नासमझी है दुःखों का घर

नासमझी है दुःखों का घर


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

यह भी कैसी विचित्र बात है कि सभी दुःखों और परेशानियों को मिटाना चाहते हैं लेकिन फिर भी हर दिन बंधन बढ़ाते जा रहे हैं, परेशानियों को पोसते जा रहे हैं। मुक्ति सभी चाहते हैं किन्तु मुक्ति पाने की मुक्ति से दूर भागते हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात हैः किसी व्यक्ति ने आकर मुझसे कहाः “बापू ! इतने सारे लोग भजन कर रहे हैं, एक मैं नहीं करूँ तो क्या घाटा होगा ? मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।”

उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आयी क्योंकि वह सरलता से बोल रहा था। मैंने कहाः “अच्छा, मुक्ति नहीं चाहिए किन्तु सुख तो चाहते हो न ? परेशानियाँ तो मिटाना चाहते हो न ?”

उसने कहाः “जी।”

“तो फिर हमारे ये सारे प्रयास किसलिये हैं ? हम कहाँ कहते हैं कि तुम मोक्ष पा लो। हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारी परेशानियाँ मिट जायें और परेशानी मिटाना ही तो मोक्ष है। छोटी परेशानी मिटाने में कम मेहनत है, बड़ी परेशानी के लिये ज्यादा, जन्म-मरण की परेशानी मिटाने के लिए आत्मज्ञान की मेहनत करनी पड़ती है।”

यदि थोड़ी-थोड़ी परेशानियों, दुःखों, बंधनों से थोड़ समय के लिए छूटना चाहते हो तो थोड़ा ज्ञान, थोड़ा पुरुषार्थ और थोड़ा सुख ही काफी है और यदि सदा मुक्ति चाहिए, पूर्ण निर्दुःख, पूर्ण निर्बन्ध, पूर्ण सुख चाहिए तो पूर्ण ज्ञान के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना ही चाहिए।

दुःख कोई नहीं चाहता। मुक्ति नहीं चाहते तो क्या बंधन चाहते हो ? तुम्हें कोई जेल में डाल दे, कोई तुम्हारे पर आदेश चलाये, पत्नी तुम्हें आँखें दिखाये तो क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता चाहते हो, मुक्ति चाहते हो और मुक्ति पानी है तो फिर ध्यान भजन, जप, सेवा-स्वाध्याय भी करना पड़ेगा। मुक्ति की मंजिल तक पहुँचना है तो उसकी राह पर तो चलना ही होगा।

अनेकों को ऐसा लगता है कि ʹभाई ! हममें तो भगवान के रास्ते चलने की ताकत नहीं है, हमें ज्ञान नहीं चाहिए….ʹ ज्ञान नहीं चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए तो क्या मुसीबतें चाहिए ? दुःख चाहिए ? यह तो नासमझी है। आदमी तमोगुण में आ जाता है तब कहता है कि ʹहमें ईश्वर से क्या लेना देना ? संत-वंत कुछ नहीं, पुण्य-वुण्य कुछ नहीं।ʹ तो पाप करके भी तो तुम सुख ही चाहते हो न ? यदि पाप करने में सुख होता तो सभी पापी आज मजे में ही होते, अशान्त और दुःखी न होते और मरने के  बाद प्रेत या पशु होकर न भटकते, मुक्त हो जाते, शाश्वत स्वरूप से एक हो जाते।

सुख पाप में नहीं, सुख वासना में नहीं, सुख इच्छाओं की पूर्ति में नहीं वरन् सुख है मुक्ति में, सुख है मुक्ति पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं के श्रीचरणों में। इच्छा वासना की निवृत्ति में परम सुख है।

मैंने सुना है। एक बार हनुमानप्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयन्द का आपस में चर्चा कर रहे थेः “आजकल तो कहलाने लगे बड़े ज्ञानी, बड़े संन्यासी… पहले लोग कितना-कितना तप करते थे। इन्द्र ने 108 वर्ष तक ब्रह्माजी की सेवा की, तब ब्रह्मज्ञान मिला। और आज…? घर छोड़कर बन गये साधु-संन्यासी और लिख देंगेः 1008 स्वामी फलानानंद जी…”

तब एक किसान ने उठकर पोद्दार जी से कहाः “भाई जी ! 108 वर्ष तक इन्द्र ने ब्रह्मा जी की सेवा की, तब ज्ञान मिला, तो 108 वर्ष देवताओं के कि मनुष्य के 108 वर्ष ? अगर देवताओं के वर्ष गिनते हो तो उनकी आयुष्य तो 100 वर्ष से अधिक नहीं होती और अगर मनुष्य के 108 वर्ष गिनते हो तो देवताओं के 108 दिन से अधिक नहीं होते।”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार को हुआ कि किसान के वेष में भी ये कोई पहुँचे हुए महात्मा लगते हैं। उनकी सात्त्विक श्रद्धा थी न !

एक बार पोद्दार जी के मुख से निकल गयाः “जो मिर्ची का अचार नहीं छोड़ सकते, जो चाय नहीं छोड़ सकते, जो दो वक्त का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे ब्रह्मज्ञान कैसे पा सकते हैं ?”

पहले वे इस प्रकार की आलोचना किया करते थे। साधना काल में इस प्रकार का कभी हो जाता है उऩकी इस बात को अखंडानंद सरस्वतीजी ने सुन लिया। वे भिक्षा लेने पोद्दार जी के घर। उनकी धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से भिक्षा दी। तब अखंडानंदजी ने कहाः “बहन जी ! मिर्ची का अचार है ?”

धर्मपत्नी ने कहाः “हाँ महाराज है।”

“अच्छा, तो दो-तीन टुकड़े दे दो।”

धर्मपत्नी ने अचार दिया। तब पुनः अखंडानंदजी बोलेः “बहन जी ! भाई जी घर पर हैं ?”

“जी हाँ महाराज ! भीतर के कक्ष में कुछ लेखन कार्य कर रहे हैं।”

“अच्छा ! जरा भाई जी को बुलाना।”

भाई जी बाहर आये और आकर प्रेम व श्रद्धा से प्रणाम कियाः “महाराज ! नमो नारायणाय।

अखंडानंद जीः नमो नारायणाय। सेठजी ! आपने प्रवचन में कहा थाः ʹअचार चाहिए, खिचड़ी चाहिए, चाय चाहिए… जो ʹचाहिए-चाहिएʹ में लगे हैं और अपने को ब्रह्मज्ञानी मानते हैं वे क्या ब्रह्मज्ञानी होते हैं ? जो दो समय का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे क्या ब्रह्मज्ञान पा सकते हैं ?ʹ

….. तो जिन्हें वास्तव में ब्रह्म परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए सेठजी ! मैं पूछता हूँ कि कमबख्त दो मिर्चियाँ, क्या उऩकी ब्रह्मनिष्ठा के स्वाद को कम कर देगी ? क्या अचार की ये दो मिर्चियाँ उऩके परमात्मज्ञान के रस को छीन लेगी ?”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार जी हाथ जोड़ते हुए बोलेः “महाराज ! क्षमा कीजिए। आप जैसों के आगे तो हम नतमस्तक हैं।”

जिनको ब्रह्म-परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए मिर्ची का अचार तो क्या, छप्पन पकवान तो क्या देवताओं के भोग भी नीरस हैं। वे उनको आसक्त नहीं कर सकते। ऐसे दिव्य ब्रह्मज्ञान के रस का वे आस्वाद कर चुके होते हैं कि जिसके आगे ब्रह्मलोक के सुख तक फीके पड़ जाते हैं तो मनुष्य लोक के तुच्छ में वे क्या आसक्त होंगे ? जिनको आत्मा-परमात्मा का शुद्ध अनुभव हो जाता है, उनके लिए संसार के सुख-दुःख, ऊँचाई-नीचाई कोई मायने नहीं रखती क्योंकि उऩ्होंने अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप को जान लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 50

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