मन एक कल्पवृक्ष

मन एक कल्पवृक्ष


मन के साथ यदि मित्रता की जाये, विवेक से उसे उच्च लक्ष्य की ओर मोड़ा जाये तो वह बड़ा लाभ दे सकता है और यदि उसकी अधीनता स्वीकार करके, उसके कहे में आकर बह गये तो वह वह मन बड़ी हानि भी पहुँचा सकता है। इसीलिए शास्त्रों ने कहा हैः

मनः एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।

ʹमन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है।ʹ

यदि मन अनात्म देह में, अनात्म भोगों में, अनात्म जगत में आकर स्थित होता है तो वह मनुष्य का शत्रु हो जाता है और वही मन अगर आत्मा-परमात्मा की ओर आकर्षित होता है, परमात्म-संबंधी बातों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करता है तो वह मन मित्र का काम करता है और सूक्ष्मता को पाकर परम सूक्ष्म परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार भी कर लेता है।

मन जितना-जितना सूक्ष्म होता जायेगा, उतनी-उतनी विश्रांति अच्छी लगेगी और जितनी-जितनी विश्रांति लेंगे, उतना-उतना मन सूक्ष्म होगा।

मनुष्य का मन जितना स्थूल होगा, उसे जगत उतना सच्चा लगेगा, भोगों के प्रति आकर्षण होगा और वह तुच्छ होता जायेगा। जितना-जितना उसे जगत स्वप्न जैसा लगेगा, भोगों से उपरामता होगी और उसका मन सूक्ष्म होता जायेगा एवं विश्रांति लेता जायेगा, उतना-उतना वह व्यक्ति महान होता जायेगा।

चित्त की विश्रांति क्यों नहीं होती ? ध्यान क्यों नहीं लगता ?

हम बदलने वाले संसार को, बदलने वाली परिस्थितियों को हृदय में इतनी जगह दे बैठे हैं कि चित्त की विश्रांति नहीं हो पाती है। अगर अपने स्वरूप को पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाये और तत्संबंधी प्रयास करें तो विश्रांति पाना आसान हो जाये। तेरह निमेष तक परब्रह्म परमात्मा में विश्रांति पाने से जगतदान करने का फल प्राप्त होता है। सत्रह निमेष तक उस सच्चिदानंद परमात्मा में डूबने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल मिलता है और यदि कोई आधा घण्टा तक उस परमात्मस्वरूप में विश्रांति पा ले तो वह यक्ष, गंधर्व, किन्नरों और देवताओं से भी पूजे जाने योग्य हो जाता है।

यदि कोई प्रारंभिक जिज्ञासु है, ईश्वर की ओर चल रहा है, उसके सामने दो-चार कर्त्तव्य एक साथ आ जाते हैं और वह व्यावहारिक कर्त्तव्यों को मूल्य देता है, स्थूल जगत को सत्य मानकर जीनेवालों की बातों को मूल्य देता है तो बेचारा उलझ जाता है और उसका समय उसी में नष्ट हो जाता है। अगर वह विवेकशील है तो कर्त्तव्य उसे व्यवहार में तो खींचेंगे जैसे, पत्नी के प्रति कर्त्तव्य, पति के प्रति कर्त्तव्य, समाज के प्रति कर्त्तव्य और देह के प्रति कर्त्तव्य… फिर भी वह इन कर्त्तव्यों में उलझेगा नहीं और उसका अपना जो वास्तविक कर्त्तव्य है – अपने आत्मस्वरूप को जानने का,  उसी को महत्त्व देगा।

व्यक्ति की जैसी मति और जैसा उसका संग होगा वैसे ही कर्त्तव्यों को वह मूल्य देगा। अगर उसकी मति श्रेष्ठ है, उसका संग ऊँचा है तो वह ऊँचे कर्त्तव्यों को मूल्य देगा। यदि उसकी मति मध्यम है तो वह मध्यम कर्त्तव्यों को मूल्य देगा और यदि उसकी मति हल्की है तथा उसका संग भी हल्का है तो फिर वह निम्न कर्त्तव्यों को मूल्य देगा।

स्वामी रामतीर्थ कहा करते थेः “कर्ज लेकर, उधार लेकर बेटे बेटियों की शादी की खुशी मनाना-हाय रे तेरा फर्ज ! … घूस लेकर, रिश्वत लेकर भी ठाठ-बाट करना – हाय रे तेरा फर्ज !…. छल-कपट करके भी देह-वस्त्र-घर को सजाना-हाय रे तेरा फर्ज !…. हे मानव ! क्या तेरा यही फर्ज है ? जिंदगी भर चिन्ताओं की गठरियाँ उठाते रहना, अन्तःकरण को मलिन करते रहना-क्या यही तेरा फर्ज है ? नहीं, तेरा मुख्य फर्ज है आत्मसिंहासन पर आने का, अपने आत्मराज्य में आने का, अपने असंग स्वभाव में नहीं आयेगा और प्रकृति के स्वभाव में बहता रहेगा तो फिर कौन से शरीर में तू अपना वास्तविक फर्ज निभायेगा ?”

जब मानव का विवेक सजाग हो उठता है तब उसे ये विचार सहज ही आने लगते हैं किः ʹमैं कब तक सामान्यजों की नाईं राग-द्वेष, अस्मिता और अभिनिवेश में आकर अपना जीवन बरबाद करता रहूँगा ? एक दिन…. दो दिन… सप्ताह… मास… वर्ष…. ऐसा करते-करते समय बीतता चला जा रहा है और जो करने जैसा कार्य है – आत्मस्वरूप में विश्रांति पाने का – उसकी मुझे सुधि तक नहीं है ! मैं कब तक ऐसी माया में फँसा रहूँगा ?…ʹ इस प्रकार का जगा हुआ विवेक मनुष्य को सहज ही में परमात्मप्राप्ति के लक्ष्य की ओर प्रेरित करने लगता है, संसार के भोगों से वैराग्य बढ़ाने लगता है और वह पहुँच जाता है किसी संत-महापुरुष के सान्निध्य में।

भोगी पुरुष की अधिक सेवा करने से बुद्धि मंद हो जाती है, नीच प्रकृति के व्यक्तियों की सेवा करने से लाभ नहीं, वरन् हानि ज्यादा होती है जबकि उच्च प्रकृति के व्यक्तियों की सेवा करने और उनके सान्निध्य़ से परम लाभ होता है। इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा हैः

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।

साधु कौन है ? साध्यते परम कार्यं येन सः साधुः।

जिसने अपना परम कार्य साध लिया है, उसे ʹसाधुʹ कहते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह प्रयत्नपूर्वक साधु पुरुषों की संगति करे एवं उनके मार्गदर्शन के अनुसार साधना करके लक्ष्य-प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होता रहे।

तुलसीदास जी ने कहा हैः

यह तन करू फल विषय न भाई।

इस शरीर का फल यह नहीं है कि विषय-भोग मिलें। इस मानवशरीर का फल तो है अपने स्वामी को, परम प्यारे को, परम हितैषी परमात्मा को जानना। गीता में भगवान ने कहा भी हैः

सुहृदं सर्वभूतानां….. ʹमैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ।ʹ वास्तव में केवल वही परमात्मा सबका सुहृद है। संसार के जो लोग बाहर से सुहृद दिखते हैं वे तो चार छः दिन के या केवल शमशान तक के सुहृद हैं, जबकि वह परम सुहृद परमात्मा तो सदियों से हमारे साथ था, है और रहेगा। हम उस परम सुहृद से जुड़ जायें तो हमारा बेड़ा पार हो जाये।

यह हम जानते हैं फिर भी उससे जुड़ नहीं पाते। क्यों ? क्योंकि हम मन-इन्द्रियों से जुड़ जाते हैं, जगत को सच्चा मानकर उससे जुड़ जाते हैं और उसी में इतने उलझे जाते हैं कि उस परम सुहृद से, उस अपने आत्मस्वरूप से जुड़ने का समय ही नहीं मिलता। हालाँकि हम सभी यह जानते हैं कि जगत के ये संबंध सदैव रहने वाले नहीं हैं फिर भी हम उसी के पीछे लगे रहते हैं।

भोले बाबा ने बड़ी सुंदर बात कही हैः

मानव ! तुझे नहीं याद क्या, तू ब्रह्म का ही अंश है ?

कुलगोत्र तेरा ब्रह्म है, सदब्रह्म का तू वंश है।।

संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहना यहाँ।

कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य निष्कंटक जहाँ।।

जो बदलती हुई चीजों को ʹमेराʹ मान लेता है और साधन को ʹमैंʹ मान लेता है तथा वास्तविक साध्य का जिसको पता नहीं है, जिसके लिए साधन मिला है उस उद्देश्य का जिसको पता नहीं है – वह संसारी है। आँख देखने का साधन है, कान सुनने का साधन है, मन सोचने का साधन है, बुद्धि निर्णय करने का साधन है। इन साधनों का उपयोग करके  हम चाहें तो अपने परम लक्ष्य परमात्मतत्त्व को पा सकते हैं लेकिन इन साधनों को ही ʹमैंʹ मानने की गलती कर बैठते हैं इसीलिए बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।

यह जरूरी नहीं कि हर जन्म में ये ही साधन और ऐसी ही बुद्धि मिले। यदि पशु-योनि मिलती है तो बुद्धि बहुत घट जाती है, मन की योग्यताएँ कम हो जाती हैं, शरीर की योग्यताएँ भी बदल जाती हैं। अरे, मनुष्य जन्म में ही बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में मन-बुद्धि-इन्द्रियों की क्षमता में अंतर आ जाता है, इतर योनियों की तो बात ही क्या ? बचपन का मन बेवकूफी से भरा हुआ होता है, जवानी का मन विषय-विकारों से भरा हुआ होता है और बुढ़ापे का मन फरियाद से भरा हुआ होता है। लेकिन बचपन, जवानी और बुढ़ापा तो देह की अवस्थाएँ हैं, आपकी नहीं। आप न बालक हो न जवान हो  न बूढ़े हो। वास्तव में जो आप हो उसमें न फरियाद है, न  विकार है और न ही बेवकूफी है। आप तो सबमें व्याप्त, सदा एकरस आत्मा हो। अपने उस वास्तविक स्वरूप को जान लो तो हो जाये बेड़ा पार…

इसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन का सहयोग लो। जिसका अंतःकरण अत्यंत शुद्ध है वह तो श्रवणमात्र से ज्ञान पा सकता है। जिसके कुछ कल्मष शेष हैं वह पहले जप-ध्यानादि करके अंतःकरण को शुद्ध करे, यत्नपूर्वक श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करे, तब उसे बोध होगा जो उससे भी ज्यादा बहिर्मुख है उसका मन तो जप-ध्यानादि में भी शीघ्र नहीं लगेगा। अतः वह पहले निष्काम सेवा के द्वारा अंतःकरण को शुद्ध करे। ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता जायेगा, त्यों-त्यों जप ध्यान में मन लगता जायेगा। फिर वह सत्शास्त्र एवं सदगुरु के वचनों का श्रवण करे, मनन एवं निदिध्यासन करे तो ज्ञान को पा लेगा।

साधक को चाहिए कि वह सजातीय वृत्तियों का आदर करे और विजातीय वृत्तियों का त्याग कर दे। सजातीय वृत्ति क्या है ? जो आत्मज्ञान के मार्ग पर हैं उनसे आत्मज्ञान संबंधी शास्त्रों का श्रवण, मनन एवं आत्मवेत्ता महापुरुषों के सान्निध्य में रहने का भाव ʹसजातीय वृत्तिʹ है।

आत्मज्ञान के पथिक को संसारी सुख के प्रसंगों से तो बचना ही चाहिए, संसारी सुख में जो उलझे हुए हैं ऐसे संसारियों से भी बचना चाहिए।

इस प्रकार सावधानी, सतर्कता, विवेक एवं वैराग्य को अपनाकर आप भी उसी तत्त्व को पा सकते हो, जिसमें भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, ब्रह्माजी, भगवान शिव एवं अन्य अनेकों नामी अनामी महापुरुष रमण कर रहे हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2000, पृष्ठ संख्या 19-22, अंक 86

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