वास्तव में इस जीव का साथ तो सत के साथ है, बाकी सब असत संग हैं, असत मान्यता हैं कि मेरे ये साथी है.. मेरा जीवनसाथी हैं, मेरा जीवनसाथा है। सचमुच में तो जीवनसाथी परमात्मा के सिवा और कोई हो ही नही सकता। वास्तविक जीवन तो परमात्मा हैं। शरीर वास्तविक जीवन नहीं है तो वास्तविक जीवन का साथी कौन होगा? ये असत का संग जो घुस गया है अंदर उसको निकालें.. बढ़िया व्यवहार होगा।
दीए की रोशनी में जो व्यवहार होता है, धुँधला होता है और उसके बुझने
का डर होता हैं और बुझ ही जाता हैं तेल ना डालो तो। और तेल कब तक सींचते रहोगे?
दीया बुझता रहता है फिर जलता रहता है, बुझता
रहता है फिर जलता रहता है, ऐसे ही असत संग बनता रहता है, बिगड़ता रहता है, बनता रहता है बिगड़ता रहता है। सूरज
की रौशनी होते ही दीए के प्रभाव सब उसी में तिरोधाहित हो जाते है। ऐसे ही
आत्मसूर्य के प्रकाश में जीओ तो जीवत्व के सारे प्रभाव उसमें तिरोहित हो जाएँगे। ये
सब बल्ब अभी जोर मार रहे है, आहा! रौशनी दे रहे हैं, बेचारे दाता हैं लेकिन दो घण्टे के बाद देखो तो इनका
क्या हाल होता है! सूर्य की रोशनी आते ही देख लो सब नन्हे हो जाएँगे । ऐसे ही आत्मसूर्य
में नहीं जगे तब तक… अरे! कि.. ये तो दसवीं पढ़ता हैं मैं तो आठवी वाला हूँ,
दसवीं वाला बोलता है ये तो बी.ए है मैं तो दसवीं हूँ, बी.ए वाला बोलता हैं ये तो एम.डी. है मैं तो
केवल बी.ए. हूँ, इसके पास तो दो
मकान है, चार गाड़ियाँ है, मेरे पास तो खाली एक है लेकिन ज्ञानसूर्य उदय होने दो तो
जैसे सारे छोटे-मोटे बल्ब और दीए उसमें समा जाते है, ऐसे ही
तुम असत की आसक्ति छोड़कर सत्य के ज्ञान में आ जाओ तो तुमको लगेगा – सारे बी.ए
वाले, एम.डी वाले, दो
गाड़ी वाले, दस गाड़ी वाले, पच्चीस गाड़ी
वाले सारे मुझ चैतन्य में खेल रहे हैं! सोहम्… शिवोऽहं!
उस ईश्वर के प्रसाद से, ईश्वर के नाम भी ऋषियों ने गजब के रखे हैं!
ऐसे खोज लिए हैं कि उस नाम का प्रभाव अपने रक्त के कण पर पड़े, अपने मन पर पड़े, अपनी बूद्धि पर पड़े। गए दिन, यूरोप
में कुछ रिसर्च करने वालों ने क्या करा.. एक गायिका थी । उसने सामवेद की ऋचाओं का
अध्ययन किया था और उसने सुन रखा था भारतीय शास्त्रों से कि शब्द के पीछे आकृति
होती
हैं, शब्द के पीछे उसका प्रभाव होता है। भले
गलत शब्द बोलो, गंदा बोलो फिर भी
गाली का असर होता है। अभी मैं एक दो कटु गाली दूँ तो तुमको लगेगा अरे! बापू ऐसा बोलते
हैं? है तो झूठमूठ! है तो शब्द! दो शब्द मीठे बोले- कैसे हो
क्या हालचाल है? बहुत दिन के बाद आये, बड़ी कृपा किया दर्शन
दिया…। आप लोग बोलोगे- देखो बापू कितने अच्छे हैं और… अरे क्या गाँव-गाँव मे घूमते…
फिर इधर से सिर खपाने को आ गए सुबह सुबह, हट…। है तो शब्द ही लेकिन कैसा असर होता
है!
तो शब्द निकलते जहाँ से हैं वहाँ चैतन्य है और शब्द सुनकर जहाँ उसका
असर पड़ता है वो चैतन्य है! चैतन्य के स्पन्दन हैं इसीलिए उसका असर हो जाता हैं। …तो,
हैं तो तरंग मिथ्या, पानी ज्यों का त्यों लेकिन
जब तरंग होता हैं तो पानी का सही नमूना दिखता ही नही! ऐसे ही चित्त तरंगित होता
रहता हैं असत संग से, इसीलिए आत्मा का सही स्वरूप दिखता नहीं और आत्मा का सही
स्वरूप दिखता नहीं इसीलिए दुःख मिटता नहीं। दुःख मिटता नहीं, चिंता जाती नहीं, वासना मिटती नहीं तो सत का संग
करें, वासना मिटेगी। वासना मिटेगी तो दुःख जाएगा और
दुःख जाएगा तो सुख का लालच भी जाएगा, दुःख का भय भी जाएगा। सुख का लालच और दुःख का
भय, ये दोनों असत के संग से आते हैं।
असत संसार, मिथ्या शरीर को ‘मैं’ सच्चा मानते
हैं, मिथ्या भोग को सच्चा मानते हैं, मिथ्या
संबंध को सच्चा मानते हैं, असली सच्चे सबंध का ज्ञान नहीं। पूजा-पाठ भी करते हैं, नमाज
भी अदा कर लेते हैं, चर्चों में जाकर प्रार्थना भी करते हैं,
मंदिरों में जाकर पूजा भी करते हैं लेकिन असत के संग को त्यागने पर
ध्यान हम लोग नहीं देते, इसीलिए पूर्णता का अनुभव नहीं होता।
असत के संग का, असत के प्रभाव का पोल खोल दे,
ऐसा जब सत्संग मिलता हैं, असत के प्रभाव का पोल खोल दे ऐसा
जब हम दृढ़ता से लगते हैं तो फिर इस असत संसार में, असत संबंधों
में रहते हुए भी- असत आकर्षण, असत चिंता, असत भय, असत शोक आपके ऊपर असर नहीं करेगा क्योंकि आप
सत्य में खड़े हैं। जीरो बल्ब बुझ गया या पच्चीस का बुझ गयाया पचास का चालू हो गया या सौ का लाईट चालू हो गया
लेकिन आपको मध्यान्ह का सूर्य हैं तो उनका क्या फरक पड़ता हैं? चालू होवे चाहे बंद होवे, चाहे छोटा बने चाहे
बड़ा बने। ऐसे ही साक्षी सच्चिदानंद परमेश्वर तत्व का
ज्ञान देने वाले कोई विरले ब्रह्मज्ञानी गुरू होते हैं! उनमें जब दृढ श्रद्धा होती
हैं … । और श्रद्धा के बिना तो मनुष्य पशु से भी बदतर हैं ।
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्
खाना पीना और शारीरिक संभोग करना, मुसीबत आए तो डर जाना, ये तो पशु भी करता हैं लेकिन मनुष्य में एक खतरा और भी ज्यादा है, पशु करता हैं तो बेचारा निखालस करता हैं, खुले मैदान करता हैं जो भी कुछ करता हैं। खाता-पीता हैं तो खा लिया फिर संग्रह नही करता है उसे। उं… उं… उं… ओं… ओं… ओं… कर लिया तो कर लिया लेकिन मनुष्य तो अच्छा करता है तो दुनिया-भर को दिखाता है और बुरा करता हैं तो किसी को पता न चले। इतना पैसा है- किसी को पता न चले, क्या है-किसी को पता न चले तो ये असत के ऊपर और असत वस्तुओं के लिए और अपने आत्मा को कमजोर करता जाता हैं। इसके लिए मनुष्य के लिए झंझट ज्यादा हैं फिर भी मनुष्य श्रेष्ठ हैं क्योंकि वो पशु-पक्षी जो हैं वो असत का संग त्यागने का सत्संग नही सुन सकते! असत के प्रभाव को अपने मन से हटाने की विद्या वो नही समझ सकते हैं और मनुष्य समझ सकता हैं इसीलिए मनुष्य श्रेष्ठ हैं।
कौआ पचास वर्ष से जिस ढंग से जैसा घोंसला बनाता हैं ऐसे ही बनाता रहता हैं सैकड़ों वर्षों से। गाय कभी गाली नहीं देती और कौआ कभी मुकदमा नहीं लड़ता और दीवाल किसी की चोरी नहीं करती लेकिन जहाँ हैं वैसे के वैसे हैं। मनुष्य गाली भी देता हैं, केस-मुकदमा भी करता हैं, चोरी भी करता हैं, झूठ भी बोलता हैं, क्या-क्या करता हैं फिर भी अगर सत्संग मिल जाता हैं और वो मुड़ जाता हैं तो वाल्या लुटेरा में से वाल्मीकि ऋषि हो जाता हैं, महामूर्ख में से महाकवि कालिदास प्रगट हो जाता हैं। ऐसा कौआ कोई हो गया क्या? चिड़िया हो गई क्या? अगर कहीं हुआ कागभूसंडीजी जैसा तो उन्होंने असत के संग का त्याग करने की बूद्धि पाई, गुरुओं का सत्संग पाया।
तो अब आज के सत्संग में हम ये समझेंगे कि दुःख असत हैं! इसीलिए दुःख
आ जाए तो असत से डरो मत। सुख असत है। सुख मिले तो उसको चिपको मत। संबंध असत हैं, कोई
आता हैं तो एक सलाम, जाता है तो सौ सलाम और कभी दुनिया में नहीं आता तो हजार सलाम!
मुक्त हो गया।
“हाय रे मेरे पिता, हाय रे मेरे पापा, हाय रे मेरी पत्नी, हाय रे मेरा पति” ऐसा करने की अपेक्षा जब उसकी याद आए तो कह दो कि अब्बाजान तुम्हारा शरीर गया लेकिन तुम्हारा आत्मा अथवा तुम्हारे अंदर में जो खुदा हैं जिसकी शक्ति से धड़कने चलती हैं उसी का तुम चिंतन करो। बेटे-बेटियों का क्या होगा… अब्बाजान फिकर न करो और तुमको भले कब्र में पुर के आए लेकिन तुमको हम नही पुर सकते, तुम्हारे शरीर को कब्र में पुरा है, कितनी भी बड़ी मजार बना लेंगे ,अंदर में तो सडी हुई हड्डियाँ, मांस और गँदगी होगी लेकिन तुम्हारी रूह, आत्मा अमर है, अपने परमात्मा को जानो, अपने चैतन्य का चिंतन करो- फिकर न कर्तव्यम अब्बाजान। कर्तव्यम जिकरे खुदा! खुदाताला प्रसादेन सर्वकार्यं फतेह भवेत्… जब तुम खुद खुदा के चरणों में जाओगे, हमारे कार्य फतह हो जाएँगे! ऐसा बोलो अपने अब्बाजान को या अपने जो भी गया उसको।
ऐसे ही मन को भी सिखाओ – फिकर न कर्तव्यम…फिकर न करो …
हे च फिकर मत कर्त्यव्यम, कर्त्यव्यम जिकरे खुदा… उस ईश्वरत्व का जिक्र करो।
ईश्वर कैसा है? ईश्वर साक्षी हैं! ईश्वर मेरा है, मैं ईश्वर का हूँ! ईश्वर ज्ञानस्वरूप हैं। वह रोम-रोम में रम रहा हैं, उसका चैतन्य स्वभाव है
इसीलिए वो चैतन्य रोम-रोम में रमनेवाला राम है।
गले में तो साँप हैं, भुजाओं में साँप, कमर में तो वाघंबर है, माला तो मुंडों की, भभूत लगाई हुई शमशान की …ये भगवान शिव के दर्शन से क्या पता चलता हैं? कि हाथों में, गले में संसार रूपी सर्प हैं। अंग को जो रमाया है, किसी साधारण आदमी की भभूत नहीं, जिन्होंने असत संग का त्याग करके देह को असत मानकर, मर गया तो मर गया खाक हो गया तो हो गया और मैं अमर आत्मा हूँ ऐसा अनुभव किया , ऐसे महापुरुषों की राख शिवजी लगाते हैं अपने अंगों पर और “शिव” बोलने मात्र से…
पार्वती ने कहा अपने पिता को कि तुम उनको नीचा दिखाने के लिए यज्ञ कर रहे हो लेकिन तुम मूर्ख हो। जिस भगवान शिव का स्मरण करने मात्र से आदमी निष्पाप होता हैं, ऐसे शिव की महिमा तुम नही जानते। तुम व्यवहार में तो बड़े दक्ष हो, लोकपालों के भी अग्रणी हो, लेकिन परमार्थ में तुम मूर्ख हो। जो व्यवहार की चीजें छूट जाएगी और जो शरीर मर जाएगा, जल जाएगा उसका मान-अपमान थोड़ा हो गया तो उसी में मरे जा रहे हो। शरीर पहले नही था, बाद में नही रहेगा। बचपन भी पहले नही था,तो अभी नही हैं.. बीच में आ गया… इस जन्म के पहले बचपन कहाँ था? और अभी बचपन कहाँ हैं, जवानी हैं। कुछ समय के बाद जवानी कहॉं है, बुढापा हैं। ऐसे ही मृत्यू भी एक पड़ाव हैं। मृत्यू कहाँ हैं? रूपांतर हैं। तो हेच फिकर न कर्त्यव्यम…हाय रे हाय मैं बूढ़ा हो गया हूँ हाय रे हाय मेरा यह हो गया फिकर न कर । जहाँ बुढ़ापे का असर नहीं हैं, जहाँ बीमारी का असर नहीं हैं, जहाँ दुःख का असर नहीं, जहाँ सुख का असर नहीं,जहाँ मान का असर नहीं,जहाँ अपमान का असर नहीं, जहाँ मृत्यू का असर नहीं, जहाँ इस नश्वर देह की कोई सत्यता ही नही हैं, उस परमात्मा का जिक्र करो! वो शिवस्वरूप हैं , कल्याण स्वरूप हैं। वो रोम-रोम में रम रहा हैं इसीलिए वो रामजी हैं। ये इसकी अष्टधा प्रकृति से ही शरीर बना हैं।वह चैतन्य इसलिए जगदम्बा है । जगत की माँ हैं।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।गीता 7.4।।
इसीलिए श्रीकृष्ण आनंदित रहते हैं, निश्चिन्त
रहते हैं, निर्भिक रहते हैं, माधुर्यमय
रहते हैं ,विकारी
वातावरण में रहते हुए भी निर्विकार रहते हैं श्रीकृष्ण! उद्वेग के विचारों में
रहते हुए भी श्रीकृष्ण सदा बंसी बजाते रहते हैं , माधुर्य
छिड़कते रहते हैं ।अशांत आदमी क्या देगा? अशांति देगा । बेईमान
आदमी क्या देगा?बेईमानी देगा! चिंतित आदमी से बात करो तो वही
कचरा देगा! और कृष्ण को देखो सोचो सुनो पढ़ो तो वही देगा ज्ञानस्वरूप!
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
जीव लोकों में, सब में मैं व्याप रहा हूँ।ये सनातन अंश हैं। किसीने
बोल दिया तेरा नाम प्रेमजी हैं, तेरा नाम फिरोज हैं, तेरा नाम मोहन हैं… तेरा नाम वो है, तेरा नाम कौशिक है, बस पक्का कर दिया..
लेकिन ये तो शरीरों के नाम है कमला, शांता,मंगला जो भी नाम रखते .. आजकल तो कैसे नाम रखते हैं टीनू, विकी, मीनू, बबलू…। नाम रखो
भगवतयाद आए! उड़नेवाले प्राणियों का नाम पक्षी रख दिया देखो भगवान की याद आए। चार
पैर वाले प्राणियों का नाम पशु रख दिया ताकि भगवान की याद आए। तो उसी का जिकर हो,
उसी का चिंतन हो , तो आदमी चिंताओं से मुक्त
हो जाएगा, भय से मुक्त हो जाएगा, आकर्षण
से मुक्त हो जाएगा, बेईमानी से मुक्त हो जाएगा, शोषण करने से मुक्त हो जाएगा और शोषित होने से मुक्त हो जाएगा, बुद्धि खुलेगी! अभी तो जरा-जरा बुद्धि हैं टिमटिमाती दीए जैसी लेकिन मध्यान्ह
का सूर्य तो सबको एक जैसा मिलता हैं! ऐसे ही जो ज्ञानी हो जाते हैं उनकी बुद्धि तो
बड़ी विलक्षण होती हैं। सूर्य को उदय करना हैं कि अब टिमटिमाते दीए में झोंके खाने
हैं मर्जी तुम्हारी हैं। बोले- “महाराज! हमारी मर्जी
हैं ज्ञान का सूर्योदय करने का। महाराज! देखो सूर्योदय भी नहीं हुआ। वहाँ तो इस
समय तो बेड टी होती हैं, यहाँ तो महाराज!ठिठुर रहे
हैं।”
अब बेड टी मिथ्या हैं, ठिठुरना भी मिथ्या हैं
लेकिन सत्यरूपी सूर्य के लिए जो कुछ करते हैं वो कम हैं और जो कुछ करते हैं वो
पूरा ज्यादा हैं क्योंकि भगवान के लिए कर रहे हैं…। जो कुछ करते हैं वो कम हैं और
जो कुछ करते हैं वो ज्यादा हैं? हाँ! उस ईश्वर के लिए जो भी
कुछ करते हैं वो कम हैं क्योंकि कहाँ तो जगत नियंता, कहाँ वह
सूर्य और कहाँ तुम्हारे दीए! कहाँ वो ब्रह्मा, विष्णु ,महेश का आधार। उसके लिए तुमने जरा जल्दी नहा लिया, जरा
जल्दी आ गए या चार दिन की शिविर भर ली.. । करोडों-करोड़ों जन्म ऐसे ही बर्बाद हुए
हैं तो इस जन्म में कई दिन बर्बाद हो गए, कई रातें बर्बाद हो
गई, कई सप्ताह और कई महीने , कई वर्ष
बर्बाद हो गए! तो उस परमेश्वर के लिए चार दिन निकाले तो बहुत थोड़े हैं और फिर जिसके
लिए निकाले हैं वो चार दिन थोड़े होते हुए भी बहुत हैं क्योंकि बड़े व्यक्ति को चार
रोटी ख़िला दो, अपने घर प्राइम मिनिस्टर आए चार रोटी ख़िला दी, पूरी ख़िला दी तो बहुत हैं! हैं कि नही? अरे! खाली
पानी भी पी लिया उसने प्राइम मिनिस्टर ने आकर, राष्ट्रपति ने
आकर तुम्हारे घर पे पानी भी पी लिया अथवा चार मिनट बैठ भी गया तो तुम्हारी इमेज बन
जाती हैं। ऐसे ही उस परब्रह्म परमात्मा में तुम आए, थोड़ा समय
दिया तो बहुत कम दिया फिर भी जिसके लिए दिया तो बहुत हो गया, संसार की नजर से देखें तो ये बहुत हो गया। मरते समय भी ये संस्कार याद आए
तो हजारों जन्म की मजदूरी मिट जाएगी! ऐसा ये परमात्म तत्व का ज्ञान हैं। शास्त्र
में तो यहाँ तक लिखा हैं कि घड़ी भर उस आत्मज्ञान का श्रवण करें और सत्रह निमेष
उसमें विश्रांति पाए तो बाजपेई यज्ञ करने का फल होता हैं । एक घड़ी उस आत्मज्ञान का श्रवण करके उसमें
विश्रांति पाए तो राजसूय यज्ञ करने का फल होता हैं! तो बहुत हो गया न? राजसूय यज्ञ करने में तो लाखों करोड़ों रुपए खर्च करो और फिर घोड़ा छोड़ो ,
उस घोड़े को कोई नहीं रोके, अजातशत्रु हैं आप
तो हो गया यज्ञ पूरा। रामजी के घोड़े को लव-कुश ने रोक लिया था और युधिष्ठिर के
घोड़े को भी रोक लिया ताकि इस बहाने अर्जुन के दर्शन होंगे और अर्जुन को छुड़ाने के
लिए प्यारा परमात्मा आ जाएगा कृष्ण। उतना ही
पुण्य कहा गया हैं इस सत्यस्वरूप ईश्वर का ज्ञान सुनकर उस आत्मा में विश्रांति पाने
से । बहुत हितकारी हैं! जैसे दुकानदार हैं न दिनभर में पाँच सौ का धंधा करता हैं,
उसकी एवरेज है 400-500-600 में घूमता हैं। और एक दिन सुबह-सुबह कोई
आ गया, शादी का सामान ले गया 1200 का धंधा हो गया, तो क्या दुकान बंद करके घर थोड़े ही जाएगा! और भी करेगा! ऐसे ही तुम्हारे बारह
महीने के पाप-ताप मिटाए ऐसी बोहनी हो गई तो क्या साधन भजन बंद कर दोगे क्या?
ये तो बोहनी हुई हैं, अभी तो ग्राहकी और भी
करना हैं!
हनुमान प्रसाद पोद्दार के यहाँ बहुत लोग सेवा करते थे, काम करते थे, नौकरी धंधा जो भी करते थे। तो कोई-कोई
चोरी भी करता था या कोई कामचोरी करता हैं, कोई कुछ भी करता
हैं। जब वह पकडा जाता था तो उसको बुलाते थे…भाई देखो! तुम चोर तो नहीं हो
…वास्तव में क्योंकि आत्मा तो सदा साहुकार हैं! कितना भी कोई आदमी
चोरी करता हैं उसको बोलो तू चोर हैं तू ऐसा हैं तो उसको पसंद नहीं पड़ेगा! लेकिन तू
तो सज्जन हैं, तू चैतन्य हैं, भाई तेरे
में गुण हैं ,तो अच्छा लगेगा। उसको अपना बनाकर वो सुधारते
थे। बोले- देखो! आप वैसे तो चोर नहीं लेकिन आप को थोड़ी जरूरत पड़ी होगी इसीलिए जरा
थोड़ा गलती हो गया। ये लो पाँच सौ रुपए। वो बोलते हैं चालीस रुपए चुराए लेकिन तुमने
चुराए नहीं, तुमको बहुत जरूरत थी इसीलिए जरा युक्ति से ले
लिए। ये पाँच सौ रुपए जेब में रखो और दुबारा दूसरों को कहने का मौका न मिले ,अपना दिल न बिगड़े आप ऐसी कोशिश करो!”
उस आदमी को ईश्वर का जिकर, परमात्मा के भाव से,
परमात्मा हैं उसमें इस भाव से उस आदमी को प्रेम से जब समझाते तो वो
आदमी फूट-फूट के रोता और उसकी गलती निकल जाती। या दूसरी कोई गलती करता तो- भाई!
देखो ! ये लोग बोलते हैं कि तुमने प्रेस में ये छाप काम में ये गलती किया, ये गलती है, अब अपने को ये गलती अच्छा तो नहीं लगता। ध्यान देना चाहिए
अपनी गलती हो गई हैं तो। दूसरों को आपकी गलती कभी दिखे नहीं ऐसे आप सतर्कता से काम
करो। ऐसा आप काम करो कि लगे कि फलाने आदमी ने काम किया। ऐसा करके उसको समझाते। पवित्र
दिल होते तो जल्दी मान जाते, नहीं तो मूरख तो ताड़न के
अधिकारी होते हैं!
तो अपने जीवन में असत के संग का आकर्षण छोड़ते जाएँ।असत के संग का
आकर्षण छूटते ही सत के सुख का रस आने लगेगा, सत का ज्ञान
विकसित होने लगेगा। ज्यों-ज्यों रात मिटती हैं त्यों-त्यों सुबह आने लगती हैं। ज्यों-ज्यों
रात्रि क्षीण होती जाती हैं त्यों-त्यों प्रकाश बढ़ता जाता हैं। रात्रि क्षीण हुई
पूरी तो प्रकाश पूरा! तो असत की आसक्ति बढ़ाने वाला जो संग हैं उसको दिन में कई बार
आपको झाड़ना पड़ेगा, धोना पड़ेगा। बहुमति क्या हैं कि असत के
संग की बहुमति हैं। देखो मेरो को ये मिल गया, फलाने ने ये
कमाया। मेरा भाई भी बेचारा दिन-भर उसीमें था और आकर मेरे को कहता कि -तुम यहाँ
आँखे मूँद के बैठे हो! फलाने लोगों ने इतना कमा लिया ,तुम
मेरेको छोड़ दिया, इधर आँखे बंद करके बैठे हो! वो देखो इतने
हो गए, अपन देखो यहीं के यहीं! तू बड़ा भगत, कर कसर से जीयो, भाव ज्यादा न लो, धंधा
बढ़ाओ नही, ये नही करो, वो नही करो.. ये
सब तेरी सीख सीख कर अपन तो वही के वही रह गए! और वो लोग कितना ऊपर चढ़ गए! “
अब जो ऊपर चढ़े उनका तो दीवाला भी निकला! और ये बेचारा रिदम से चलता
था तो अभीतक चलता ही रहा! मैंने तो सुना हैं कि वे लोग जो बोलते हैं हमने बहुत
कमाया, बहुत पा लिया वो लोग बेचारे असत वस्तुओं को इतना महत्व
देते हैं सत का तो दब गया- सुख शांति। जो पहले नहीं था बाद मे नहीं रहेगा उस पद को
पाकर अपने को बड़ा मानते हैं। जो पहले नहीं था बाद मे नहीं रहेगा उन डिग्रियों को
पाकर अपने को बड़ा मानते हैं तो शास्त्रकार तो कहते हैं उन्होंने असली बड़प्पन अपना
दबा दिया, असली बड़प्पन खो दिया। इसीलिए इन असत बड़प्पन को
अपने ऊपर थोप रहे हैं। तो जो थोप रहे हैं उन पर तो दया आती हैं लेकिन जिनपर नकली
असत ज्यादा थोपा हैं अौर उनको जो बड़ा मानते हैं, उन पर तो
ज्यादा दया आती हैं। जो असत वस्तुओं को अपने पर थोपकर अपने आप को खो बैठे हैं उनपर
तो दया आती ही हैं, लेकिन अपने आत्मसुख को खोए हुए को बड़ा
मानकर जो लोग उनसे प्रभावित और आकर्षित रहते हैं उनपर तो ज्यादा दया आती हैं। अगर
उनको हम बेवकूफ नहीं कहे तो हम खुद ही बेवकूफ हो जाते हैं। उनकी बेवकूफी को हम
बेवकूफी नहीं मानते तो हम खुद ही बेवकूफ हो जाते हैं। कर्तव्य है जिकर करना ईश्वर का
, कर्तव्य हैं मौत आये उसके पहले अमरता का स्वाद लेना ,
कर्तव्य हैं कि घड़ी में दुःख घड़ी में सुख आने वाले चित्त को बदलना,
ये हमारा कर्तव्य हैं! घड़ी-घड़ी बात में टेंशन , घड़ी-घड़ी बात में दुःख, घड़ी-घड़ी बात में मुसीबत,
घड़ी-घड़ी बात में फड़फड़ाता हैं दिल ! ये तो कर्तव्य हैं असली, ईश्वर
का जिक्र करना परमात्मा का, ब्रह्म का लेकिन उसकी ओर तो
ध्यान जाता ही नहीं, जो फिक्र बढ़ाये वो ही बातें सुनते हैं, जो
फिक्र बढ़ाये वो ही बातें करते हैं, जो फिक्र बढ़ाये वो ही
बातें सोचते हैं! और जो फिक्र-फिक्र में जीवन बर्बाद कर दे, ऐसे ही संग में रहते
हैं इसीलिए ईश्वर को पाना कठिन लग रहा हैं। वास्तव में ईश्वर पाना कठिन नहीं हैं लेकिन
जिनको कठिन नहीं लगता हैं ऐसों का संग, ऐसों के अनुभव के
अनुसार सोचना-विचारना नहीं हैं इसलिए कठिन लग रहा हैं। ईश्वर तो अपना जिगरी जान
हैं।