Monthly Archives: August 2002

विवेक की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
विवेकी मनुष्य को संसार के भोगों से वैराग्य होता है और विषय-रस में नीरस बुद्धि होती है। ‘संसार के भोग बाहर से कितने सुंदर, रसदायी और सुखदायी दिखते हैं किन्तु अंत में देखो तो कुछ भी नहीं….’ ऐसा विचार विवेकी को होता है।
जैसे मलिन वस्त्रों को साफ करने से उनका मैल निकल जाता है, वैसे ही वैराग्य से विकाररूपी भाव निकल जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में ही भगवद् रस प्रकट होता है, भगवान का आनंद प्रकट होता है और भगवान का सामर्थ्य आता है।
जो विवेकी है वह जानता है कि ‘अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त, मल-मूत्रवाला यह शरीर मैं नहीं हूँ अपितु मैं आकाश से भी सूक्ष्म तथा व्यापक चैतन्य आत्मा हूँ।’
बाल के अग्रभाग के लाख हिस्से करिये, उस लाखवें हिस्से के भी करोड़ भाग करिये, फिर भी वह चैतन्य आत्मा बाल के करोड़वें हिस्से से भी अधिक सूक्ष्म है और व्यापक इतना है कि पूरे आकाश को उसने ढाँप रखा है। वही परमेश्वर मैं चैतन्य आत्मा मैं हूँ – ऐसा जो जानते हैं वे ही बड़भागी महापुरुष हैं।
जो अपने को शरीर मानता है, जो अपने को जन्मने-मरने वाला मानता है वह वेदान्त की दृष्टि में अज्ञानी है लेकिन जो अपने को शुद्ध-बुद्ध, चैतन्य आत्मा जानता है वही यथार्थ को जानता है और वही विवेकी है।
जो सत्-असत् को देखता है और सत्-असत् को प्रकाशता है वह शिवात्मा मैं हूँ। मैं ही जीभ के द्वारा खारा-खट्टा आदि स्वाद लेता हूँ, मैं ही नेत्रों के द्वारा अच्छा-बुरा देखता हूँ, कोई मेरे शरीर को काट के टुकड़े-टुकड़े कर दे फिर भी जो नहीं मरता वह मैं हूँ। चाहे कितनी भी वाहवाही हो फिर भी जो बढ़ता नहीं है और चाहे कितनी भी निंदा हो तो भी वह घटता नहीं है वह साक्षी स्वरूप ‘मैं’ हूँ – ऐसा जो जानता है वही सबको जानता है। ऐसे विवेकी महापुरुष महेश्वरस्वरूप होते हैं। वे तम – प्रकाश से परे, कामनाओं से परे, चैतन्यघन में स्थित रहने वाले होते हैं।
जब एक बार उस चैतन्य परमेश्वर का ज्ञान हो जाता है, फिर कोई भी उस ज्ञान को छीन नहीं सकता। जैसे, तुम लोगों को यह ज्ञान हो गया कि यह घड़ी है, अब अगर मैं यह घड़ी छुपा दूँ तो इसका अदर्शन हो सकता है किन्तु इसका ज्ञान तुमसे छीना नहीं जा सकता, क्योंकि तुमको एक बार इसका ज्ञान हो चुका है। ऐसे ही ज्ञानस्वरूप आत्मा का ज्ञान हो जाय तो फिर उसका अदर्शन हो सकता है, उसकी विस्मृति हो सकती है लेकिन उसका अज्ञान कभी नहीं हो सकता।
ज्ञान का फिर अज्ञान नहीं होता है। एक बार तुम्हें ज्ञान हो जाय कि तुम शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हो फिर कोई तुम्हें बोले कि ‘तुम फलाने के बेटे हो…. फलानी के पति हो…. फलाने के भाई हो…. फलाने के बाप हो….’ तो तुम व्यवहार में तो बोल दोगे कि ‘हाँ भाई ! ठीक है।’ परन्तु भीतर से तुम्हें पता होगा कि तुम वास्तव में क्या हो।
जिसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है उस पुरुष के लिए राज्य करना, युद्ध करना, लाखों लोगों से सम्मानित होना अथवा भिक्षा माँगकर खाना सब खेल जैसा हो जाता है क्योंकि उसने जान लिया है कि सत्य केवल परमात्मा है, बाकी सब खिलवाड़मात्र है, स्वप्नमात्र है।
सुख-दुःख, मान-अपमान आदि सब आने-जाने वाले हैं। सुख भी सदा नहीं रहता और दुःख भी सदा नहीं रहता। मान भी सदा नहीं रहता और अपमान भी सदा नहीं रहता। जवानी भी सदा नहीं रहती और बुढ़ापा भी सदा नहीं रहता। मित्र भी सदा नहीं रहते और शत्रु भी सदा नहीं रहते। अमीरी भी सदा नहीं रहती और गरीबी भी सदा नहीं रहती – ये सब प्रकृति के परिवर्तनशील खिलवाड़ हैं।
जो सदा रहता है वह मेरा आत्मा ही सत्य है। पिछले जन्म के सगे-सम्बन्धी, मित्र, धन-दौलत आदि इस जन्म में साथ नहीं हैं लेकिन वह परमात्मा तो जन्म-जन्मांतरों से हमारे साथ है। ऐसे ही इस जन्म के सगे-सम्बन्धी, मित्र, धन-दौलत आदि भी हमारा साथ छोड़ देंगे लेकिन वह परमात्मा मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा…. इसलिए उस परमात्मा के ही विषय में श्रवण करें और उसी का विचार करें तो बुद्धि आत्मविषयिणी हो जायेगी। आत्मविषयिणी बुद्धि होते ही धीरे-धीरे ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ती जायेगी।
फिर महापुरुषों से प्रार्थना करेंगे और कुछ अपना पुरुषार्थ करेंगे तो धीरे-धीरे बुद्धि उस सत्यस्वरूप परमात्मा में टिक जायेगी। अगर एक बार केवल तीन मिनट के लिए भी बुद्धि सत्य स्वरूप ईश्वर में टिक गयी तो फिर बुद्धि को कर्मबंधन नहीं रहता है। जैसे, एक बार पारस से लोहे की पुतली का स्पर्श हो गया, वह सोना हो गयी तो फिर उसे जंग नहीं लगता है।
जैसे साधारण आदमी को राग-द्वेष आदि का कर्मबंधन लगता है, वैसे उस मुक्तात्मा पुरुष को राग-द्वेष का कर्मबंधन नहीं लगता है। ऐसा मुक्तात्मा पुरुष संसार में रहते हुए भी संसार से न्यारा होता है।
धनभागी वे भी हैं जिन्हें महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है, ईश्वरप्राप्ति में रूचि होती है। उनके समस्त तीर्थों, यज्ञों, तपों और पुण्यों का फल फलित हुआ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 2,3 अंकः 116
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युधिष्ठिर का प्रश्न


युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछाः “कोई मनुष्य नीतिशास्त्र का अध्ययन करके भी नीतिज्ञ नहीं देखा जाता और कोई नीति से अनभिज्ञ होने पर भी मंत्री के पद पर पहुँच जाता है, इसका क्या कारण है ? कभी-कभी विद्वान और मूर्ख दोनों की एक सी स्थिति होती है। खोटी बुद्धि वाले मनुष्य धनवान हो जाते हैं और अच्छी बुद्धि रखने वाले विद्वान को फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं होती।”
भीष्म जी बोलेः “बीज बोये बिना अंकुर नहीं पैदा होता। मनीषी पुरुषों का कहना है कि मनुष्य दान देने से उपभोग की सामग्री पाता है। बड़े बूढ़ों की सेवा करने से उसको उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और अहिंसा-धर्म के पालन से वह दीर्घजीवी होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि स्वयं दान दे, दूसरों से याचना न करे, धर्मनिष्ठ पुरुषों की पूजा करे, मीठे वचन बोले, सबका भला करे, शान्तभाव से रहे और किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।
युधिष्ठिर ! डाँस, कीड़े और चींटी आदि जीवों को उन-उन योनियों में उत्पन्न करके सुख-दुःख की प्राप्ति कराने में उनका अपना किया हुआ कर्म ही कारण है, यह सोचकर अपनी बुद्धि को स्थिर करो और सत्कर्म में लग जाओ।
मनुष्य जो शुभ तथा अशुभ कर्म करता है और दूसरों से कराता है, उन दोनों प्रकार के कर्मों में से शुभ कर्म का अनुष्ठान करके तो उसे प्रसन्न होना चाहिए और अशुभ कर्म हो जाने पर उससे किसी अच्छे फल की आशा नहीं रखनी चाहिए। जब धर्म का फल देखकर मनुष्य की बुद्धि में धर्म की श्रेष्ठता का निश्चय हो जाता है, तभी उसका धर्म के प्रति विश्वास बढ़ता है और तभी उसका मन धर्म में लगता है। जब तक धर्म में बुद्धि दृढ़ नहीं होती, तब तक कोई उसके फल पर विश्वास नहीं करता है।
प्राणियों की बुद्धिमत्ता की यही पहचान है कि वे धर्म के फल में विश्वास करके उसके आचरण में लग जायें। जिसे कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों का ज्ञान है, उस पुरुष को एकाग्रचित्त होकर धर्म का आचरण करना चाहिए। जो अतुल ऐश्वर्य के स्वामी हैं, वे यह सोचकर कि कहीं रजोगुणी होकर हम पुनः जन्म-मृत्यु के चक्कर में न पड़ जायें, धर्म का अनुष्ठान करते हैं और इस प्रकार अपने ही प्रयत्न से आत्मा को महत् पद की प्राप्ति कराते हैं।
काल किसी तरह धर्म को अधर्म नहीं बना सकता अर्थात् धर्म करने वाले को दुःख नहीं देता, इसलिए धर्मात्मा पुरुष को विशुद्ध आत्मा ही समझना चाहिए। धर्म का स्वरूप प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी है। काल उसकी सब ओर से रक्षा करता है। अतः अधर्म में इतनी शक्ति नहीं है कि वह धर्म को छू भी सके। विशुद्धि और पाप के स्पर्श के अभाव – ये दोनों धर्म के कार्य हैं। धर्म विजय की प्राप्ति कराने वाला और तीनों लोकों में प्रकाश फैलाने वाला है।
अतः मंगल चाहने वाले, भविष्य उज्जवल चाहने वालों को प्रयत्नपूर्वक दान, संयम, सुमिरन, जीवों पर दया, सत्संग आदि धर्म-कार्यों में लगे रहना चाहिए। उनका शुभ फल परिपाक होने पर अवश्य मिलता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 116
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नागपंचमी


‘नागपंचमी’ अर्थात् नागदेवता के पूजन का दिवस…. वैसे तो कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जो वर्षभर नागदेवता की पूजा करती हैं, गुजरात में वह जाति ‘रबारि-देसाई’ कही जाती है। किंतु नागपंचमी के दिन तो सभी लोग नागदेवता की पूजा करते हैं।
विचारकों का कहना है कि पूर्वकाल में जब मनुष्य ने खेती करना आरंभ किया था, तब खेत में छिड़की जाने वाली फसलरक्षक दवाओं तथा दवा छिड़कने के साधनों का विकास नहीं हुआ था। उस समय खेती को नष्ट करने वाले चूहों तथा अन्य छोटे जीव-जन्तुओं को नागदेवता स्वाहा कर जाते थे और खेती की रक्षा हो जाती है। इसके कारण मानव-समाज अपने को उनका ऋणी मानता था।
इसके अलावा खेत में हल चलाते वक्त कभी-कभार नाग अथवा नागिन हल के नीचे आ जायें तो वे बदला लिया बिना नहीं रहते, ऐसी परंपरागत कथा-वार्ता सभी सुनते आये हैं। इसलिए साँप के वैर से बचने के लिए वर्ष में एक दिन उनकी पूजा करने का विधान किया गया। वही दिन नागपंचमी कहलाता है।
नागपंचमी के सम्बंध में कई प्रथाएँ प्रचलित हैं-
किसी गाँव का एक किसान जब अपना खेत जोत रहा था तब उसके हल में सर्पिणी की पूँछ आ गयी। सर्पिणी तो भाग गयी लेकिन उसके तीन बच्चे मर गये। उस सर्पिणी ने बदला लेने के लिए रात्रि में किसान के तीन बच्चों को डँस लिया।
यह सुनकर पड़ोस के गाँव में ब्याही हुई किसान की बड़ी कन्या रोती-बिलखती पिता के घर आयी। उस रात्रि में भी सर्पिणी किसान के बच्चों को डँसने के लिए आयी किंतु अपने भाई-बहनों के शोक में व्याकुल किसान की बड़ी पुत्री को नींद नहीं आ रही थी. अतः उसने सर्पिणी को देख लिया। पहले तो वह घबरा गयी लेकिन बाद में सर्पिणी के लिए दूध की कटोरी लेकर आयी और पिता के अपराध के लिए क्षमा-प्रार्थना करने लगी। लड़की द्वारा इस प्रकार स्वागत करने पर सर्पिणी का क्रोध प्रेम में बदल गया और उसने अपने द्वारा डँसे गये बालकों का जहर वापस खींच लिया।
तबसे नागपंचमी के दिन नाग के पूजन की परंपरा चल पड़ी – ऐसा कहा जाता है।
सिंधी जगत में भी एक कथा प्रचलित हैः
किसी निर्धन महिला की एक कन्या थी और उस कन्या को धनप्राप्ति की खूब लालसा थी। एक दिन उसे स्वप्न में सर्पदेवता के दर्शन हुए तथा उन्होंने कहाः
“फलानी जगह पर धन गड़ा हुआ है, तू वहाँ आकर ले जा। मुझे कोई बहन नहीं है और तुझे कोई भाई नहीं है तो आज से तू मेरी बहन और मैं तेरा भाई !”
सर्पदेवता द्वारा बतायी जगह पर उसे बहुत धन मिला और वह खूब धनवान हो गयी। फिर तो वह प्रतिदिन अपने सर्प भाई के पीने के लिए दूध रखती।
सर्पदेवता आकर दूध में पहले अपनी पूँछ डालते और बाद में दूध पीते। एक दिन जल्दबाजी में बहन ने दूध ठंडा किये बिना ही रख दिया। सर्प ने आकर ज्यों ही अपनी पूँछ डाली तो गर्म दूध से उसकी पूँछ जल गयी। सर्प को विचार आया, ‘मैंने बहन को इतना धन दिया किंतु वह दूध का कटोरा भी ठीक से नहीं देती है। अब इसे सीख देनी पड़ेगी।’
बहन श्रावण महीने में अपने कुटुंबियों के साथ कोई खेल खेल रही थी। सर्प को हुआ कि ‘इसके पति को यमपुरी पहुँचा दूँ तो इसे पता चले कि लापरवाही का बदला कैसा होता है ?’
सर्पदेवता उसके पति के जूतों के करीब छिप गये। इतने में तो खेल खेल में कुछ भूल हो गयी। किसी बहन ने कहाः
“यहाँ चार आने नहीं रखे थे।”
सर्प की बहन ने कहाः “सत्य कहती हूँ कि यहीं रखे थे। मैं अपने प्यारे भाई सर्पदेवता की सौगंध खाकर कहती हूँ।”
यह सुनकर सर्प को हुआ कि इसे मेरे लिए इतना प्रेम है ! जिस तरह लोग भगवान अथवा देवता की सौगंध खाते हैं, वैसे ही यह मेरी सौगंध खाती है ! अतः वे प्रकट होकर बोलेः
“तूने तो भूल की थी और मैं भी बड़ी भूल करने जा रहा था। परंतु मेरे प्रति तुम्हारा जो प्रेम है उसे देखते हुए मैं तुझे वरदान देता हूँ कि आज के दिन जो भी बहन मुझे याद करेगी उसके पति अकाल मृत्यु और सर्पदंश के शिकार नहीं होंगे।”
बहनें आज के दिन व्रत तथा नागदेवता का पूजन करती हैं।
वेद की ऋचा में भी सर्प की स्तुति आती है। भगवान शिवजी के आभूषण तो सर्प ही हैं और गणपति जी भी सर्प को धारण करते हैं। लक्ष्मण जी और बलराम जी को शेषावतार माना जाता है। नागों में वासुकि नाग और शेषनाग अपने आत्मदेव को जानते हैं, अतः उनकी पूजा होती है।
पुराणों में आता हैः
राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग के डँसने से हुई थी। परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को हुआ कि ‘पिता को मारने वाले शत्रु से यदि बदला न लिया तो मैं पुत्र किस बात का ?’ उसने ब्राह्मणों से सर्प-यज्ञ आरंभ करवाया। मंत्र का उच्चारण करके यज्ञ में आहूतियाँ दी जाने लगीं, सर्प खिंच-खिंचकर हवनकुंड में गिरने लगे।
तक्षक नाग को मंत्रशक्ति के प्रभाव का पता चला तब उसने इंद्र की शरण ली। इंद्र ने तक्षक की रक्षा के लिए ऋषियों से प्रार्थना की, तब बृहस्पति जी के समझाने से जन्मेजय ने सर्प यज्ञ बंद करवाया।
इस प्रकार अलग-अलग देशों, राज्यों, प्रांतों, जातियों में नागपंचमी के सम्बंध में अलग-अलग कथाएँ प्रचलित हैं।
जो मनुष्य को अपने दंश से यमपुरी पहुँचा देने में समर्थ है ऐसे सर्प के प्रति भी मानव के चित्त में द्वेष न रहे, मनुष्य उससे डरे नहीं, वरन् भय तथा द्वेष जिस प्रभु की सत्ता से दिखते हैं वही प्रभु सर्प में भी हैं – इस भावना से नागपंचमी के दिन नाग की पूजा करें। नागपंचमी को मनाने का ऐसा आशय भी हो सकता है और तत्व की दृष्टि से देखा जाय तो यह सही भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवदगीता’ में कहा हैः
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्येशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रूढानि मायया।।
‘शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।’ (गीताः 18.61)
जो हमें डँस कर मार सकता है ऐसे सर्प में भी भगवान को देखने की प्रेरणा इस उत्सव से मिलती है। कैसी सुंदर व्यवस्था है हमारे सनातन धर्म में, जिससे मौत जीवन में, द्वेष प्रेम में और मनमुखता मुक्तिदायी विचारों में बदल सकती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 116
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