तो तू ही है प्रभु !’ ऐसा करके अपने हृदय को शीतल बनायें तो द्वेषी का द्वेष देर-सवेर प्रेम में बदल जायेगा। यह दर्शनशास्त्र की बात है, ब्रह्मज्ञान की ऊँची बात है।

पाश्चात्य जगत के महान दार्शनिक सुकरात ने अपने सत्संग में कुछ कह दिया होगा। एक व्यक्ति ने उसे अपने लिए कहा गया मान लिया और कसम खा लीः ‘जब तक सुकरात की हत्या न करूँगा तब तक चैन की नींद न लूँगा।’

किसी ने सुकरात को बता दिया कि फलाने व्यक्ति ने आपकी हत्या करने की कसम खा ली है।

सुकरात ने कहाः “हम भी कसम खाते हैं।”

“आप कसम खायेंगे ?”

“हाँ, मैं भी कसम खाता हूँ कि जब तक उसे अपना मित्र न बना लूँगा तब तक चैन से न जीऊँगा।”

लोगों को हुआ कि देखते हैं कि अब द्वेषी का द्वेष जीतता है कि सुकरात की समता और प्रेम जीतता है ?

सुकरात के हृदय में तो किसी के लिए नफरत नहीं थी, वे तो किसी को भी पराया नहीं मानते थे, किसी का भी अमंगल नहीं चाहते थे। उनके पास समता थी, हृदय सबके कल्याण की भावना से परिपूर्ण था, उनके हृदय में प्रेम था।

जिसके हृदय में प्राणिमात्र के लिए प्रेम है उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। वह व्यक्ति अपने विचार से ही त्रस्त हो उठा एवं उसकी अंतरात्मा लानत बरसाने लगी कि इतने महान पुरुष के लिए इतना बुरा विचार किया ? आखिर उससे रहा न गया। वह जाकर सुकरात के चरणों में गिर पड़ा और बोलाः “मैंने आपके लिए इतना बुरा सोचा, मैं अशांत हो गया हूँ। कृप्या, आप मुझे माफ कर दें।”

सुकरातः “मित्र ! आप मुझे माफ करें।”

“आप यह क्या कह रहे हैं ?” यह कहते-कहते तो वह पानी-पानी हो गया।

राग-द्वेष रहित चित्त बनाना बड़ा बहादुरी का काम है। परमात्मा प्राप्ति का कार्य उसके लिए बड़ा सहज हो जाता है।

क्यों किसी से द्वेष करना ? द्वेष करना ही है तो अपने दुर्गुणों से द्वेष करें, काम-क्रोधादि से द्वेष करें। किसी के दोष देखकर उससे द्वेष करने की जगह अपने दोषों से द्वेष करें। लेकिन मैं इस बात पर भी इतना राजी नहीं हूँ…. अपने दोषों से द्वेष करेगा तब भी चिंतन तो करेगा कि ‘मुझमें यह दोष है।’ अतः, न दूसरों के दोषों का चिंतन करो न ही अपने दोषों का चिंतन करो वरन् अपनी और दूसरों की गहराई में जो रहता है उस परमेश्वर का ही चिंतन करो। यदि केवल उस परमेश्वर का ही चिंतन करोगे तो अन्य चिंतन स्वाभाविक ही छूट जायेंगे। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा हैः

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान।

तब लग दोनों एक हैं क्या मूरख अरू विद्वान।।

अतः इन विकारों से बचने का प्रयत्न करें।

स्वभावः विजयः शौर्यं।

श्रीकृष्ण भागवत में कहते हैं- “अपने स्वभाव पर विजय पाना ही शौर्य है, वीरता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 109

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