प्रसिद्ध पुस्तक योगी कथा अमृत के लेखक एवं अनुभवनिष्ठ योगी परमहंस योगानंदजी को एक बार अमेरिका में आयोजित धार्मिक उदारतावादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन “इंटरनेशनल काँग्रेस ऑफ रिलीजस लिबरन्स” में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने का निमंत्रण मिला।
अपने गुरुदेव श्री युक्तेश्वर जी से अनुमति लेकर अगस्त,1920 में वे समुद्री मार्ग से अमेरिका के लिए रवाना हुए। दो महीने की इस लंबी यात्रा के दौरान एक बार उनसे “जीवन का युद्ध और उसे कैसे लड़े?” इस विषय पर व्याख्यान देने का अनुरोध किया गया। इससे पहले उन्होंने अंग्रेजी भाषा में कभी कोई व्याख्यान नहीं दिया था।
इस घटना के विषय में वे लिखते हैं, कि मैं उपस्थित लोगों के सामने आवाक बनकर खड़ा रहा। जिससे लोग मुझपर हँसने लगे। गुरुप्रेरणा हुई, “तुम बोल सकते हो! बोलो।” उसी के साथ मेरे विचारों ने तुरंत ही अंग्रेजी भाषा के साथ दोस्ती कर ली। 45 मिनिट तक व्याख्यान चलता रहा और अंत तक श्रोतागण तन्मय होकर सुनते रहे। मैंने विनम्रता पूर्वक अपने गुरुदेव का धन्यवाद किया और मुझे यह एहसास हो गया कि देशकाल की सीमाओं को ध्वस्त कर वे सदा ही मेरे साथ है।
गुरु और शिष्य के बीच देशकाल की सीमाएँ कोई मायना नहीं रखती। शिष्य के हृदय से निकले प्रार्थना के स्वर गुरु के हृदय तक सीधे पहुँचते है, उन्हें किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसे पृथ्वी के किसी भी कोने में जाइये आकाश सदा साथ ही है, वैसे ही आकाश को भी अवकाश देनेवाला सूक्ष्मतम गुरुतत्व सदा साथ है। उसमें दूरी और देरी का प्रश्न ही नहीं उठता। आवश्यकता है तो सिर्फ अहोभाव से गुरुकृपा को आमंत्रित करने की।
ऐसे ही सन 2008/09 की बात है। पूज्य बापूजी को किसी ने बच्चों की शिक्षणपध्दति पर एक सीडी भेट की। वाटिका के निवास स्थानपर पहुँचकर पूज्यश्री ने सेवक को कहा, साधन लाकर यह सीडी चलाओ। वह सीडी अंग्रेजी भाषा में थी। इसलिए कहा कि इसका हिंदी में अनुवाद करके हमें सुनाओ।
सेवक ने सीडी चला दिया और जैसे ही अनुवाद करने के लिए पूज्यश्री के समक्ष प्रस्तुत हुआ वैसे ही पूज्यश्री ने उसे हाथों के इशारों से रोक दिया और पूज्यश्री ने स्वयं उस सीडी का अनुवाद करना प्रारंभ कर दिया।
उसमें विदेशी अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया गया था, परन्तु पूज्यश्री उस पूरी सीडी का अनुवाद करते गये और पास बैठे हुए सेवकों को सुनाते गये। सेवक आवाक होकर पूज्यश्री की ओर फटे हुए नेत्रों से देखते ही रह गए।
इसलिये गुरु की कृपा अखूट है, असीम है, अवर्णनीय है। गुरु पर श्रद्धा एक ऐसी चीज है जो प्राप्त करने के बाद और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता। श्रद्धा के द्वारा निमेंषमात्र में आप परम पदार्थ पा सकते हैं।
नम्रतापूर्वक, स्वेच्छापूर्वक, संशयरहित होकर, बाह्य आडम्बर के बिना, द्वेषरहित बनकर असीम प्रेम से अपनी गुरु की सेवा करो। गुरु के वचन एवं कर्म में श्रद्धा रखो। श्रद्धा रखो-2 ! गुरुभक्ति विकसित करने का यही मार्ग है।