परमानंद की प्राप्ति का साधन

परमानंद की प्राप्ति का साधन


 

पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

आत्मकल्याण के इच्छुक व ईश्वरानुरागी साधकों को आत्मशान्ति, आत्मबल प्राप्त करने के लिए, चित्तशुद्धि के लिए ज्ञानमुद्रा बड़ी सहाय करती है। ब्रह्ममुहूर्त की अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर गर्म आसन बिछाकर पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाओ। 10-15 प्राणायाम कर लो। यदि त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम हो तो बहुत अच्छा है। तदनन्तर दोनों हाथों की तर्जनी यानी पहली अंगुली के नाखून को अंगूठों से हल्का सा दबाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखो। शेष तीनों अंगुलियाँ सीधी व परस्पर जुड़ी रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे। गर्दन व रीढ़ की हड्डी सीधी। आँखें अर्धोन्मिलित एवं शरीर अडोल रहे।

अब गहरा श्वास लेकर ʹૐ….ʹ का दीर्घ गुँजन करो। प्रारंभ में ध्वनि कण्ठ से निकलेगी, फिर गहराई में जाकर हृदय से ʹૐʹ की ध्वनि निकालिये। बाद में और गहरे जाकर नाभि या मूलाधार से ध्वनि उठाइये। उस ध्वनि से सुषुम्ना का द्वार खुलता है और जल्दी से आनंद प्राप्त होता है। चंचल मन तब तक भटकता रहेगा, जब तक उसे भीतर का आनंद नहीं मिलेगा। ज्ञानमुद्रा व ʹૐʹ की ध्वनि से मन की भटकान शीघ्र बन्द होने लगेगी। ध्यान के समय जो काम करने की जरूरत न हो उसका चिन्तन छोड़ दो। चिन्तन आ जाय तो ʹૐ अगड़ं-बगड़ं स्वाहाʹ करके उस व्यर्थ चिन्तन से अपना पिण्ड छुड़ा लो।

संकल्प करके बैठो कि हम अब ज्ञानमुद्रा में, ʹૐʹ की पावन ध्वनि के साथ वर्त्तमान घड़ियों का पूरा का आदर करेंगे। मन कुछ देर टिकेगा… फिर इधर-उधर के विचारों की जाल बुनने लग जायेगा। दीर्घ स्वर से ʹૐʹ की ध्वनि करके मन को पुनः खींचकर वर्त्तमान में लाओ। मन को प्यार से, पुचकार से समझाओ। 8-10 बार ʹૐʹ की ध्वनि करके शान्त हो जाओ। शऱीर के भीतर वक्षस्थल में तालबद्ध धड़कते हुए हृदय को मन से निहारते रहो…. निहारते रहो…. मानो शरीर को जीने के लिए उसी धड़कन के द्वारा विश्व-चैतन्य से सत्ता-स्फूर्ति प्राप्त हो रही है। हृदय की उस धड़कन के साथ ʹૐ….. राम…..ʹ मंत्र का अनुसंधान करते हुए मन को जोड़ दो। हृदय की धड़कन के रूप में हर क्षण अपने को प्रकट करने वाले उस सर्वव्यापक परमात्मा को स्नेह करते जाओ। हमारी शक्ति को क्षीण करने वाली, हमारा आत्मिक खजाना लूटकर हमें बेहाल करने वाली भूतभविष्य की कल्पनाएँ हृदय की इन वर्त्तमान धड़कनों का आदर करने से कम होने लगेंगी। हृदय में प्यार व आनंद उभरता जायेगा। जैसे मधुमक्खी सुमधुर सुगंधित पुष्प पाकर चूसने के लिए वहाँ चिपक जाती है वैसे ही चित्त रूपी भ्रमर को परमात्मा से प्यार प्रफुल्लित होते हुए अपने हृदयकमल पर बैठा दो, दृढ़ता से चिपका दो। अपने को वृत्तियों से बचाकर निःसंकल्पावस्था का आनंद बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ૐ का पावन गुँजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसा निर्विषय निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि परमात्मा आनंदस्वरूप है।

इस आत्मध्यान से, आत्मचिन्तन से भोक्ता की बर्बादी रूकती है। भोक्ता स्वयं आनंदस्वरूप परमात्मामय होने लगता है, स्वयं परमात्मा होने लगता है। परमात्मा होना क्या है…. अनादि काल से परमात्मा था ही यह जानने लगता है।

ठीक से अभ्यास करने पर कुछ ही दिनों में आनंद और अनुपम शान्ति का एहसास होगा। आत्मबल की प्राप्ति होगी। मनोबल व बुद्धिबल में वृद्धि होगी। चित्त के दोष दूर होंगे। अपने अस्तित्त्व का बोध होने मात्र से आनंद आने लगेगा। ध्यान-भजन-साधना से अपनी योग्यता ही बढ़ाना है। परमात्मा एवं परमात्मा से अभिन्नता सिद्ध किये हुए सदगुरु को आपके हृदय में आत्मखजाना देने में देर नहीं लगती। बस, साधक को अपनी योग्यता का विकास करने भर की देर है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 26,19 अंक 53

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