Monthly Archives: July 2001

निष्काम कर्म की महिमा


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।

‘जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी था योगी है केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।’ (गीताः 6.1)

केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है वरन् कर्मफल की इच्छा का त्याग करके जो करने योग्य कर्म करता है, सुख लेने की बुद्धि से नहीं, सुख देने की  बुद्धि से कर्म करता है, वही वास्तव में संन्यासी और योगी है।

जो बाहर से भीतर आये, उसे बोलते हैं आहार। जो भीतर से बाहर जाये उसे बोलते हैं आनन्दद। जो भीतर से बाहर आये उसे बोलते हैं सुख। जो भीतर से बाहर आये उसे बोलते हैं ज्ञान।

जब सुख देने की बुद्धि से कर्तव्य कर्म करोगे, शास्त्रोक्त कर्म करोगे तो अपने अंतःकरण में शुद्ध सुख उत्पन्न होगा। आसक्ति रहित कर्म करोगे तो भीतर से आनन्द प्रगट होगा, भीतर से ही ज्ञान प्रगट होगा। आसक्तिरहित कर्म ही संन्यास और योग का फल दे देंगे।

मनुस्मृति में कहा गया हैः

यत्कर्मं कुर्वयोsस्य स्यात्परितोषोsन्तरात्मनः।

तत् प्रत्येनन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।

‘जो कर्म करने से अपने मन में तृप्ति और संतोष का अनुभव हो, वह कर्म प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। जिस कर्म को करने के बाद अन्तरात्मा धिक्कारे, ग्लानि हो, घृणा हो-वह कर्म प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए।’ (मनुः 4-161)

जिन कर्मों से आत्मसुख की प्राप्ति हो, आत्मसंतोष हो, अंतरात्मा की तृप्ति हो, अऩ्तरात्मा का सुख उभरता हो, वे कर्म प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए। जो कर्म शास्त्रोक्त हों, संत-अनुमोदित हों और अपने अन्तरात्मा में सुख का माधुर्य का, धन्यवाद का अहसास कराते हों, ये कर्म प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए। जो कर्म शास्त्र, संत एवं अन्तरात्मा द्वारा इन्कार किये गये हों उन कर्मों को प्रयत्नपूर्वक त्यागना चाहिए।

कर्म तो करो लेकिन कर्म की आसक्ति का, कर्म के फल का त्याग करोगे तो बुद्धि स्वच्छ और सात्त्विक होगी। स्वच्छ बुद्धि में परमात्म-विषयक जिज्ञासा होगी, फिर तो संन्यासी और योगी को जो आत्मा-परमात्मा का अनुभव होता है वही तुमको होगा और तुम मुक्तात्मा हो जाओगे।

परमेश्वर तत्त्व का ज्ञान पाना हो तो आसक्ति-रहित कर्म करके अपने को खोजें। कर्म करने से पूर्व, कर्म करते वक्त और कर्म पूरे हो जायें उस वक्त जो सबको देखनेवाला सत्-चित्-आनन्द स्वरूप परमात्मा है वही मेरा आत्मा है’ ऐसा चिन्तन करने से बहुत लाभ होता है।

जब हम साधना करने बैठते हैं तब लगता है कि सारा जगत सपना है और चैतन्य आत्मा अपना है लेकिन कर्म करते समय हमारा मन और इन्द्रियाँ आसक्ति करके हमें पुनः संसार में भटका देते हैं। इसीलिए मनु महाराज ने कहा हैः “जिन कर्मों को करने से अपने मन में तृप्ति और संतोष का अनुभव हो, वे कर्म प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए।”

संन्यासी को आदेश है कि अग्नि को नहीं छुए, बनी-बनायी भिक्षा ग्रहण करे। अग्नि को नहीं छुआ, बनी-बनायी भिक्षा ग्रहण की और संन्यासी के कपड़े पहने लिए लेकिन यदि मन में इच्छा वासना है तो संन्यास सिद्ध नहीं होता। इससे तो कर्म करे लेकिन इच्छा वासनाएँ छोड़ दे तो अन्तरात्मा का सुख प्रगट होता है। इसीलिए आसक्तिरहित कर्म करने वाले को संन्यासी कहा है।

एक वृद्ध व्यक्ति अंधेरी रात में चौराहे पर लालटेन लेकर खड़ा था। उसका भाव था कि लोगों को अँधेरे में कष्ट न हो।

किसी ने पूछाः “बाबा ! लोगों को रोशनी मिलने से तुम्हें क्या लाभ हो रहा है ?”

वृद्धः “लोगों को तो मैं बाहर से रोशनी दे रहा हूँ लेकिन मुझे यह फायदा है कि मेरा अन्तरात्मा संतुष्ट हो रहा है।”

जो गति योगी को, संन्यासी को मिलती है वही निष्काम करने वाले को मिलती है।

एक बार ज्ञानेश्वर महाराज सुबह  सुबह नदी तट पर घूमने निकले तो देखा कि एक लड़का नदी में गोते खा रहा है और पास में ही एक संन्यासी आँखें बंद करके बैठा है। ज्ञानेश्वर महाराज तुरन्त नदी में कूदे, उस डूबते हुए लड़के को बाहर निकाला फिर संन्यासी को पुकारा ?

“ओ संन्यासी महाराज !”

संन्यासी ने आँखें खोलीं तो ज्ञानेश्वरजी बोलेः “क्या आपका ध्यान लगता है ?”

संन्यासीः “ध्यान तो नहीं लगता है, मन इधर-उधर भागता है।”

“यह लड़का डूब रहा था, क्या आपको दिखाई नहीं दिया ?”

“देखा तो था लेकिन मैं ध्यान कर रहा था।”

ज्ञानेश्वरः “फिर आप ध्यान में कैसे सफल हो सकते हो ? ईश्वर ने आपको किसी की सेवा करने का मौका दिया था। वह आपका कर्तव्य भी था। यदि आप उस कर्तव्य का पालन करते तो ध्यान में भी मन लगता।

ईश्वर की सृष्टि, ईश्वर का बगीचा बिगड़ रहा है और आप बगीचे का आनंद लेना चाहते हो ? बगीचे का आनंद लेना है तो बगीचे को सँवारना भी पड़ता है।”

परहित के कार्य, शास्त्र-संत अनुमोदित कार्य, आसक्तिरहित कार्य मानव की योग्यताओं को विकसित करके उसे परमात्म ज्ञान, परमात्म ध्यान के योग्य बनाते हैं।

जिनके नाम से रघुकुल चला एवं आगे चलकर जिनके कुल में भगवान श्रीराम प्रगट हुए, वे राजा रघु किशोर थे, तब की बात हैः एक दिन वे अपने पिता के साथ वन में स्थित गुरुवर वसिष्ठ के आश्रम में गये। उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठजी महाराज अपने ब्रह्मचारियों को समझा रहे थेः “जिसने तन से अगर तप नहीं किया तो उसे भोग भी नहीं मिल सकता, मोक्ष की तो बात ही क्या है ? भोग के लिए भी तप चाहिए और मोक्ष के लिए भी तप चाहिए। इसलिए इस तन से तप करना चाहिए।

किशोर रघु के मन में प्रश्न उठा किः ‘संन्यासी और योगी भोग सुख का त्याग करके तप करते हैं सुख के लिए तप नहीं करते। गुरुवर कहते हैं कि भोग के लिए भी तप करना चाहिए ?’ किशोर रघु ने विनयपूर्वक प्रश्न कियाः “गुरुदेव ! सुख भोग के लिए भी तप करना चाहिए, यह मुझे समझ में नहीं आ रही है। बताने की कृपा करें।

गुरुदेवः “शरीर तभी भोग को भोग सकेगा, जब स्वस्थ होगा और स्वस्थ तभी रहेगा जब परिश्रम करेगा। तैयार सुविधाएँ मिलें और पका हुआ भोजन मिले तो वह कितने दिन भोग सकेगा ?”

एक होता है यत्नतः तप करना जो तपस्वी के लिए है, संन्यासी के लिए है, योगी के लिए है दूसरा है सहज तप। जो ईश्वर के रास्ते जाते हैं उन्हें यत्नतः तप नहीं करना है वरन् ईश्वर के रास्ते आने वाली कठिनाइयों को हँसते-हँसते सह लें, जो भी कष्ट और मुसीबतें आयें उऩ्हें हँसते-हँसते गुजरने दें और अपने मन को ईश्वर के जप ध्यान में लगाये रखें, आसक्तिरहित कर्म में लगाये रखें, उनका वही तप हो जाता है।

तपस्वी प्रयत्नपूर्वक तप करता है तो तप में कर्त्तापन रहता है लेकिन जो स्वाभाविक सुख-दुःख आते हैं उनमें सम बुद्धि रखता है, उसे कर्त्तापन का बोझ नहीं लगता। कभी बीमार हो जाओ तो ऐसा नहीं होना चाहिए किः ‘हाय  मैं बीमार हूँ, दुःखी हूँ, ठीक हो जाऊँ।’ ऐसा करने से शायद तुम ठीक तो हो जाओ, दुःख तो मिटेगा लेकिन वह तप नहीं होगा। इसकी जगह बिमारी में भी चिन्तन करें कि- ‘मैं बीमार नहीं हूँ, यह शरीर का तप हो रहा है… मेरे कर्म कट रहे हैं…’ इस भावना से बिमारी के कष्ट को सहते हुए उसे निवृत्त करने का यत्न करें। इससे कर्म भी कटेंगे, तपस्या भी होगी और आरोग्यता भी प्राप्त हो जायेगी। आपका मन जैसा दृढ़ संकल्प करता है, उसी प्रकार की आपको मदद मिलती है।

जब आसक्ति होगी तो स्वार्थयुक्त कर्म करने में रूचि होगी लेकिन कर्म निःस्वार्थ हों, परहित के हों, शास्त्र-संत अनुमोदित हों-इस प्रकार की समझ होगी तो श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘आसक्तिरहित कर्म करने वाला संन्यासी है, योगी है।’

एक आदमी ने सोचा किः ‘500 रूपये दान करने हैं।’ वह किसी महाराज के पास गया और बोलाः “महाराज ! ये 500 रूपये ले लीजिये।”

महाराजः “हम त्यागी हैं रूपयों को स्पर्श नहीं करते।”

व्यक्तिः “आप नहीं छूते लेकिन मुझे तो दान करना है।”

महाराजः “किसी और को दे दो।”

वह आदमी गया सिनेमा थियेटर की ओर 100 टिकटें सिनेमा की लेकर बाँट दीं। क्या यह दान हुआ ? यह तो लोगों की और भी खाना खराबी हुई। लोगों के तन-मन की हानि का कार्य हुआ।

दूसरे का दुःख निवृत्त हो, दूसरे का अज्ञान निवृत्त हो इस प्रकार का दान करना योग्य है। जिसका पेट पहले से ही भरा है, उसको रोटी का दान करना व्यर्थ है। अगर दान करना है तो भूखे को रोटी का दान करना चाहिए। प्यासे को पानी पिलाना चाहिए। राह भूले हुए को पानी की आवश्यकता नहीं है, उसे रास्ता दिखाना ही आपका कर्तव्य है।

भूखे को भोजन कराना एवं प्यासे को  पानी पिलाना सत्कर्म है लेकिन अशांत के लिए भोजन-पानी की आवश्यकता नहीं, अशांत के लिए तो शांति के वचन चाहिए। ऐसे ही अभक्त को भक्ति मिले, अज्ञानी को ज्ञान मिले, निगुरा सगुरा हो जाये और सगुरा साक्षात्कार की तरफ चले, ऐसा प्रयास योग्य कर्म है।

ये योग्यकर्म भी आसक्तिरहित होकर करें। ऐसों के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं- “जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है।”

अतः आप अपने जीवन में जहाँ भी हों, व्यवहार में संन्यास और योग को प्रविष्ट करें। भीतर पावन रस का झरना खोलें। सदैव याद रखें-संसार में आसक्ति करने और पच मरने के लिए आपका जन्म नहीं हुआ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 10-13, अंक 103

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुब मीनार का सच….


हजार वर्ष से भी अधिक समय तक विदेशियों के अधीन रहने के कारण भारत के इतिहास में अनेकानेक सफेद झूठ घुसेड़ दिये गये हैं तथा वास्तविकता को जानबूझकर दबा दिया गया है। लम्बे समय से सरकारी मान्यता तथा संरक्षण में पुष्ट होने के कारण इन झूठी कथाओं पर सत्यता की  मोहर लग चुकी है।

संत श्री आशाराम जी आश्रम, अमदावाद से प्रकाशित मासिक समाचार पत्र ‘लोक कल्याण सेतु’ के गत तीन अंकों में आपने पढ़ा होगा कि कैसे-कैसे षड्यन्त्र रचकर एक पवित्र शिवमंदिर को क्रूर मुगल बादशाह शाहजहाँ तथा उसकी तथाकथित प्रेयसी की झूठी कथा से कलंकित किया जा रहा है।

ऐसा ही एक सफेद झूठ भारत के उस विश्वप्रसिद्ध स्तंभ के पीछे भी गढ़ा गया है जिसे संसार में ‘कुतुबमीनार’ के नाम से जाना जाता है।

जिस प्रकार तथाकथित ‘ताजमहल’ के साथ ‘शाहजहाँ कि बेसिरपैरवाली झूठी प्रेमगाथा थोपी गयी उसी प्रकार तथाकथित कुतुबमीनार के पीछे भी एक अन्य मुगल शासक ‘कुतुबुद्धीन ऐबक’ का नाम थोप दिया गया है।

एक अंग्रेज पुरातत्त्व प्रमुख कनिंघम द्वारा फैलायी गयी सरकारी अफवाह को सच मानकर समस्त संसार को यह झूठ सुनाया जा रहा है कि इसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि जिन्होंने इस भारत की भूमि को अपने अथक परिश्रम से सजाया सँवारा है भारत के वे मूल निवासी आज भी विदेशी लुटेरों के मानसिक दबाव में जीवन बसर कर रहे हैं। उन्हें अपने देश में ही अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है। इतना ही नहीं सारे प्रतिबंध, बड़े-बड़े नियम-कानून केवल और केवल उन्हीं के लिए बने हैं।

तथाकथित कुतुबमीनार मुगल शासक कुतुबुद्दीन ने बनवायी इस बात का तो कोई ठोस प्रमाण नहीं है परन्तु कुतुबुद्दीन ने उस  स्थान पर 27 मंदिरों को नष्ट करने का पाप किया था इस बात का ठोस प्रमाण उपलब्ध है।

उसने एक शिलालेख पर स्वयं लिखवाया है कि तथाकथित कुतुबमीनार के चारों ओर बने 27 मंदिरों को उजाड़ने की दुष्टता उसने की।

सच तो यह है कि तथाकथित कुतुबमीनार उस समय भी थी जब दुष्ट कुतुबुद्दीन का परदादा भी पैदा नहीं हुआ था। यह स्तम्भ एक प्राचीन हिन्दू कलाकृति है जिसका उपयोग नक्षत्र विज्ञान की प्रयोगशाला के रूप में किया जाता था।

इस स्तम्भ के पार्श्व में महरौली नगरी है। यह संस्कृत नाम मिहिरवाली का अपभ्रंश है। प्राचीन भारत के महान नक्षत्रविज्ञानी तथा महाराजा विक्रमादित्य के विश्वविख्यात दरबारी ज्योतिषी आचार्य मिहिर अपने सहायक विशेज्ञों के साथ यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम से इसका नाम मिहिरवाली (महरौली) पड़ा।

आचार्य वराह मिहिर इस तथाकथित कुतुबमीनार का उपयोग नक्षत्र विद्याध्ययन के लिए एक वेध स्तम्भ के रूप में किया करते थे।

इस वेध स्तम्भ के चारों ओर राशियों के 27 मण्डल बने हुए थे जो कुतुबुद्दीन द्वारा तुड़वा दिये गये। इसकी निर्माणकला में ऐसे कई चिह्न है जिनसे इसके हिन्दू भवन होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।

इस स्तम्भ का घेरा 27 मोड़ों, चापों तथा त्रिकोणों का है तथा ये सब क्रमश एक के बाद एक हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि इसके निर्माण में 27 की संख्या का विशेष महत्त्व रहा है। यह संख्या भारतीय ज्योतिष एवं नक्षत्र विज्ञान से संबंधित है।

इसका मुख्य द्वार इस्लामी मान्यता के अनुसार पश्चिम की ओर न होकर उत्तर की ओर है। इसके अनेक खम्भों तथा दीवारों पर संस्कृत में उत्कीर्ण शब्दावली अभी भी देखी जा सकती है। यद्यपि इसे काफी विद्रूप कर दिया गया है तथापि सूक्ष्मतापूर्वक देखने से भित्ति में अनेक देवमूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इतना ही नहीं कुतुबमीनार का अर्थ जानकर भी दंग रह जायेंगे कि इस अरबी शब्द का अर्थ नक्षत्रीय स्तम्भ ही है। हिन्दी में जिसे वेध स्तम्भ कहते हैं उसे ही अरबी में कुतुबमीनार कहा जाता है। इस नाम का कुतुबुद्दीन से कोई भी संबंध नहीं है। फिर भी यह कहा जाना कि कुतुबुद्दीन ने इसे बनाया इसलिए इसका नाम कुतुबमीनार पड़ा, कितना बड़ा धोखा है।

पी.एन.ओक.

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक  103

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

एतत्सर्वं गुरुर्भक्त्या…..


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

हम लोगों के जीवन में दो तरह के रोग होते हैं- बहिरंग और अन्तरंग। बहिरंग रोगों की चिकित्सा तो डॉक्टर लोग करते ही हैं और वे इतने दुःखदायी भी नहीं होते हैं जितने कि अन्तरंग रोग होते हैं।

हमारे अन्तरंग रोग हैं काम, क्रोध, लोभ और मोह। भागवत में इन एक-एक रोग की निवृत्ति के लिए एक एक औषधी बतायी है।

औषति दोषान् धत्ते गुणान् इति औषधिः।

जो दोष को जला दे और गुणों का आधान कर दे, उसका नाम है औषधि।

व्यास भगवान ने सभी दोषों की अलग-अलग औषध बतायी, जैसे काम के लिए असंकल्प, क्रोध के लिन निष्कामता, लोभ के लिए अर्थानर्थ का दर्शन, भय के लिए तत्त्वावदर्शन, अहंकार के लिए बड़ों की शरण में रहना आदि। फिर सभी दोषों की एक औषधि बताते हुए कहा कि सभी दोष गुरुभक्ति से दूर हो जाते हैं – एतद् सर्वं गुरुर्भक्त्या।

यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, ‘बेटा ! तुम गलत रास्ते से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो,  उससे मत चिपको, अपनी सोच-संगति ऊँची रखो,’ आदि।

जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायेगा, तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चाहिए, बेईमानी नहीं। बेईमानी सम्पूर्ण दोषों व दुःखों की जड़  है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु के सेवा करना।

श्रद्धा पूर्ण नहीं होगी और यदि तुम कहीं भोग करने लगोगे या कहीं यश में, पूजा में, प्रतिष्ठा में फँसने लगोगे और गुरु जी तुम्हें मना करेंगे तो बोलोगे कि, “गुरुजी हमसे ईर्ष्या करते हैं, हमारी उन्नति उनसे देखी नहीं जाती, इनसे नहीं देखा जाता है कि लोग हमसे प्रेम करें। गुरु जी के मन में अब ईर्ष्या आ गयी और ये अब हमको आगे नहीं बढ़ने देना चाहते हैं।’

साक्षात् भगवान तुम्हारे कल्याण के लिए गुरु के रूप में पधारे हुए हैं और ज्ञान की मशाल जलाकर तुमको दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं, तुम्हारे हाथ में दे रहे हैं। तुम देखते हुए चले जाओ आगे….. आगे…. आगे….। परंतु उनको कोई साधारण मनुष्य समझ लेता है, किसी के मन में ऐसी असद् बुद्धि, ऐसी दुर्बुद्धि आ जाती है तो उसकी सारी पवित्रता गजस्नान के समान हो जाती है। जैसे हाथी सरोवर में स्नान करके बाहर निकले और फिर सूँड से धूल उठा उठाकर अपने ऊपर डालने लगे तो उसकी स्थिति वापस पहले जैसी ही हो जाती है। वैसे ही गुरु को साधारण मनुष्य समझने वाले की स्थिति भी पहले जैसी ही हो जाती है।

ईश्वर सृष्टि बनाता है अच्छी बुरी, दोनों सुख-दुःख दोनों, चर-अचर दोनों, मृत्यु-अमरता दोनों। परन्तु संत महात्मा, सदगुरु मृत्यु नहीं बनाते हैं, केवल अमरता बनाते हैं। वे जड़ता नहीं बनाते, केवल चेतनता बनाते हैं। वे दुःख नहीं बनाते, केवल सुख बनाते हैं। तो संत महात्मा, लोगों के  जीवन में साधन डालने वाले, उनको सिद्ध बनाने वाले, उनको परमात्मा से एक कराने वाले।

लोग कहते हैं कि एक परमात्मा भक्तों पर कृपा करते हैं, तो करते होंगे, पर महात्मा न हो तो कोई भक्त ही नहीं होगा और भक्त जब नहीं होगा तो परमात्मा किसी पर कृपा भी कैसे करेंगे ? इसलिए परमात्मा सिद्ध पदार्थ है और महात्मा प्रत्यक्ष हैं। परमात्मा या तो परोक्ष हैं – सृष्टिकर्ता-कारण के रूप में और या तो अपरोक्ष हैं – आत्मा के रूप में।  परोक्ष हैं तो उन पर विश्वास करो और अपरोक्ष हैं तो ‘निर्गुणं, निष्क्रियं, शान्तं’ हैं। परमात्मा का यदि कोई प्रत्यक्ष स्वरूप है तो वह साक्षात् महात्मा ही है। महात्मा ही आपको ज्ञान देते हैं। आचार्यात् विदधति, आचार्यवान पुरुषो वेदा।

जो लोग आसमान में ढेला फेंककर  निशाना लगाना चाहते हैं, उनकी बात दूसरी है। पर, असल बात यह है कि बिना महात्मा के न परमात्मा के स्वरूप का पता चल सकता है, न उसके मार्ग का पता चल सकता है। हम परमात्मा की ओर चल सकते हैं कि नहीं, इसका पता भी महात्मा के बिना नहीं चल सकता है। इसलिए, भागवत के प्रथम स्कंध में ही भगवान के गुणों से भी अधिक गुण महात्मा में बताये गये हैं, तो वह कोई बड़ी बात नहीं है। ग्यारहवें स्कंध में तो भगवान ने यहाँ कह दिया है किः

मद् भक्तपूजाभ्यधिका।

‘मेरी पूजा से भी बड़ी है महात्मा की पूजा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 103

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ