Yearly Archives: 2000

ʹगहना कर्मणो गतिःʹ


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

कर्म की गति बड़ी गहन है।

गहना कर्मणो गतिः।

कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिए, अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिए। कर्म ऐसे करें कि कर्म दुष्कर्म न बनें, बंधनकारक न बनें, वरन् ऐसे कर्म करें कि कर्म विकर्म में बदल जायें, कर्त्ता अकर्त्ता हो जाये और वह अपने परमात्म-पद को पा ले।

अमदावाद में वासणा नामक एक इलाका है। वहाँ एक कार्यपालक इंजीनियर रहता था जो नहर का कार्यभार सँभालता था। वही आदेश देता था कि किस क्षेत्र में पानी देना है।

एक बार एक किसान ने उसे 100-100 रूपयों की दस नोटें एक लिफाफे में देते हुए कहाः “साहब ! कुछ भी हो, पर फलाने व्यक्ति को पानी न मिले। मेरा इतना काम आप कर दीजिये।”

साहब ने सोचा किः “हजार रूपये मेरे भाग्य में आने वाले हैं इसीलिए यह दे रहा है। किन्तु गलत ढंग से रुपये लेकर मैं क्यों कर्मबन्धन में पड़ूँ ? हजार रुपये आने वाले होंगे तो कैसे भी करके आ जायेंगे। मैं गलत कर्म करके हजार रूपये क्यों लूँ ? मेरे अच्छे कर्मों से अपने-आप रूपये आ जायेंगे।ʹ अतः उसने हजार रूपये उस किसान को लौटा दिये।

कुछ महीनों के बाद इंजीनियर एक बार मुंबई से लौट रहा था। मुंबई से एक व्यापारी का लड़का भी उसके साथ बैठा। वह लड़का सूरत आकर जल्दबाजी में उतर गया और अपनी अटैची गाड़ी में ही भूल गया। वह इंजीनियर समझ गया कि अटैची उसी लड़के की है। अमदावाद रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रूकी। अटैची पड़ी थी लावारिस… उस इंजीनियर ने अटैची उठा ली और घर ले जाकर खोली। उसमें से पता और टैलिफोन नंबर लिया।

इधर सूरत में व्यापारी का लड़का बड़ा परेशान हो रहा था किः “हीरे के व्यापारी के इतने रूपये थे, इतने लाख का कच्चा माल भी था। किसको बतायें ? बतायेंगे तब भी मुसीबत होगी।” दूसरे दिन सुबह-सुबह फोन आया किः “आपकी अटैची ट्रेन में रह गयी थी जिसे मैं ले आया हूँ और मेरा यह पता है, आप इसे ले जाइये।”

बाप-बेटे गाड़ी लेकर वासणा पहुँचे और साहब के बँगले पर पहुँचकर उन्होंने पूछाः “साहब ! आपका फोन आया था ?”

साहबः “आप तसल्ली रखें। आपके सभी सामान सुरक्षित हैं।”

साहब ने अटैची दी। व्यापारी ने देखा कि अंदर सभी माल-सामान एवं रुपये ज्यों-के-त्यों हैं। ʹये साहब नहीं, भगवान हैं….ʹ ऐसा सोचकर उसकी आँखों में आँसू आ गये, उसका दिल भर आया। उसने कोरे लिफाफे में कुछ रुपये रखे और साहब के पैरों पर रखकर हाथ जोड़ते हुए बोलाः

“साहब ! फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी ही सही, हमारी इतनी सेवा जरूर स्वीकार करना।”

साहबः “एक हजार रूपये रखे हैं न ?”

व्यापारीः “साहब ! आपको कैसे पता चला कि एक हजार रूपये हैं ?”

साहबः “एक हजार रूपये मुझे मिल रहे थे बुरा कर्म करने के लिए। किन्तु मैंने वह बुरा कार्य नहीं किया यह सोचकर कि यदि हजार रूपये मेरे भाग्य में होंगे तो कैसे भी करके आयेंगे।”

व्यापारीः “साहब ! आप ठीक कहते हैं। इसमें हजार रूपये ही हैं।”

जो लोग टेढ़े-मेढ़े रास्ते से कुछ लेते हैं वे तो दुष्कर्म कर पाप कमा लेते हैं लेकिन जो धीरज रखते हैं वे ईमानादारी से उतना ही पा लेते हैं जितना उनके भाग्य में होता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं- गहना कर्मणो गतिः।

एक जाने माने साधु ने मुझे यह घटना सुनायी थीः

बापू जीः यहाँ गया जी में एक बड़े अच्छे जाने माने पंडित रहते थे। एक बार नेपाल नरेश साधारण गरीब मारवाड़ी जैसे कपड़े पहन कर  पंडितों के पीछे भटका किः ʹमेरे दादा का पिण्डदान करवा दो। मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं हैं। हाँ, थोड़े से लड्डू लाया हूँ, वही दक्षिणा में दे सकूँगा।

जो लोभी पंडित थे उन्होंने तो इन्कार कर दिया लेकिन यहाँ का जो जाना-माना पंडित था उसने कहाः “भाई ! पैसे की तो कोई बात ही नहीं है। मैं पिण्डदान करवा देता हूँ।”

फटे-चिथड़े कपड़े पहनकर गरीब मारवाड़ी के वेश में छुपे हुए नेपाल नरेश के दादा का पिण्डदान करवा दिया उस पंडित ने। पिण्डदान सम्पन्न होने के बाद उस नरेश ने कहाः

“पंडित जी ! पिण्डदान करवाने के बाद कुछ न कुछ दक्षिणा तो देनी चाहिए। मैं कुछ लड्डू लाया हूँ। मैं चला जाऊँ उसके बाद यह गठरी आप ही खोलेंगे, इतना वचन दे दीजिये।”

“अच्छा भाई ! तू गरीब है। तेरे लड्डू मैं खा लूँगा। वचन देता हूँ कि गठरी भी मैं ही खोलूँगा।”

गरीब जैसे वेश में छुपा हुआ नेपाल नरेश चला गया। पंडित ने गठरी खोली तो उसमें से एक-एक किलो के सोने के उन्नीस लड्डू निकले !

वे पंडित अपने जीवन काल में बड़े-बड़े धर्मकार्य करते रहे लेकिन वे सोने के लड्डू खर्च में आयें ही नहीं।

जो अच्छा कार्य करता है उसके पास अच्छे काम के लिए कहीं-न-कहीं से धन, वस्तुएँ अनायास आ ही जाती हैं। अतः उन्नीस किलो के सोने के लड्डू  ऐसे ही पड़े रहे।

जब-जब हम कर्म करें तो कर्म को विकर्म में बदल दें अर्थात् कर्म का फल ईश्वर को अर्पित कर दें अथवा कर्म में से कर्त्तापन हटा दें तो कर्म करते हुए भी हो गया विकर्म। कर्म तो किये लेकिन कर्म का बंधन नहीं रहा।

संसारी आदमी कर्म को बंधनकारक बना देता है, साधक कर्म को विकर्म बनाता है लेकिन सिद्ध पुरुष कर्म को अकर्म बना देते हैं। रामजी युद्ध जैसा घोर कर्म करते हैं लेकिन अपनी ओर से युद्ध नहीं करते, रावण आमंत्रित करता है तब करते हैं। अतः उनका युद्ध जैसा घोर कर्म भी अकर्म में परिणत हो जाता है। आप भी कर्म करें तो अकर्ता होकर करें, न कि कर्त्ता होकर। कर्त्ता भाव से किया गया कर्म बंधन में डाल देता है एवं उसका फल भोगना ही पड़ता है।

राजस्थान में सुजानगढ़ के ढोंगरा गाँव की घटना हैः

एक बकरे को देखकर ठकुराइन के मुँह में पानी आ गया एवं बोलीः “देखो जी ! यह बकरा कितना हृष्ट-पुष्ट है !”

बकरा पहुँच गया ठाकुर किशन सिंह के घर एवं हलाल होकर उसे पेट में भी पहुँच गया।

बारह महीने के बाद ठाकुर किशन सिंह के घर बेटे का जन्म हुआ। बेटे का नाम बाल सिंह रखा गया। बाल सिंह तेरह साल का हुआ तो उसकी मँगनी भी हो गयी एवं चौदहवाँ पूरा होते-होते शादी की तैयारी भी हो गयी।

शादी के वक्त ब्राह्मण ने गणेश-पूजन के लिए उसको बिठाया किन्तु यह क्या ! ब्राह्मण विधि शुरु करे उसके पहले ही लड़के ने पैर पसारे और लेट गया। ब्राह्मण ने पूछाः

“क्या हुआ….. क्या हुआ ?”

कोई जवाब नहीं। माँ रोयी, बाप रोया। अड़ोस-पड़ोस के लोग आये, सारे बाराती इकट्ठे हो गये। पूछने लगे किः “क्या हुआ ?”

लड़काः “कुछ नहीं हुआ है। अब तुम्हारा-मेरा लेखा-जोखा पूरा हो गया है।”

पिताः “वह कैसे, बेटा ?”

लड़काः “बकरियों को गर्भाधान कराने के लिए उदरासर के चारण कुँअरदान ने जो बकरा छोड़ रखा था, वही बकरा तुम ठकुराइन के कहने पर उठा लाये थे। वही बकरा तुम्हारे पेट में पहुँचा और समय पाकर तुम्हारा बेटा होकर पैदा हुआ। वह बेटा लेना-देना पूरा करके अब जा रहा है। राम-राम….”

बकरे की काया से आया हुआ बाल सिंह तो रवाना हो गया किन्तु किशन सिंह सिर कूटते रह गये।

तुलसीदास जी कहते हैं-

करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।

(श्रीरामचरित. अयो. 298.2)

बुरा कर्म करते समय तो आदमी कर डालता है लेकिन बाद में उसका कितना भयंकर परिणाम आता है इसका पता ही नहीं चलता उस बेचारे को।

जैसे चौदह साल के बाद भी दुष्कृत्य कर्त्ता को फल दे देता है, ऐसे ही सुकृत भी भगवद् प्रीत्यर्थ कर्म करने वाले कर्त्ता के अन्तःकरण को भगवद् ज्ञान, भगवद् आनंद एवं भगवद् जिज्ञासा से भरकर भगवान का साक्षात्कार करा देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 12-14, अंक 95

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

वाममार्ग और भ्रष्टाचार


हमारे देश के युवावर्ग को एक ओर तो तथाकथित मनोचिकित्सक गुमराह कर उसे संयम-सदाचार और ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट करके अनिंयत्रित विकारों के शिकार बना रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ तथाकथित विद्वान वाममार्ग का सही अर्थ न समझ सकने के कारण स्वयं तो दिग्भ्रमित हैं ही, साथ ही उसके आधार पर ʹसंभोग से समाधिʹ की ओर ले जा जाने के नाम पर युवानों को पागलपन और महाविनाश की ओर ले जा रहे हैं। इन सबसे समाज व राष्ट्र को भारी नुकसान पहुँच रहा है। कोई भी दिग्भ्रमित व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकता, उसका पतन निश्चित है। अतः समाज को सही मार्गदर्शन की नितांत आवश्यकता है।

आजकल तंत्रतत्त्व से अनभिज्ञ जनता में वाममार्ग को लेकर एक भ्रम उत्पन्न हो गया है। वास्तव में प्रज्ञावान प्रशस्य योगी का नाम ʹवामʹ है। और उस योगी के मार्ग का नाम ʹवाममार्गʹ है। अतः वाममार्ग अत्यन्त कठिन है और योगियों के लिए भी अगम्य है तो फिर इन्द्रियलोलुप लोगों के लिए वह कैसे गम्य हो सकता है ? वाममार्ग जितेन्द्रिय के लिए है और जितेन्द्रिय योगी ही होते हैं।

वाममार्ग उपासना में मद्य, मांस मीन, मुद्रा और मैथून – ये पाँच आध्यात्मिक मकार जितेन्द्रिय, प्रज्ञावान योगियों के लिए ही प्रशस्य हैं क्योंकि इनकी भाषा सांकेतिक है जिसे संयमी एवं विवेकी व्यक्ति ही ठीक-ठीक समझ सकता है।

मद्यः शिव-शक्ति के संयोग से जो महान अमृतत्त्व उत्पन्न होता है उसे ही ʹमद्यʹ कहा गया है अर्थात् योगसाधना द्वारा निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद परब्रह्म में विलय होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे ʹमद्यʹ कहते हैं और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रपद्मादल से जो अमृतत्त्व स्रावित होता है उसका पान करना ही ʹमद्यपानʹ है। यदि इस सुरा का पान नहीं किया जाता तो सौ कल्पों में भी ईश्वरदर्शन करना असंभव है। ʹतंत्रतत्त्वप्रकाशʹ में आया है किः “जो सुरा सहस्रार कमलरूपी पात्र में भरी है और चंद्रमा-कला-सुधा से स्रावित है वही पीने योग्य सुरा है। इसका प्रभाव ऐसा है कि यह प्रकार के अशुभ कर्मों को नष्ट कर देती है। इसी के प्रभाव से परमार्थकुशल ज्ञानियों-मुनियों ने मुक्तिरूपी फल प्राप्त किया है।”

मांसः विवेकरूपी तलवार से काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पाशवी वृत्तियों का संहार कर उनका भक्षण करने को ही ʹमांसʹ कहा गया है। जो इनका भक्षण करे एवं दूसरों को सुख पहुँचाये वही बुद्धिमान है। ऐसे ज्ञानी और पुण्यशील पुरुष ही पृथ्वी पर के देवता कहे जाते हैं। ऐसे सज्जन कभी पशुमांस का भक्षण करके पापी नहीं बनते बल्कि दूसरे प्राणियों को सुख देने वाले निर्विषय तत्त्व का भक्षण करते हैं।

आलंकारिक रूप से यह आत्मशुद्धि का उपदेश है अर्थात् कुविचारों, पाप-तापों, कषाय-कल्मषों से बचने का उपदेश है। किन्तु पशुलोलुपों ने अर्थ का अनर्थ कर उपासना के अतिरिक्त हवन-यज्ञों में भी पशुवध प्रारम्भ कर दिया था।

मत्स्यः अहंकार, दम्भ, मद, मत्सर, द्वेष, चुगलखोरी – इन छः मछलियों को विषय विरागरूपी जाल में फँसाकर सदविद्यारूपी अग्नि में पकाकर इनका सदुपयोग करने को ही ʹमीनʹ या ʹमत्स्यʹ कहा गया है अर्थात् इन्द्रियों का वशीकरण, दोषों तथा दुर्गुणों का त्याग, साम्यभाव की सिद्धि और योगसाधन में रत रहना ही ʹमीनʹ या ʹमत्स्यʹ ग्रहण करना है। इनका सांकेतिक अर्थ न समझकर प्रत्यक्ष मत्स्य के द्वारा पूजन करना तो अर्थ का अनर्थ होगा और साधना-क्षेत्र में एक कुप्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा।

जल में रहने वाली मछलियों को खाना तो सर्वथा धर्मविरुद्ध है, पापकर्म है। दो मत्स्य गंगा-यमुना के भीतर सदा विचरण करते रहते हैं। गंगा यमुना से आशय है मानव शरीरस्थ इड़ा-पिंगला नाड़ी का। उनमें निरन्तर बहने वाले श्वास-प्रश्वास ही दो मत्स्य हैं। जो साधक प्राणायाम द्वारा ऩ श्वास प्रश्वासों को रोककर कुंभक करते हैं वे ही यथार्थ में मत्स्य साधक हैं।

मुद्राः आशा, तृष्णा, निंदा, भय, घृणा, घमंड, लज्जा, क्रोध – इन आठ कष्टदायक मुद्राओं को त्यागकर ज्ञान की ज्योति से अपने अन्तर को जगमगाने वाला ही ʹमुद्रा साधकʹ कहा जाता है। सत्कर्म में निरत पुरुषों को इन मुद्राओं को ब्रह्मरूप अग्नि में पका डालना चाहिए। दिव्य भावानुरागी सज्जनों को सदैव इनका सेवन करना चाहिए और इनका सार ग्रहण करना चाहिए। पशुहत्या से विरत ऐसे साधक ही पृथ्वी पर शिव के तुल्य उच्च आसन प्राप्त करते हैं।

मैथुनः ʹमैथुनʹ का सांकेतिक अर्थ है मूलाधार चक्र में स्थित सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति का जागृत होकर सहस्रार चक्र में स्थित शिवतत्त्व (परम ब्रह्म) के साथ संयोग अर्थात् पराशक्ति के साथ आत्मा के विलास रस में निमग्न रहना ही मुक्त आत्माओं का मैथुन है, किसी स्त्री आदि का ग्रहण कर उसके साथ संसारव्यवहार करना मैथुन नहीं है। विश्ववंद्य योगीजन सुखमय वनस्थली आदि में ऐसे ही संयोग का परमानंद प्राप्त किया करते हैं।

इस प्रकार तंत्रशास्त्र में  पंचमकारों का वर्णन सांकेतिक भाषा में किया गया है किन्तु भोगलिप्सुओं ने अपने मानसिक स्तर के अनुरूप उनके अर्थघटन कर उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ किया और इस प्रकार अपना एवं अपने लाखों अनुयायियों का सत्यानाश किया। जिस प्रकार सुन्दर बगीचे में असावधानी बरतने से कुछ जहरीले पौधे उत्पन्न हो जाया करते हैं और फूलने-फलने भी लगते हैं, इसी प्रकार तंत्र-विज्ञान में बहुत-सी अवांछनीय गन्दगियाँ आ गयी हैं। यह विषयी-कामान्ध मनुष्यों और मांसाहारी एवं मद्यलोलुप अनाचारियों की ही काली करतूत मालूम होती है, नहीं तो श्रीशिव और ऋषि-प्रणीत मोक्षप्रदायक पवित्र तंत्रशास्त्र में ऐसी बातें कहाँ से और क्यों आतीं ? जचिस शास्त्र में अमुक-अमुक जाति की स्त्रियों का नाम ले-लेकर व्यभिचार की आज्ञा दी गयी हो और उसे धर्म तथा साधना बताया गया हो, जिस शास्त्र में पूजा की पद्धति में बहुत ही गंदी वस्तुएँ पूजा सामग्री के रूप में आवश्यक बतायी गयी हों, जिस शास्त्र को मानने वाले साधक हजारों स्त्रियों के साथ व्यभिचार को और नरबालकों की बलि को अनुष्ठान की सिद्धि में कारण मानते हों, वह शास्त्र तो सर्वथा अशास्त्र और शास्त्र के नाम को कलंकित करने वाला ही है। ऐसे विकट तामसिक कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा से इन्हें अपने जीवन में अपनाना सर्वथा भ्रम है, भारी भूल है। ऐसी भूल में कोई पड़े हुए हों तो उन्हें तुरंत ही इससे निकल जाना चाहिए।

आजकल ऐसे साहित्य और ऐसे प्रवचनों की कैसेटें बाजार में सरेआम बिक रही हैं। अतः ऐसे कुमार्गगामी साहित्य और प्रवचनों की कड़ी आलोचना करके जनता को उनके प्रति सावधान करना भी राष्ट्र के युवाधन की सुरक्षा करने में बड़ा सहयोगी सिद्ध होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 95

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

संतों से कुछ न माँगिये


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

ʹयदि संतों से कुछ भी न माँगिये तो भी वे अमृतरूपी वचनों की वर्षा कर देते हैं। जैसे पुष्पों से बिना माँगे सुगंध प्राप्त होती है ऐसे ही संतजनों से बिना माँगे ही ज्ञान का अमृत प्राप्त हो जाता है।ʹ

यह जरूरी नहीं कि भगवान एवं संतों से माँगते ही रहें। न माँगें तब भी देना उनका स्वभाव है। फूलों से कुछ नहीं माँगते, फिर भी सुगंध देना उनका स्वभाव है। चाँद से कुछ नहीं माँगते, फिर भी चाँदनी बरसाना उसका स्वभाव है। गंगाजी से कुछ नहीं माँगते फिर भी शीतलता देना उनका स्वभाव है।

जरूरी नहीं कि माँगे तभी मिले। कुछ लोग कहते हैं- ʹमुझे आशीर्वाद दीजिये… मुझे तो थोड़ा-सा आशीर्वाद दीजिये, महाराज !… मुझे तो स्पेशियलʹ आशीर्वाद दीजिए।ʹ आशीर्वाद भी कभी ʹस्पेशियलʹ और ʹआर्डिनरीʹ होता है ? खाने-पीने आदि की चीजें ʹस्पेशियलʹ और आर्डिनरी होती हैं, आशीर्वाद थोड़े ही स्पेशियल होता है।

संतों के पास जाकर लोग कहते हैं- ʹमुझे यह दीजिए…. मुझे वह दीजिये….ʹ ये सब बहुत छोटी बातें हैं, तुच्छ चीजों की माँगें हैं। जैसे राजा से कोई माँगे किः ʹमुझे बिस्किट दे दीजिये… डबलरोटी दे दीजिये… मुझे एक कप दूध दे दीजिये….ʹ तो राजा को होगा किः ʹकैसा आदमी है ?ʹ वह अपने सेवकों से कहेगाः ʹअरे भाई ! इसे दे दो, जो माँग रहा है।ʹ

ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों से भी जगत की नश्वर चीजों की याचना करते हैं। अरे ! आप स्वयं ध्यान-भजन में लग जाओ तो जगत की चीजें दासी की नाईं आपकी सेवा में लग जायेंगी। ध्यान-भजन तो करते नहीं, फिर टोने-टोटके करवाकर, दवाइयाँ खाकर मर रहे हैं। ध्यान का, शक्तिपात शिविर का लाभ तो उठाते नहीं और पड़ जाते हैं टोने-टोटके के चक्कर में।

टूना-फूना टोटका, सभी दीजै धोये।

गुरु कहे सो कीजिये, आपे ही फल होय।।

यहाँ जो मंत्र बताते हैं उसे भी काटकर अपना अगर-मगर चलाने लग जाते हैं। गुरु के वचन को भी काट देते हैं फिर भटकते रहते हैं। संतों के वचनों की कीमत नहीं समझते। मूर्खों को संतों का सान्निध्य मुफ्त में मिलता है तो उससे प्राप्त पुण्यों को वे दुनिया के भोग-पदार्थ में ऐसे ही खर्च कर देते हैं फिर दुबारा भिखमंगों की नाईं संसार की वस्तुएँ माँगते रहते हैं। संत हीरे-मोती लेकर बैठे हैं उनका तो कोई ग्राहक नहीं मिलता और लोग सब्जी-भाजी माँगने लगते हैं। जौहरी से, आत्म-खजाने के मालिक से हीरे-मोती लो, सब्जी-भाजी क्यों लेते हो ?

मुख्य कारण है विचार एवं तड़प की कमी…. तभी ऐसा होता है। गुरु की, भगवान की कृपा तो ठीक है लेकिन साथ ही अपना विचार एवं तड़प भी चाहिए। अगर स्वयं विचार किये बिना और तड़प के बिना आत्म-साक्षात्कार हो जाये तो अर्जुन के सिर पर अपना हाथ रख देते श्रीकृष्ण। संत-महापुरुष अपने को इतना क्यों खपाते ? गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख देते और कह देतेः ʹजा बेटा ! आत्म-साक्षात्कारी भव।ʹ ऐसा करके निपटारा कर लेते। नहीं… सिर पर हाथ रखने से आत्म-साक्षात्कार नहीं होता।

आशीर्वाद से संसार की चीजें और छोटी-मोटी परिस्थितियाँ तो मिल सकती हैं, पर ब्रह्मज्ञान तो अपने विचार से ही होगा। माँ कृपा करके भोजन के कौर मुँह में भी रख सकती है लेकिन चबाने के लिए तो अपने को ही मेहनत करनी पड़ेगी। बालक स्वयं नहीं चबायेगा तो पुष्ट कैसे होगा ? ऐसे ही साधक विचार नहीं करेगा तो ज्ञान कैसे होगा ?

यदि विचार के बिना ही आदिनारायण मुक्ति दे दें तो फिर वृक्षों एवं पशु-पक्षियों को मुक्त क्यों नहीं कर देते ? हम तो चाहते हैं कि सब मुक्त हो जायें। जैसे शराबी चाहता है कि दूसरा शराबी हो, जुआरी चाहता है कि दूसरा जुआरी हो ऐसे ही भगवान और संत चाहते हैं कि दूसरे भी मुक्त हों। लेकिन भगवान और संत भी क्या करें ? दूसरा जब विचार करेगा तभी तो मुक्त होगा। मुक्ति की जिसको प्यास होगी, तड़प होगी, वही मुक्त होगा।

संसार का पूरा राजपाट एक व्यक्ति को मिल जाये लेकिन मुक्ति की प्यास नहीं है तो वह बड़ा अभागा है। जिसको मुक्ति की प्यास है और संसार की वस्तुओं में अरुचि है वह भाग्यशाली है क्योंकि मुक्ति की प्यास ही उसको संतों के निकट ले जायेगी।

मुक्ति की प्यास जगती है संतों के दैवी कार्य में सहभागी होने पर। निष्काम कर्म एवं भगवद भक्ति से मुक्ति की प्यास जगती है। सत्संग के द्वारा धीरे-धीरे मुक्ति की प्यास जगती है तो काम बन जाता है, नहीं तो करोड़ों जन्म ऐसे ही व्यर्थ चले जाते हैं।

जगत के सुख आदमी को इतना बेवकूफ बना देते हैं कि व्यावहारिक तौर पर तो वह भोग भोगता ही है, चित्र देखकर भी भोग-भोगने की कल्पना में मारा जाता है। आदमी कितना पराधीन हो जाता है ! वह जिन्दा मनुष्य से तो भीख माँगता ही है, मुर्दे से भी, मजारों से भी माँगता रहता है किः “हे फलाने पीर ! मुझे यह दे दे, वह दे दे….”

अखा भगत ने कहा हैः

सजीवाए निर्जीवाने घड़यो, पछी कहे के मने कंईक दे।

अखो तमने ई पूछे के, तमारी एक फूटी के बे ?

ʹसजीव व्यक्ति ने निर्जीव मूर्ति को बनाया और फिर उसी के आगे गिड़गिड़ाता है कि मुझे कुछ दे। अखा भगत पूछता है कि तुम्हारी एक (आँख) फूट गयी है कि दो ?ʹ

भगवान से भी दिन-रात माँगते रहते हैं। जो बिना माँगे दिन-रात आपकी खबर ले रहा है उसको भी माँग-माँगकर परेशान करते रहते हैं। भगवान झूलेलाल, अम्बे माता, भगवान नारायण आदि की मूर्तियों के आगे गिड़गिड़ाते रहते हैं किन्तु वे अपने अंतर्यामी परमात्मा को क्यों नहीं रिझाते ? मंदिर के देवता की मूर्ति के तो तब दर्शन होंगे जब पुजारी दरवाजा खोलेगा। अज्ञान से इधर-उधर भगवान को खोजते हैं और जो हाजरा-हजूर है, दिल में बैठा है उसका विचार तक नहीं करते। दिल में बैठे हुए देवता को नहीं रिझाया तो मंदिर में बैठे हुए देवता को कब तक रिझाते रहोगे ? मंदिर के देवता को रिझाने का फल यही है कि दिल के देवता को रिझाने की युक्ति बताने वाले किन्हीं संत-महापुरुष का सत्संग मिल जाये।

विचार करने की कला आ जाये किः ʹमैं कौन हूँ ? सुख-दुःख का अनुभव किसे होता है ? कान ठीक से सुनते हैं कि नहीं, उसको देखने वाला मैं कौन हूँ ? जिह्वा को खट्टा-मीठा, खारा-खट्टा आदि स्वाद का ज्ञान किसकी सत्ता से मिलता है ? नाक को सूँघने की सत्ता कहाँ से मिलती है ?ʹ ऐसा विचार करते-करते अपने को खोजें।

जिन खोजा तिन पाइयाँ….

जो साधारण जीव हैं उनके लिए सामान्य पूजा कही गयी है – मंदिर की, वृक्ष की, गंगा-यमुना-सरस्वती आदि पवित्र नदियों की पूजा लेकिन जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो विचारवान् है उसके लिए अपनी आत्मा ही देव है। वह रोम-रोम में रम रहा है इसलिए उसको ʹरामʹ कहते हैं। वह सबको कर्षित-आकर्षित करता है इसीलिए उसको ʹकृष्णʹ बोलेत हैं। वह शक्ति का उदगम स्थान है इसीलिए उसे आद्यशक्ति जगदंबा बोलते हैं। वह इन्द्रियगणों का स्वामी है
इसीलिए उसको ʹगणपतिʹ बोलते हैं, उसके सिवा और कुछ नहीं है। ʹला इल्लाह इल इल्लाह इसीलिए उसको ʹअल्लाहʹ बोलते हैं… है वही आत्मदेव, जो अपना-आपा होकर बैठा है।

उस अंतर्यामी आत्मदेव को छोड़कर जो उसे बाहर ढूँढता फिरता है,  वह ʹकर्मलेढ़ीʹ है। हाथ में आये हुए मक्खन के पिण्ड को छोड़कर छाछ चाटता है। ʹकर्मलेढ़ीʹ न बनें। अपने आत्मदेव का ध्यान करें, चिंतन करें, स्मरण करें तो संसार की असारता का अनुभव हो जायेगा और आत्ममस्ती बढ़ जायेगी। ऐसी आत्ममस्ती में मस्त फकीर स्वामी रामतीर्थ ने ही गाया हैः

मस्त पड़ा है अपनी महिमा में, गैर राम अब और नहीं।

क्या हमसे भेद छुपाते हैं ? हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ऋषियों के आइने में, मेरा ही नूर दर्शाया था।

मुझ से ही शायर लाते हैं, हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ज्ञानवानों का अनुभव होता है किः “वैद्यों का वैद्यकीय ज्ञान भी मुझ आत्मा से आता है, विज्ञानियों का विज्ञान भी मुझ आत्मा से निकलता है, बुद्धिमानों की बुद्धि भी मुझ आत्मा से फुरती है, जिह्वा से मैं ही चखता हूँ, कानों से मैं ही सुनता हूँ, नाक से मैं ही सूँघता हूँ और मन से संकल्प-विकल्प भी मैं ही करता हूँ। ये सब करते हुए भी मैं इन सबसे असंग अमर आत्मा हूँ। ऐसा जो मुझको जानता है वह स्वयं को भी अमर आत्मा जानकर मुक्त हो जाता है। अगर मुझे कोई देहधारी मानता है तो वह भी देहधारी के भाव में फँस मरता है। मैं देह में होते हुए भी देहातीत हूँ। दिखता हूँ फिर भी अदृश्य हूँ और अदृश्य हूँ फिर भी सदृश्य हूँ। यह सच्चिदानंदस्वरूप लाबयान है। इस लाबयान का बयान मैं क्या करूँ ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 94

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ