Monthly Archives: March 2001

निद्रा और स्वास्थ्य


जब आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियाँ और हाथ पैर आदि कर्मेन्द्रियाँ तथा मन अपने-अपने कार्यों में रत रहने के कारण थक जाते हैं तब नींद स्वाभाविक हो आ जाती है।  जो लोग नियत समय पर सोते और उठते हैं, उनकी शारीरिक शक्ति में ठीक से वृद्धि होती है। पाचकाग्नि प्रदीप्त होती है जिससे शरीर की धातुओं का निर्माण उचित ढंग से होता रहता है। उनका मन दिन भर उत्साह से भरा रहता है जिससे वे अपने सभी कार्य तत्परता से कर सकते हैं।

रात्रि के प्रथम प्रहर में सो जाना और ब्राह्ममुहूर्त में उठना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हितकर है।

अच्छी नींद के लिए रात्रि का भोजन अल्प तथा सुपाच्य होना चाहिए। सोने से दो घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए। भोजन के बाद स्वच्छ, पवित्र तथा विस्तृत स्थान में अच्छे, अविषम एवं घुटनों तक के ऊँचाई वाले शयनासन पर पूर्व या दक्षिण की ओर सिर करके प्रसन्न मन से ईश्वरचिंतन करते-करते सो जाना चाहिए। शयन से पूर्व प्रार्थना करने मानसिक शांति मिलती है। एवं नसों में शिथिलता उत्पन्न होती है। इससे स्नायविक तथा मानसिक रोगों से बचाव व छुटकारा मिलता है। यह नियम अनिद्रा रोग एवं दुःस्वप्नों से भी बचाता है। यथाकाल निद्रा के सेवन से शरीर पुष्टि होती है तथा बल और उत्साह-चैतन्य की प्राप्ति होती है।

निद्रानाश के कारणः

कुछ कारणों से हमें रात्रि में नींद नहीं आती। कभी-कभी थोड़ी बहुत नींद आ भी गयी तो आँख तुरन्त खुल जाती है। वात-पित्त की वृद्धि होने पर अथवा फेफड़े, सिर, जठर आदि शरीरांगों से कफ का अंश क्षीण होने के कारण वायु की वृद्धि होने पर अथवा अति परिश्रम के कारण थक जाने से अथवा क्रोध, शोक भय से मन व्यथित होने पर नींद नहीं आती या कम आती है।

निद्रानाश के परिणामः

निद्रानाश से बदनदर्द, सिर में भारीपन, जड़ता ग्लानि, भ्रम, अन्न का न पचना एवं वातजन्य रोग पैदा होते हैं।

शंखपुष्पी और जटामांसी का 1 चम्मच सम्मिश्रित चूर्ण सोने से पहले दूध के साथ लेना।

अपने शारीरिक बल से अधिक परिश्रम न करना।

ब्राह्मी, आँवला, भांगरा आदि शीत द्रव्यों से सिद्ध तेल सिर पर लगाना।

शुद्धे शुद्धे महायोगिनी महानिद्रे स्वाहा। इस मंत्र का जप 10 मिनट या अधिक करने स अनिद्रा निवृत्त होगी व नींद अच्छी आयेगी।

रात्रि का जागरण रूक्षताकारक एवं वायुवर्धक होता है। दिन में सोने से कफ बढ़ता है और पाचकाग्नि मंद हो जाती है जिससे अन्न का पाचन ठीक से नहीं होता। इससे पेट की अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं तथा त्वचा विकार, मधुमेह, दमा, संधिवात आदि अनेक विकार होने की संभावना होती है। बहुत से व्यक्ति दिन और रात दोनों काल में खूब सोते हैं। इससे शरीर में शिथिलता आ जाती है। शरीर में सूजन, मलावरोध, आलस्य तथा कार्य में निरुत्साह आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।

अतः दिन में सोने वाले सावधान ! मंदाग्नि और कफवृद्धि करके कफजनित रोगों को न बुलाओ। रात की नींद ठीक से लो। दिन मे सोकर स्वास्थ्य बिगाड़ने की आदत बन्द करो-कराओ। नन्हें मासूमों को, रात्रि में जागने वालों को, कमजोर व बिमारों को और जिनको वैद्य बताते हैं उनको दिन में सोने की आवश्यकता हो तो उचित है।

अति निद्रा की चिकित्सा

उपवास अथवा हल्का, सुपाच्य एवं अल्प आहार से नींद अधिक नहीं आती।

सुबह शाम 10-10 प्राणायाम करना भी हितकारी है।

नेत्रों में अंजन करने से तथा आधी चुटकी वचा चूर्ण (घोड़ावज) का नस्य लेने से नींद का आवेग कम होता है। इस प्रयोग से मस्तिष्क में कफ और बुद्धि पर जो तमोगुण का आवरण होता है, वह दूर हो जाता है।

स्वास्थ्य पर विचारों का प्रभाव

विचारों की उत्पत्ति में हमारी दिनचर्या, वातावरण, सामाजिक स्थिति आदि विभिन्न तथ्यों का असर पड़ता है। अतः दैनिक जीवन में विचारों का बड़ा ही महत्त्व होता है। कई बार हम केवल अपने दुर्बल विचारों के कारण रोगग्रस्त हो जाते हैं और कई बार साधारण से रोगी की स्थिति भयंकर रोग की कल्पना से अधिक बिगड़ जाती है और कई बार डाक्टर डरा देते है। कमीशन की लालच व अंधे स्वार्थ में आकर वे बिन जरूरी मशीनों से चेकअप व आपरेशन इंजेक्शनों के घाट उतार देते हैं। यदि हमारे विचार अच्छे हैं, दृढ़ हैं तो हम स्वास्थ्य-संबंधी नियमों का पालन करेंगे और साधारण रोग होने पर योग्य विचारों से ही हम उससे मुक्ति पाने मे समर्थ हो सकेंगे।

सात्त्विक विचारों की उत्पत्ति में सात्त्विक आहार, सत्शास्त्रों का पठन, महात्माओं के जीवन चरित्र का अध्ययन, ईश्वरचिन्तन, भगवन्नाम-स्मरण, योगासन और ब्रह्मचर्य-पालन बड़ी सहायता करते हैं।

श्रीरामचरितमानस में आता हैः

सदगुरु बैद वचन बिस्वासा। संयम यह न विषय के आसा।।

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहीं जाहीं।।

सदगुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो। श्रीरघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायें, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते। (श्रीरामचरितमानस. उ.कां. 121.3-4)

वसंत ऋतुचर्या

वसंत ऋतु संधिकाल की ऋतु है। इन दिनों में चर्मरोग, सर्दी, जुकाम, खाँसी, बुखार, सिरदर्द, कृमि आदि रोग होते हैं। इस ऋतु में शीत ऋतु की तरह भारी, खट्टे, ठंडे व मधुर रसवाले पदार्थों का सेवन न करें। आइसक्रीम, ठंडे पेय पदार्थ, मावे से बनी मिठाइयाँ, केले, संतरा आदि कफवर्धक फल न खायें। आँवला, शहद, मूंग, अदरक, परवल, दालचीनी, धानी, चना, मुरमुरा आदि कफनिवारक पदार्थों का सेवन करना चाहिए।

चैत्र मास में नीम के नये पत्ते खाने की बड़ी महिमा है। 14 दिन सुबह 10-15 कोमल पत्ते खूब चबा-चबाकर खाने से या उसका रस निकाल कर पीने से शरीर में रोग प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है तथा चर्मरोग, रक्तविकार, ज्वर और अन्य कफ व पित्तदोष के रोग नहीं होते।

शरीर से जहरीले हानिकारक द्रव्यों को निकालने के लिए इस ऋतु में 2 से 5 ग्राम हरड़ व शहद सममात्रा में नित्य प्रातः लेना चाहिए। इस ऋतु में सूर्योदय से पहले उठना, व्यायाम, दौड़, तेज चलना, रस्सीकूद, प्राणायाम, आसन अधिक हितकारी हैं।

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उपवासः विषय-वासना निवृत्ति का अचूक साधन

अन्न में मादकता होती है। इसमें भी एक प्रकार का नशा होता है। भोजन करने के तत्काल बाद आलस्य के रूप में इस नशे का प्रायः सभी लोग अनुभव करते हैं। पके हुए अन्न के नशे में एक प्रकार की पार्थिव शक्ति निहित होती है, जो पार्थिव शरीर का संयोग पाकर दुगनी हो जाती है। इस शक्ति को शास्त्रकारों ने ‘आधिभौतिक शक्ति’ कहा जाता है।

इस शक्ति की प्रबलता में वह आध्यात्मिक शक्ति जो हम पूजा-उपासना के माध्यम से एकत्र करना चाहते हैं, नष्ट हो जाती है। अतः भारतीय महर्षियों ने सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास का प्रथम स्थान रखा है।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

गीता के अनुसार उपवास, विषय-वासना से निवृत्ति का अचूक साधन है। खाली पेट को फालतू की ‘मटरगस्ती’ नहीं सूझती। अतः शरीर, इन्द्रियों और मन पर विजय पाने के लिए जितासन और जिताहार होने की परम आवश्यकता है।

आयुर्वेद तथा आज का विज्ञान दोनों का एक ही निष्कर्ष है कि व्रत और उपवासों से जहाँ अनेक शारीरिक व्याधियाँ समूल नष्ट हो जाती हैं, वहाँ मानसिक व्याधियों के शमन का भी यह एक अमोघ उपाय है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि सप्ताह में एक दिन तो व्रत रखना ही चाहिए। इससे आमाशय, यकृत एवं पाचनतंत्र को विश्राम मिलता है तथा उनकी स्वतः ही सफाई हो जाती है। इस रासायनिक प्रक्रिया से पाचनतंत्र मजबूत हो जाता है तथा व्यक्ति की आन्तरिक शक्ति के साथ-साथ उसकी आयु भी बढ़ती है।

धन्यवन्तरी आरोग्य केन्द्र, साबरमती, अमदावाद

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गोदुग्ध पृथ्वी का अमृत क्यों ?

भारतीय नस्ल की गाय की रीढ़ में सूर्यकेतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है। जब इस नाड़ी पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तब यह नाड़ी किरणों से सुवर्ण के सूक्ष्म कणों का निर्माण करती है। इसीलिए गाय के दूध, मक्खन तथा घी में पीलापन रहता है। यह पीलापन शरीर में उपस्थित विष को समाप्त अथवा बेअसर करने में लाभदायी सिद्ध होता है। गोदुग्ध का नित्य सेवन दवाओं के दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट) से उत्पन्न विष का भी शमन करता है।

गोदुग्ध में प्रोटीन की इकाई ‘अमीनो एसिड’ की प्रचुर मात्रा होने से यह सुपाच्य तथा चर्बी की मात्रा कम होने से ‘कोलेस्ट्रोल’ रहित होता है।

गाय के दूध में उपस्थित ‘सेरीब्रोसाइडस’ मस्तिष्क को ताजा रखने एवं बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए उत्तम टानिक का निर्माण करते हैं।

रूस के वैज्ञानिक गाय के दूध को आण्विक विस्फोट से उत्पन्न विष को शमन करने वाला मानते हैं।

कारनेल विश्विद्यालय में पशुविज्ञान विशेषज्ञ प्रोफेसर रोनाल्ड गोरायटे के अनुसार गाय के दूध में MDGI प्रोटीन होने से शरीर की कोशिकाएँ कैंसरयुक्त होने से बचती हैं।

गोदुग्ध पर अनेक देशों में और भी नये-नये परीक्षण हो रहे हैं तथा सभी परीक्षणों से इसकी नवीन विशेषताएँ प्रगट हो रही हैं। धीरे-धीरे वैज्ञानिकों की समझ में आ रहा है कि भारतीय ऋषियों ने गाय को माता, अवध्य तथा पूजनीय क्यों कहा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 28-30, अंक 99

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मन के जीते जीत….


संत श्री आसाराम बापू जी के सत्संग प्रवचन से

जैसे, सागर से लहरियाँ उठती हैं, ऐसे ही सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मारूपी सागर से आपका मन उभरता है। मन के दो छोर हैं- चैतन्यस्वरूप परमात्मा और संसार।

जैसे, एक पुल नदी के दो किनारों को जोड़ता है, ऐसे ही परमात्मा एवं जगत को जोड़ने वाले सेतु का नाम है मन। मन अगर शरीर एवं संसार को मैं-मेरा मानकर चलता है तो नश्वर संसार में ही जीवन खप जाता है लेकिन वही मन अगर परमात्मा को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर उसे पाने का यत्न करता है तो शाश्वत अमर पद को पा लेता है।

किन्हीं महापुरुष ने ठीक ही कहा हैः

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

मन से ही तो पाइये परब्रह्म की प्रीत।।

मन से मनुष्य संसार-बंधन में बँधता है एवं मन से ही इससे मुक्त होता है। शास्त्रों में भी कहा गया हैः

मनः एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।

‘मन ही मनुष्यों के बंधन एवं मोक्ष का कारण है।’

मन है प्रकृति का और कल्पना होती है मन की। प्रकृति परिवर्तनशील है तो मन भी परिवर्तनशील है और मन परिवर्तनशील है तो कल्पना भी परिवर्तनशील है। इसलिए अपने मन को ऐसा बनाओ कि दुःख का प्रभाव न पड़े और सुख की गुलामी न रहे। मन को मन से जगाओ। जैसे, उधार के पैसों से तीर्थयात्रा करने वाला व्यक्ति यात्रा का गर्व नहीं करता, दूसरे के सहारे नदी पार करने वाला व्यक्ति तैरने का अभिमान नहीं करता, जन्मांध देखने का गर्व नहीं करता, विधवा सुहागिन होने का गर्व नहीं करती, ऐसे ही इस मन को किसी चीज का गर्व न होने दो क्योंकि परमात्मा के बिना वह कंगाल है, परमात्म-सत्ता के बिना वह विधवा जैसा। परमात्म-चेतना के बिना मन जन्मांध है। मन को परमात्मा की चेतना मिलती है, परमात्मा का सुहाग एवं ऐश्वर्य मिलता है ऐसी समझ से मन को समझदार बनाओ।

दुःखी होने का अभिमान न करो। ‘मैं दुःखी हूँ…’ यह अभिमान से होता है क्योंकि मन में ‘मैं हूँ’ की कल्पना है तो तभी तो ‘मैं दुःखी हूँ….’ यह महसूस होता है। ऐसे ही ‘मैं सुखी हूँ….’ यह भी अभिमान से होता है। लेकिन भगवान की सत्ता के बिना मन का ‘मैं पैदा नहीं हो सकता। जैसे पानी के बिना लहर पैदा नहीं हो सकती, मिट्टी के बिना मिट्टी के घड़े नहीं बन सकते, रुई के बिना सूती कपड़े नहीं बन सकते, ऐसे ही परमात्मा के बिना मन का ‘मैं’ पैदा नहीं हो सकता। जो कुछ मन में है, वह परमात्मा की सत्ता लेकर है। मन इस सत्ता को भूल जाता है और कल्पना में उलझ जाता है।

“क्या हाल है ?”

“मैं दुःखी हूँ…. मैं ठीक हूँ….”

‘मैं दुःखी हूँ…… मैं ठीक हूँ…’ यह भी परमात्मा की सत्ता से बोलता है। परमात्मा की सत्ता वही-की-वही है लेकिन मन जैसी-जैसी कल्पना या भावना करता है ऐसा उसे दिखता है और जैसा-जैसा देखने-सोचने का ढंग होता है ऐसी-ऐसी कल्पना या भावना बनती है। इसलिए देखने-सोचने का ढंग ऊँचा कर दो, अपनी नजर बदल दो।

 नजर बदली तो नजारे बदल गये।

किश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदल गये।।

जो मन का रुख परमात्मा से मोड़कर संसार के भोग की तरफ ले जाते हैं, वस्तु-व्यक्ति से सुख लेने की तरफ ले जाते हैं, पाप की तरफ ले जाते हैं वे देर-सबेर पाप-ताप में तपते रहते हैं और जो प्रभु के ज्ञान ध्यान में ले जाते हैं वे देर-सबेर प्रभुमय हो जाते हैं। संसार की वस्तु संसारर के काम आये और अपना अंतरात्मा परमेश्वर अपने पर संतुष्ट रहे ऐसा यत्न करना चाहिए।

यज्ञ, तप, व्रत, दान आदि करने से जितना पुण्य होता है, उससे भी अधिक पुण्य शास्त्र-अध्ययन एवं सत्संग करने से और भगवान के ज्ञान-ध्यान का अनुसंधान करने से हो जाता है। मन को इसमें लगाये तो मनुष्य परमात्मा हो जाता है।

एक होते हैं पापात्मा, दूसरे होते हैं पुण्यात्मा और तीसरे होते हैं महात्मा। महात्मा भी तो मन से ही होते हैं। ‘महात्मा’ अर्थात् महान आत्मा। जिनको महान परमात्मा का ज्ञान, गुरु का प्रसाद पच गया है उन ब्रह्मज्ञानी संत के कर्म न पापात्मा की नाईं कर्त्ता होकर आते हैं और न पुण्यात्मा की नांईं कर्त्ता होकर आते हैं वरन् उनके कर्म आत्मज्ञानी होकर आते हैं इसलिए वे न पुण्यात्मा होते हैं, न पापात्मा होते हैं। ऐसे महात्मा स्वयं तो संसार के बंधनों एवं प्रभावों से छूट जाते हैं, साथ ही औरों को भी उनसे छूटने का उपाय बताकर उन्हें मुक्ति के पथ पर अग्रसर कर देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 99

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भारतवासियों ! अब तो जागो….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मैं तो जापानियों को धन्यवाद दूँगा। वे अमेरिका में जाते हैं तो भी अपनी मातृभाषा में ही बातें करते हैं। ….और हम भारतवासी ! भारत में रहते हैं फिर भी अपनी हिन्दी, गुजराती आदि भाषा में अंग्रेजी के शब्द बोलने लगते हैं…. आदत पड़ गयी है। 50 वर्ष से अधिक हो गये आजादी के… बाहर की गुलामी की जंजीर तो छूटी लेकिन अंदर की गुलामी, दिमाग की गुलामी अभी तक नहीं गयी।

लॉर्ड मैकाले कहता थाः “मैं यहाँ कि शिक्षा पद्धति में  कुछ ऐसा डाल जाता हूँ कि आने वाले कुछ वर्षों में भारतवासी अपनी संस्कृति से घृणा करेंगे… मंदिर में जाना पसंद नहीं करेंगे…. माता पिता को प्रणाम करने में तौहीनी महसूस करेंगे… वे शरीर से तो भारत के होंगे लेकिन दिलो-दिमाग से हमारे ही गुलाम होंगे…. ऐसे संस्कार मैं अपनी इस शिक्षा-पद्धति में डाल जाता हूँ।”

शिक्षा-पद्धति में उसके द्वारा डाले गये संस्कारों का प्रभाव आज भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी लोग जो उच्च शिक्षाप्राप्त नागरिक हैं, वे पाश्चात्य जगत की बातों को ज्यादा महत्त्व देते हैं। संत महापुरुष भारत में रहकर अध्यात्म का प्रसाद बाँटते हैं तो उनकी कोई कीमत नहीं, किन्तु परदेश से होकर आये तो उन्हें लोग ध्यान से सुनने लगते हैं। स्वामी विवेकानन्द यहाँ थे तो उनकी कोई कीमत न थी, लेकिन जब विदेश होकर आये तब उनका जय-जयकार होने लगा। स्वामी रामतीर्थ परदेश होकर आये तो लोग उनका सम्मान करने लगे। हम भी परदेश जाकर आये तो लोग ज्यादा सुनने लगे किन्तु हमारे महान गुरुदेव कको इतने सारे लोग पहचानते भी न थे।

हमारी अपेक्षा तो हमारे गुरुदेव अनंत गुना महान थे लेकिन उन्होंने प्रचार के साधनों का इतना उपयोग नहीं किया। वे 93 वर्ष तक भारत में भ्रमण करते रहे लेकिन कइयों को पता तक नहीं था कि पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू जैसी हस्ती इस पृथ्वी पर है। अब भी मैं उनकी वंदना करता हूँ।

परदेश में कोई टोने-टोटके करता हो तो पूरे देश की मीडिया उसके पीछे-पीछे धूल चाटती है। यह बात कइयों को कठोर लगती होगी, अप्रिय लगती होगी परन्तु माफ करना, आपको मैं अपना समझकर कहता हूँ।

ऋषि दयानंद ऐसी बातें कहा करते थे इसीलिए लोग उनका खूब विरोध करते थे। उनको कोई हिन्दू अपनी धर्मशाला अथवा मंदिर में रहने भी नहीं देता था। फिर भी भारत के उन संत ने सत्य बोलना जारी रखा।

एक बार अलीगढ़ में वे एक मुसलमान के यहाँ ठहरे हुए थे। उसके घर में तो रहते लेकिन अपना भोजन स्वयं बनाकर खाते एवं शाम को ‘कुराने शरीफ’ पर प्रवचन करते। वे कहतेः ‘एक तरफ तो बोलते हो कि ‘ला इल्लाह इल्लिल्लाह…. अल्लाह के सिवाय कोई नहीं है। सबमें अल्लाह हैं, सारा जहाँ अल्लाह का है….’ और दूसरी तरफ बोलते हो कि ‘हिन्दुओं को मारो काटो…. वे काफिर हैं…..’ ये कैसी नालायकी के विचार हैं !” ऐसा करके मुसलमानों को सुना देते। तब मुसलमान भाई विचारते किः ‘ये हिन्दू बाबा हमारे ‘कुराने शरीफ’ की आयतें एवं इसके दृष्टांत देकर हमको ही ऐसा-वैसा सुना देते हैं ? ऐसा क्यों ? आखिर रहते कहाँ हैं ?’

जाँच की तो पता चला कि इन बाबा को हिन्दू लोग अपने यहाँ रखने से इन्कार करते हैं किन्तु इनका एक मुसलमान भक्त जिसे हिन्दू धर्म की महिमा का पता है उसके घर ये रहते हैं। तब गाँव के आगेवानों ने मिलकर कहाः

“स्वामी जी ! आपको अपने वाले अपनी धर्मशाला और मंदिरों में रहने तक नहीं देते हैं। आप एक मुसलमान के घर रहते हैं और मुसलमानों को ही सुनाते हैं। थोड़ा तो ख्याल करें !”

उन निर्भीक बाबा ने क्या कहा, जानते हो ?

उन्होंने कहाः “जिनके यहाँ रहता हूँ उनको अगर सत्य सुनाकर उनकी गलती नहीं  निकालूँगा तो फिर और किसको सत्य सुनाऊँगा ?”

उनके ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ देखना। अमुक पंथ में कोई साधु मर गया हो तो उसे कुएँ में डाल देते हैं और कहते हैं कि ‘उसे तो फलाने स्वामी ले गये।’ ऋषि दयानंद ने स्पष्ट लिखा  है किः “अमुक स्वामी (सहजानंद) ले गये-इस धूर्तता में फँसने की जरूरत नहीं है।”

ऐसा स्पष्ट सत्य सुनाने वाले संत को लोगों ने 22-22 बार जहर दिया ! उन्हीं महापुरुष को जब अंतिम बार जहर दिया गया तो उन्होंने जहर पिलाने वाले को कहाः “ये पैसे ले और भाग जा। भक्तों को पता चलेगा तो तुझे मार डालेंगे।”

ऐसे-ऐसे महापुरुष हो गये हैं हमारी संस्कृति में। उन्हें पोप जैसा सम्मान तो क्या मिला ? बल्कि निन्दक लोग उनका नाम गधे पर लिख कर उनका मखौल उड़ाते किः ‘ऋषि दयानन्द गधे हैं।’ उनके भक्त लोग आकर उन्हें बताते कि ‘आपके लिए कुछ लोग ऐसा वैसा लिखते हैं।’ तब दयानन्द जी कहतेः “हाँ, जो ढोंगी है वह गधा ही है। तुम घबराओ मत, विरोध न करो। तुम आगे बढ़ो।”

कितनी सहनशक्ति थी उन महापुरुष में !

वैष्णवजन तो तेने रे कहीए, जे पीड़ पराई जाणे रे।

परदुःखे उपकार करे तोय, मन अभिमान न आणे रे।।

बिल्खा में नथुराम शर्मा नाम के एक उच्च कोटि के आतमज्ञानी संत हो गये। लोगों को उनके बारे में कुछ पता ही नहीं था। उन्हीं की ‘पंचदशी’ मुझसे पढ़वाकर मेरे गुरुदेव ने मुझ पर संकल्प डाला एवं उस ‘पंचदशी’ का प्रसंग समझकर जीव-ब्रह्म की एकता का साक्षात्कार करवा दिया। ऐसे महापुरुषों को लोग पहचानते तक नहीं हैं। राष्ट्र के तो कई बड़े शहरों में लोगों को पता तक नहीं चल पाता कि ऐसे उच्च कोटि के संत-महात्मा आये हैं किन्तु जो अमुक के पास से पैसे ले-लेकर, अमुक को प्रलोभन दे-देकर धर्मान्तरण करवाते हैं उनके लिए चारों ओर जय-जयकार बुलवाया जाता है। फिर भी एक बात की मुझे प्रसन्नता है कि अभी तक भारतीय संस्कृति का ज्ञान, उनकी साधना-पद्धति लोगों को सुख-शांति देने का सामर्थ्य अपने भीतर संजोयी हुई है। उसकी गरिमा को समझकर हम पुनः भारत की प्राचीन महानता को प्राप्त कर सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 23,24,25 अंक 99

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