गुरूभक्तियोग के मूल सिद्धान्त
गुरू में अखण्ड श्रद्धा गुरूभक्तियोग रूपी वृक्ष का मूल है।
उत्तरोत्तर वर्धमान भक्तिभावना, नम्रता, आज्ञा-पालन आदि इस वृक्ष की शाखाएँ हैं। सेवा फूल है। गुरू को आत्मसमर्पण करना अमर फल है।
अगर आपको गुरू के जीवनदायक चरणों में दृढ़ श्रद्धा एवं भक्तिभाव हो तो आपको गुरूभक्तियोग के अभ्यास में सफलता अवश्य मिलेगी।
सच्चे हृदयपूर्वक गुरू की शरण में जाना ही गुरूभक्तियोग का सार है।
करसन चौधरी, जो गुजरात सरकार में मंत्री थे, उनके गाँव मे बापूजी सत्संग के लिए कई बार जाते थे।
एक बार वहाँ गए तो जंगल घूमने गए।
वहाँ एक वृद्ध माता जी थी, उनका बापू जी के प्रति बहुत प्रेम था। परंतु वह बहुत गरीब थी और झोपड़ी में रहती थी।
वे बापू जी के पास नही आ सकी तो बापू जी स्वयं उनकी झोंपड़ी में पहुँच गए।
वे माताजी तो पूज्यश्री को देखते ही चहक उठी और “बापू!…बापू!…” करते हुए भावविभोर हो गयी।
बापू जी ने कहा: ” माताजी! मुझे खाने को दो।”
माता जी ने बाजरे की मोटी -मोटी रोटी और ग्वारफली की सब्जी बनाई थी।
जैसे शबरी ने राम जी को बड़े प्रेम से झूठे बेर खिलाये थे उसी प्रकार बड़े प्रेम व प्रसन्नता से उन्होंने बापू जी को बाजरे की रोटी और ग्वारफली की सब्जी दी।
बापू जी को बोरे का आसन दिया, उनकी झोंपड़ी में और कुछ तो था नही।
उनका प्रेम शबरी जैसा था।
बाजरे की रोटी और ग्वारफली की सब्जी खाकर बापू जी ने कहा: ” आज भोजन में बड़ा आनन्द आया खाने को इतना अच्छा मिला।”
माता जी के आंखों में प्रेमाश्रुओं की धार बहने लगी, वे गदगद हो गई।
बाद में करसन भाई चौधरी बापूजी के आगे रोने लगे।
बापू जी ने पूछा:” ऐसा क्यो करते हो?”
“बापू जी! हम आपके लिए घर से कितने टिफिन लाते है मगर आप कभी नही खाते और उन माता जी का आपने खाया तो हमारे प्यार में कुछ कमी होगी इसलिए हमारा कभी नही लिया।”
“हम तो सभी जीवों का कल्याण चाहते है।
वे तो माताजी थी, दूसरे किसी जीव का भी कल्याण होने वाला हो तो वह हो जाता है,
मैं कुछ नही करता।”