तुलसीपत्र में तुल गए भगवान…. (बोध कथा)

तुलसीपत्र में तुल गए भगवान…. (बोध कथा)


बाबा मुक्तानंद जी से किसी ने पूछा कि बाबा कहा जाता है कि गुरू को शिष्य की उतनी ही जरूरत होती है जितनी शिष्य को गुरू की । शिष्य की गुरू को जरूरत होती तो ठीक है परन्तु क्या गुरू की भी शिष्य को जरूरत होती है । बाबा ने कहा शिष्य को बारम्बार पग-2 पर अपने से ज्यादा, अपने प्राणों से भी ज्यादा गुरू की जरूरत होती है परन्तु गुरू को शिष्य की जरूरत नहीं होती ।

मनुष्य गुरू को ना समझने के कारण मूर्खतावश उनसे दूर रहता है, परन्तु एक बार वह उन्हें समझ ले तो वह गुरू का ही बन जाता है । जो गुरुभक्त है उसके भक्त हरिहर भी बन जाते हैं गुरुभक्ति का ऐसा महत्व है इसलिए बड़े -2 महात्मा भी गुरुभक्ति की तरफ झुक गये, जो भगवान को ढूंढने जाता है वह भगवान को ढूंढता ही रहता है परन्तु जो गुरू की सेवा करता है उसको भगवान ढूंढने आते हैं कि वह भक्त कहां सेवा कर रहा है ।

सुतीक्ष्ण भरद्वाज मुनि का शिष्य था, बड़ा भक्त था गुरू का । राम जी भरद्वाज जी से जब मिले, भरद्वाज ने रामजी का साक्षात्कार करके बहुत आभार माना कि उसकी साधना सफल हो गई । गुरुभक्ति की महिमा को समझ कर रामजी भरद्वाज के सुतीक्ष्ण की कुटीर में उससे मिलने आये, कुटीर के अंदर गुरू और भगवान को देखकर सुतीक्ष्ण बाहर आया ।

भरद्वाज में सुतीक्ष्ण की महान भक्ति थी, रामजी को देखकर उसे कुछ विस्मय नहीं हुआ, भरद्वाज उसके लिए राम से बहुत ज्यादा बड़े थे । बड़ों के आने से नमस्कार करना आचार है और ना करना ठीक नहीं, सुतीक्ष्ण सोचने लगा पहले किसको नमस्कार करूं ! पर उसने पहले गुरू को ही नमन किया फिर रामजी को । गुरू के साथ ही हरिहर आये हैं रामजी उसे सच्चा गुरुभक्त जानकर बड़े प्रसन्न हो गये ।

भरद्वाज को राम जी लंबी तपस्या के बाद मिले थे, परन्तु सुतीक्ष्ण को भरद्वाज की कृपा से बिना कठिन तपस्या के ही मिल गये । शिष्य जब पूरा गुरू का बन जाता है उसके जीवन का बीमा ही गुरू हो जाते हैं तब गुरू का प्रेम देखकर ऐसा भासता है कि गुरू को शिष्य की जरूरत है । अगर कोई पूछे भगवान को भक्त की अपेक्षा है क्या ? नहीं तो भगवान को भक्तों से मोह क्यूं है ?

भक्तों को भगवान से मोह होने के कारण उन्हें भी मोह है गुरू को शिष्य की अपेक्षा भी नहीं और उपेक्षा भी नहीं । तुलसीदास जी कहते हैं भरत के समान ही राम भी भरत को प्रेम करते हैं राम को सब जगत जपता है और राम भरत को जपते हैं । भरत के राम को सतत जपने से ही राम भरत को जपते हैं । हां दुनिया में कभी कुछ महत्वपूर्ण कार्य करने के हेतु गुरू शिष्य को तैयार करते हैं ।

कुछ काम करने के लिए गुरु शिष्य को शक्तिशाली बनाते हैं । जागतिक कार्य के लिए उस शिष्य का कुछ प्रयोजन होता है, प्रयोजन तो ठीक है लेकिन जरूरत नहीं । सच्चे प्रेम का एक परिणाम होता है, प्रेम सच्चा होना चाहिए बनावटी नहीं । सेवा परायण, भक्तियुक्त, नियमबद्ध शिष्य में गुरू को प्रेम होना स्वभाविक है, परंतु वह जरूरत नहीं समझते । अभी कुछ लोग बगीचे में काम कर रहे हैं, छुपकर करते रहते हैं सेवा उनके प्रति ज्यादा प्रेम होना स्वभाविक है मेरा, यह कोई पक्षपात नहीं है ।

इक भक्त कवि कहता है कि भगवान द्वारा पृथ्वी पर अपना बोझ डालने से पृथ्वी एक फीट नीचे धंस जाती थी ऐसे भगवान को भक्ति के वश रुक्मणी ने तुलसी के पत्ते पर तोल दिया । भक्ति का प्रभाव ऐसा ही होता है कि पृथ्वी के बोझ से भी भारी भगवान हलके होकर तुलसी के पत्ते पर तुल गये । हनुमान जी ने अपनी भक्ति से भगवान को वश में कर रखा था, “जपत पवनसुत पावन नाम अपने वश कर राखे राम” यह भक्ति का प्रभाव है ।

भगवान तो फिर भी स्वतंत्र ही हैं, भागवत में एक संवाद है कि एक ने कहा कि कृष्ण देवकी का पुत्र है तब दूसरे ने कहा वह पुत्र नहीं वह तो सबका पिता है । यह तो सत्य है लेकिन अपने प्रेम के कारण देवकी ने उस ईश्वर को पुत्र बना लिया । शिष्य को तो गुरू की जरूरत है परन्तु शिष्य अपनी करनी से, अपनी कर्मठता से, अपनी सेवा से ऐसा कर लेता है, अपनी भक्ति से ऐसा कर लेता है कि गुरू को ही उसकी जरूरत है ।

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