नागपंचमी

नागपंचमी


‘नागपंचमी’ अर्थात् नागदेवता के पूजन का दिवस…. वैसे तो कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जो वर्षभर नागदेवता की पूजा करती हैं, गुजरात में वह जाति ‘रबारि-देसाई’ कही जाती है। किंतु नागपंचमी के दिन तो सभी लोग नागदेवता की पूजा करते हैं।
विचारकों का कहना है कि पूर्वकाल में जब मनुष्य ने खेती करना आरंभ किया था, तब खेत में छिड़की जाने वाली फसलरक्षक दवाओं तथा दवा छिड़कने के साधनों का विकास नहीं हुआ था। उस समय खेती को नष्ट करने वाले चूहों तथा अन्य छोटे जीव-जन्तुओं को नागदेवता स्वाहा कर जाते थे और खेती की रक्षा हो जाती है। इसके कारण मानव-समाज अपने को उनका ऋणी मानता था।
इसके अलावा खेत में हल चलाते वक्त कभी-कभार नाग अथवा नागिन हल के नीचे आ जायें तो वे बदला लिया बिना नहीं रहते, ऐसी परंपरागत कथा-वार्ता सभी सुनते आये हैं। इसलिए साँप के वैर से बचने के लिए वर्ष में एक दिन उनकी पूजा करने का विधान किया गया। वही दिन नागपंचमी कहलाता है।
नागपंचमी के सम्बंध में कई प्रथाएँ प्रचलित हैं-
किसी गाँव का एक किसान जब अपना खेत जोत रहा था तब उसके हल में सर्पिणी की पूँछ आ गयी। सर्पिणी तो भाग गयी लेकिन उसके तीन बच्चे मर गये। उस सर्पिणी ने बदला लेने के लिए रात्रि में किसान के तीन बच्चों को डँस लिया।
यह सुनकर पड़ोस के गाँव में ब्याही हुई किसान की बड़ी कन्या रोती-बिलखती पिता के घर आयी। उस रात्रि में भी सर्पिणी किसान के बच्चों को डँसने के लिए आयी किंतु अपने भाई-बहनों के शोक में व्याकुल किसान की बड़ी पुत्री को नींद नहीं आ रही थी. अतः उसने सर्पिणी को देख लिया। पहले तो वह घबरा गयी लेकिन बाद में सर्पिणी के लिए दूध की कटोरी लेकर आयी और पिता के अपराध के लिए क्षमा-प्रार्थना करने लगी। लड़की द्वारा इस प्रकार स्वागत करने पर सर्पिणी का क्रोध प्रेम में बदल गया और उसने अपने द्वारा डँसे गये बालकों का जहर वापस खींच लिया।
तबसे नागपंचमी के दिन नाग के पूजन की परंपरा चल पड़ी – ऐसा कहा जाता है।
सिंधी जगत में भी एक कथा प्रचलित हैः
किसी निर्धन महिला की एक कन्या थी और उस कन्या को धनप्राप्ति की खूब लालसा थी। एक दिन उसे स्वप्न में सर्पदेवता के दर्शन हुए तथा उन्होंने कहाः
“फलानी जगह पर धन गड़ा हुआ है, तू वहाँ आकर ले जा। मुझे कोई बहन नहीं है और तुझे कोई भाई नहीं है तो आज से तू मेरी बहन और मैं तेरा भाई !”
सर्पदेवता द्वारा बतायी जगह पर उसे बहुत धन मिला और वह खूब धनवान हो गयी। फिर तो वह प्रतिदिन अपने सर्प भाई के पीने के लिए दूध रखती।
सर्पदेवता आकर दूध में पहले अपनी पूँछ डालते और बाद में दूध पीते। एक दिन जल्दबाजी में बहन ने दूध ठंडा किये बिना ही रख दिया। सर्प ने आकर ज्यों ही अपनी पूँछ डाली तो गर्म दूध से उसकी पूँछ जल गयी। सर्प को विचार आया, ‘मैंने बहन को इतना धन दिया किंतु वह दूध का कटोरा भी ठीक से नहीं देती है। अब इसे सीख देनी पड़ेगी।’
बहन श्रावण महीने में अपने कुटुंबियों के साथ कोई खेल खेल रही थी। सर्प को हुआ कि ‘इसके पति को यमपुरी पहुँचा दूँ तो इसे पता चले कि लापरवाही का बदला कैसा होता है ?’
सर्पदेवता उसके पति के जूतों के करीब छिप गये। इतने में तो खेल खेल में कुछ भूल हो गयी। किसी बहन ने कहाः
“यहाँ चार आने नहीं रखे थे।”
सर्प की बहन ने कहाः “सत्य कहती हूँ कि यहीं रखे थे। मैं अपने प्यारे भाई सर्पदेवता की सौगंध खाकर कहती हूँ।”
यह सुनकर सर्प को हुआ कि इसे मेरे लिए इतना प्रेम है ! जिस तरह लोग भगवान अथवा देवता की सौगंध खाते हैं, वैसे ही यह मेरी सौगंध खाती है ! अतः वे प्रकट होकर बोलेः
“तूने तो भूल की थी और मैं भी बड़ी भूल करने जा रहा था। परंतु मेरे प्रति तुम्हारा जो प्रेम है उसे देखते हुए मैं तुझे वरदान देता हूँ कि आज के दिन जो भी बहन मुझे याद करेगी उसके पति अकाल मृत्यु और सर्पदंश के शिकार नहीं होंगे।”
बहनें आज के दिन व्रत तथा नागदेवता का पूजन करती हैं।
वेद की ऋचा में भी सर्प की स्तुति आती है। भगवान शिवजी के आभूषण तो सर्प ही हैं और गणपति जी भी सर्प को धारण करते हैं। लक्ष्मण जी और बलराम जी को शेषावतार माना जाता है। नागों में वासुकि नाग और शेषनाग अपने आत्मदेव को जानते हैं, अतः उनकी पूजा होती है।
पुराणों में आता हैः
राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग के डँसने से हुई थी। परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को हुआ कि ‘पिता को मारने वाले शत्रु से यदि बदला न लिया तो मैं पुत्र किस बात का ?’ उसने ब्राह्मणों से सर्प-यज्ञ आरंभ करवाया। मंत्र का उच्चारण करके यज्ञ में आहूतियाँ दी जाने लगीं, सर्प खिंच-खिंचकर हवनकुंड में गिरने लगे।
तक्षक नाग को मंत्रशक्ति के प्रभाव का पता चला तब उसने इंद्र की शरण ली। इंद्र ने तक्षक की रक्षा के लिए ऋषियों से प्रार्थना की, तब बृहस्पति जी के समझाने से जन्मेजय ने सर्प यज्ञ बंद करवाया।
इस प्रकार अलग-अलग देशों, राज्यों, प्रांतों, जातियों में नागपंचमी के सम्बंध में अलग-अलग कथाएँ प्रचलित हैं।
जो मनुष्य को अपने दंश से यमपुरी पहुँचा देने में समर्थ है ऐसे सर्प के प्रति भी मानव के चित्त में द्वेष न रहे, मनुष्य उससे डरे नहीं, वरन् भय तथा द्वेष जिस प्रभु की सत्ता से दिखते हैं वही प्रभु सर्प में भी हैं – इस भावना से नागपंचमी के दिन नाग की पूजा करें। नागपंचमी को मनाने का ऐसा आशय भी हो सकता है और तत्व की दृष्टि से देखा जाय तो यह सही भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवदगीता’ में कहा हैः
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्येशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रूढानि मायया।।
‘शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।’ (गीताः 18.61)
जो हमें डँस कर मार सकता है ऐसे सर्प में भी भगवान को देखने की प्रेरणा इस उत्सव से मिलती है। कैसी सुंदर व्यवस्था है हमारे सनातन धर्म में, जिससे मौत जीवन में, द्वेष प्रेम में और मनमुखता मुक्तिदायी विचारों में बदल सकती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 116
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