पूज्य बापूजी के नैनीताल का यह प्रसंग आपको भाव विभोर कर देगा….

पूज्य बापूजी के नैनीताल का यह प्रसंग आपको भाव विभोर कर देगा….


जैसे कुंदन स्वर्ण को और उज्जवल बनाने के लिए सुनार भट्ठी में डालता है ऐसे ही सद्गुरु शिष्य को अधिक गुरु बनाने के लिए, अधिक उसको तेजस्वी बनाने के लिए उससे कभी-कभी कठोर व्यवहार करते है। जिसका मन कुछ सह नही सकता उसका मन गुरु से कुछ प्राप्त भी नही कर सकता इसलिए सहनशक्ति बढाने के लिए गुरु कठोरता का व्यवहार करते है उनकी मधुर चेष्टाएँ भी मधुर है लेकिन कठोर व्यवहार भी मधुर है।

माँ के हाथ से मिला हुआ रसगुल्ला भी मीठा है माँ के हाथ से मिला हुआ कटु से कटु व्यंजन भी मीठा होता है, क्यों? क्योंकि तमाम कटुता को दूर करने के लिए तमाम रोग को दूर करने के लिए माँ को ऐसा करना ही चाहिए।

पूज्य श्री कहते है कि- मैं गुरु के चरणों मे जब नैनीताल पहुंचा तब स्वामी जी वहां नही थे, हम 40 दिन इंतज़ार में थे बुहारी करके रहते थे स्वामी जी की कुटिया के इर्द गिर्द सफाई कर देते थे। आम के खोखे के पेटियों से एक छोटा

सा कुटीर बना था, खोखा ही बना था ऐसा कह दो ऊपर सड़े गले पतरे थे। कहां तो गत्तों की दिवाल और वो भी नैनीताल में और ऊपर सड़े गले पतरे और छत भी इतना ऊंचा कि उसमे झुक कर जाना पड़ता था, सर्वांग आसन नही कर सकते थे।

जो स्वामी जी के बगीचे का माली था वो वहां रहता था हम भी वहीं रहे दाल या मूंग उबाल के खाते थे और चालीस दिन तक पड़े रहे कि आज आयेंगे, आज आयेंगे, आज स्वामी जी आएंगे… जब स्वामी जी आये तो उन्होंने कहा- घर चले जाओ।

मैने कहा- स्वामी जी 40 दिन से यहां आपके इंतज़ार में था और आपके चरणों मे समर्पित होने को आया हूँ।

बोले- बस हो गया दर्शन.. हो गया जाओ अभी आज्ञा का पालन करो, जाओ यहां से।

-हम तो हां ना भी कैसे करें? चुप रहा आंखों से आंसू बरसे देखे फिर स्वामी जी बोले- अच्छा ऐसे करो थोड़ा दिन रह लो फिर तुम चले जाना घर।

फिर 30 दिन और रहा।

एक दिन बीता दूसरा दिन बीता पूछा नही कि तुम रोटी खाते हो कि नही? बीती हुई बात है विश्वास करो तो तुम्हारी मर्जी न करो तो तुम्हारी मर्जी। ये बीती हुई बात है सुनी हुई नही है, पढ़ी हुई नही है बीती हुई है। फिर कुछ दिनों बाद स्वामी जी ने पूछा कि- क्या खाता है?

मैंने कहा- जी ! मूंग की दाल रख दिया हूँ और तपेली में डाल देता हूं और होती रहती है और ध्यान भजन में से टाइम मिलता है तो खा लेता हूं और फिर अपना ध्यान भजन में बैठ जाता हूं।

स्वामी जी ने कहा- अच्छा खाली मूंग की दाल खाता है।

मैंने कहा- हां ! और आज आप आने वाले थे ऐसा मुझे पता चला तो मैंने ज्यादा बनाई है और आप, स्वीकार हो जाये तो…….

-ठीक है अच्छा ले आना।

तो हमने तो बनाई थी मेरी दानत खराब थी सीधी बात है हमने बनाई थी कुछ ज्यादा बनाये। 40 दिन दाल पी के शरीर कृष हो गया है तो स्वामी जी को दाल अर्पण करूँगा तो स्वामी जी के हाथ की एक दो रोटी मिल जाएगी तो मैं दाल रोटी खा लूंगा स्वामी जी भी खा लेंगे। दानत खराब थी वहां तक पहुंचने के बाद भी कभी मन धोखा देता है। दाल की तपेली ले गया श्री चरणों मे।

स्वामी जी ने कहा- विरवान ! भाई और तुम सब्जी ज्यादा नही बनाना दाल तो ये सन्त की है, दाल और फुलका खा लेते है, हम थके हुए है जल्दी करो। तो स्वामी जी को उनके रसोइये को जितनी दाल की आवश्यकता थी निकाल दी बाकी जो बची कटोरी जितनी, दो कटोरी तो बोला कि अपनी दाल ले जाओ। मैं रख दिया मैं कहा- अब फुलका के लिए बुलाएंगे अब बुलाएंगे। न कोई फुलका न कोई फुलकी, न कोई पूड़ी न कोई पकोड़ा चलो ठीक है ! स्वामी जी का हाथ का फुलका नही मिला, चलो ठीक है लेकिन दाल तो स्वीकार हुई अब कुछ स्वीकार हुआ नही अब, नही अब नही फिर दाल पिया प्रेम से फिर सोचा रात को स्वामी जी का भोजन बनेगा तो उस समय स्वामी जी सोचेंगे थोड़ी दाल पिया होगा बेचारा भूखा होगा रात को फुलके मिल जाएंगे। दानत देखो मनुष्य की।

रात हुई स्वामी जी को कुछ अल्पाहार जो कुछ अल्पाहार करते थे कभी भोजन करते थे तो कभी चने खा लेते थे अधिक तंदुरुस्त रहने का ख्याल होता है तपस्वियों के लिए, आत्मा में रमने वालो को पेट भरने का थोड़े ही होता है। तो स्वामी जी ने तो अपना पा लिया और विरवान ने भी खाया पिया और मैं हुआ और मैं…. आप जरा विचार करो कि नैनीताल माना बर्फ पड़ती हिमालय का हिस्सा है, हिमालय से मिला हुआ है बहुत ठंड होती है वहा सर्दी के दिन और फिर नैनीताल में सर्दी के दिन तो नही थी लेकिन नैनीताल माने सर्दी सर्दी। तो अभी ऐसी सर्दी पड़ती है यहां परन्तु इससे ज्यादा वहां होती थी गर्मियों में तो शरीर कुल्फी हो जाता था और वह जो कुटिया थी वह तो मैंने बयान किया और फिर रात को खाये नही तो सारी रात कुंडलिनी जागे और कुछ जगे भी नही। ऐसी फिर स्वामी जी ने रात को आवाज लगाई वीरवान को ए विरवान ! कुछ चूहे थे तो पिंजरा मंगाया और हमने सोचा कि स्वामी जी विरवान को बोल रहे है कि सन्त को फुलका देके आओ भूख में तो सूखा फुलका भी अमृत होता है लेकिन वह फुलका नही मिला फिर दूसरे दिन तो मैंने डट के दाल बनाई स्वामी जी ने अपना बनवाया और खाया और हमने स्वामी जी भोजन कर लिए फिर अपना खा लिया। ऐसे करते करते दिन बीत गए एक दिन पूछा कि- खाता है तो पैसे कहां से लाता है ?

मैने कहा- घर छोड़ा था तो मुरादी थी न वह थैली लेके भागा था। अब दान का क्या खाना। भाई और हमदोनो साथ मे रहते है इसलिए कोई चोरी का तो हुआ नही हम अपने दोनों हिस्से को थोड़े लेकर भागे। इन पैसों में से थोड़ा भंडारा किया, थोड़ा कुछ किसी आश्रम में रहा तो वहां दक्षिणा दिया ऐसा करते-करते यहां मैं पहुँच गया हूं, अब थोड़े पैसे है।

अब कितने पड़े है?

मैने कहा- अब बाकी दो रुपये है और एक आना दो आना था।

उस जमाने आनो का जमाना था जमाना बदला न था। 6 नए पैसो का पूरा एक आना तो 2 रुपये और कुछ आने 2 आने थे ऐसा कहते-कहते मेरी आँखों से आंसू आ गये। मैंने कहा कभी कभी तो ऐसा होता है कि स्वामी जी आज्ञा करेंगे चला जा तो गाड़ी में तो खड़िया पंटल की नाई बैठ जाऊंगा और आजतक मांगा नही और मांगने का भी नही लेकिन स्वामी जी कह देंगे चले जाओ तो 2 रुपये में तो बस वाला भी नही ले जाएगा। क्या अब करूँ? कभी-कभी तो स्वामी जी ऐसा भी विचार आता है इसलिए मुझको जाने की आज्ञा नही करना।

स्वामी जी ने कहा- नही-नही ! तुम चिंता नही करो 25 रुपया तुम्हारे नाम का कोई दे गया है इधर और आटा भी दे गया है। अब था तो उन्ही का कौन दे जाएगा। 4 नारंगी, 25 रुपया और आटा पकड़ा दिया बोला-अब ये फुलका बनाके खाया करो और पैसे रखो। इतने में तो मेरा कोई मित्र था हम घर मे थे तो उसको हमने पैसे दे रखे थे 600 रुपया उसके काम मे, तो हमने चिट्ठी लिख दी तो उसने 100 रुपये भेजे। स्वामी जी को जब पता चला तो वह किराया कराके फिर हमें स्वामी जी ने घर भेज दिया फिर भी आपलोगो की कृपा से मन मे ऐसे नही हुआ कि मैंने घर बार छोड़ा, इतना तिलांजलि दिया, पत्नी को छोड़ दिया, 40 दिन इंतज़ार किया और स्वामी जी ने खिलाया भी नही पिलाया भी नही और फिर वापस घर मे लौटा दिया उस कीचड़ मे, ऐसे गुरु नही चाहिए। ऐसा यदि दुर्भायग्य का विचार आता तो आज मैं यहां नही होता।

स्वामी जी की आज्ञा है घर मे रहो, भजन करो। मैं घर मे आया 13 दिन रहा लेकिन रहना मुश्किल था फिर नर्मदा किनारे पहुंच गया फिर चिट्ठी लिखी कि आपकी आज्ञा तो मैंने पालन किया है लेकिन अब स्वीकार करो ऐसा करके फिर मुलाकात हुई और बात बन गई।

स्वामी शिवानंद जी कहते है कि- पवित्र वेदों के रहस्य उद्घाटक एवं पूर्ण ब्रम्हरूप महान गुरु को मैं नमस्कार करता हु जो ज्ञान, विज्ञानरूप वेदों की सार को भृमर की तरह चूसकर अपने भक्तों को देते है। सच्चे शिष्य को अपने हॄदय के कोने में अपने सम्माननिय गुरु के चरण कमलों को सदैव प्रतिष्ठित रखना चाहिए।

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