आत्मज्ञान ही सार, बाकी सब बल भार !

आत्मज्ञान ही सार, बाकी सब बल भार !


संत ज्ञानेश्वर जी पुण्यतिथिः 11 दिसम्बर 2012

संत ज्ञानेश्वर महाराज का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि में हुआ था। यह परम पावन पर्वकाल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का था। एक बार संत ज्ञानेश्वर जी, निवृत्तिनाथजी, सोपानदेवजी व मुक्ताबाई – ये चारों भाई बहन नेवासा (महाराष्ट्र) पहुँचे। वहाँ उन्हें एक महिला अपने पति के शव के पास रोती दिखाई दी। करुणावश संत ज्ञानेश्वर जी द्वारा मृतक का नाम पूछे जाने पर महिला ने बतायाः “सच्चिदानंद।” नाम सुनते ही ज्ञानेश्वरजी बोल उठेः “अरे ! सत्-चित्-आनंद की तो कभी मृत्यु हो ही नहीं सकती।” फिर उऩ्होंने मृतदेह पर अपना हाथ फेरा और चमत्कार हो गया ! वह मरा हुआ व्यक्ति जीवित हो उठा। वह व्यक्ति नवजीवन देने वाले, सच्चिदानंदस्वरूप में जगे उन महापुरुष के शरणागत हो गया। यही सच्चिदानंद आगे चलकर ज्ञानेश्वरजी के गीताभाष्य के लेखक ʹसच्चिदानंद बाबाʹ बने।

कुछ समय बीतने पर चारों संत नेवासा से आलंदी की यात्रा पर निकले। चलते-चलते वे पुणताम्बे गाँव में पहुँचे, जहाँ गोदावरी के तट पर कालवंचना करते हुए चांगदेव जी महासमाधि लगाकर बैठे थे। 1400 वर्ष की तपस्या के बल से वे महायोगी तो बन गये थे परंतु गुरु ज्ञान न होने के कारण अहंकार जोर मारता था। चांगदेवजी समाधी लगाते तो उनके चारों और मृतदेहें रखी जाती थीं और आसपास मृतकों के सगे-संबंधी बैठे रहते थे। चांगदेव जी समाधि से उठते तो पूछतेः “यहाँ कोई है क्या ?” तब आसमान से प्रेत-आत्माएँ ʹहम यहाँ हैंʹ कहकर अपने-अपने शरीर में पुनः प्रवेश कर जाती थीं और वे मृतशरीर पुनः जीवित हो उठते थे।

इन संतों को जब इस बात का पता चला तो ʹमृतदेहों के सगे-संबंधियों को चांगदेव जी की समाधि टूटने की राह देखकर परेशान क्यों होना पड़े !ʹ ऐसा सोचकर मुक्ताबाई ने कहाः “इन सभी मृतदेहों को एकत्र करो, मैं इन्हें जीवित कर देती हूँ।”

ऐसा ही किया गया। संत ज्ञानदेव जी से संजीवनी मंत्र लेकर मुक्ताबाई ने पास में पड़ी कुत्ते की लाश को सभी मृतदेहों के ऊपर घुमाकर दूर फेंक दिया। उसी क्षण वह कुत्ता जीवित होकर भाग गया तथा सभी मृतक भी एक साथ जीवित हो उठे। सभी लोग संतों की अनायास बरसी कृपा का गुणगान करने लगे। वहाँ से विदाई लेकर चारों भाई-बहन आगे की यात्रा पर निकल पड़े।

इधर चांगदेवजी ने समाधि से उठते ही वही प्रश्न पूछा पर कोई जवाब नहीं मिला। शिष्यों से सारा वृत्तान्त सुनते ही चांगदेवजी को तुरंत विचार आया की ʹपैंठण में भैंसे वेदमंत्र बुलाने वाले महान योगी बालक कहीं यही तो नहीं हैं !ʹ अतः दर्शन की उत्सुकतावश अंतर्दृष्टि से उन्होंने बालकों को आलंदी के रास्ते जाते देखा। पर पहले पत्र द्वारा सूचित करना आवश्यक समझकर वे पत्र लिखने बैठे परंतु विचलित हो गये कि यदि उनके नाम के आगे चिरंजीवि लिखूँ तो वे मुझसे ज्यादा सामर्थ्यवान हैं अतः उनका अपमान होगा। यदि ʹतीर्थरूपʹ आदि श्रेष्ठतासूचक विशेषण लिखूँ तो मैं 1400 वर्ष का और मैं ही स्वयं को छोटा दिखाकर उऩ्हें सम्मान दूँ, इससे मेरी इतने वर्षों की तपश्चर्या निरर्थक हो जायेगी। उनके अहंकार ने जोर पकड़ा, अंततः उन्होंने कोरा कागज ही अपने शिष्य को हाथों भेज दिया।

कोरा पत्र देखकर मुक्ताबाई ने कहाः “चांगदेवजी ने यह कोरा कागज हमें भेजा है ! 1400 वर्ष की तपस्या करके भी चांगदेव कोरे-के-कोरे ही रह गये ! लगता है इन योगिरीज ने जिस तरह काल को फँसाया है, उसी तरह अहंकार ने इन्हें फँसाया है।”

निवृत्तिनाथजी बोलेः “सदगुरु नहीं मिले इसीलिए इन्हें आत्मज्ञान नहीं हुआ और अहंकार भी नहीं गया। ज्ञानदेव ! आप इन्हें ऐसा पत्र लिखें कि इनके अंतःकरण में आत्मज्योत जग जाय और ʹमैंʹ व ʹतूʹ का भेद दूर हो जाये।”

संत ज्ञानेश्वर जी ने वैसा ही पत्र लिखा किंतु जैसे जल के बिना दरिया और दरिया बिन मोती नहीं हो सकता, ऐसे ही गुरुदेव के मुख से निःसृत ज्ञानगंगा के बिना सच्चा बोध और अऩुभवरूपी मोती भी प्रगट नहीं हो सकता। वही योगी चांगदेव के साथ हुआ। अहंकारवश वे सोचने लगे कि ज्ञानदेव जी को वे अपने योग के ऐश्वर्य से प्रभावित कर देंगे। उन्होंने एक शेर पर दृष्टि डाली और संकल्प किया तो वह पालतू कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते हुए उनके चरण सूँघने लगा। फिर चांगदेवजी ने एक भयंकर विषैले साँप पर अपने योगबल का प्रयोग किया और उसे चाबुक की तरह हाथ में धारण कर शेर पर सवार हो गये। अपने शिष्य समुदाय को साथ लेकर वे ज्ञानेश्वर जी के मिलने आकाशमार्ग से निकल पड़े।

इधर चारों संत चबूतरे पर बैठे थे कि अचानक चांगदेवजी को इस प्रकार आते देख मुक्ताबाई ने कहाः “भैया ! इतने बड़े योगी हमसे इस तरह मिलने आ रहे हैं तो हमें भी उनसे मिलने क्या उसी प्रकार नहीं जाना चाहिए ?”

ज्ञानेश्वरजी बोलेः “ठीक है, तो हम इसी चबूतरे को ले चलते हैं।” और वे चबूतरे पर अपना हाथ घुमाते हुए बोलेः “चल, हे अचल ! तू हमें ले चल। मैंने तुझे चैतन्यता दी है।”

क्षणमात्र की देर किये बिना अचल चबूतरा चलने लगा। जब चांगदेवजी ने देखा कि चारों संत सहज भाव से चबूतरे पर सवार होकर मेरी ओर आ रहे हैं और अहंकार का चिह्नमात्र भी किसी के चेहरे पर नहीं है तो उनका सारा अहंकार नष्ट हो गया। चांगदेव शेर से नीचे उतरे और दिव्यकांति ज्ञानदेवजी के चरणों से लिपट गये। चौदह सौ सालों से वहन किया गया भार उतारने से चागंदेवजी निर्भार हो गये।

सदगुरु बिना की तपस्या से सिद्धियाँ तो मिल सकती हैं परंतु आत्मशांति, आत्मसंतुष्टि, आत्मज्ञान नहीं। ऐसी तपस्या से तो जीवत्व में उलझाने वालि सिद्धियों को पाने का अहंकार पुष्ट होता है और यह मनुष्य को वास्तविक शांति से दूर कर देता है। कितनी बार मौत को भी पीछे धकेलने वाले चांगदेवजी को 1400 साल की तपस्या करने के बाद यही अनुभव हुआ।

यह अहंकार ब्रह्मज्ञानी संतों की शरण गये बिना, उनसे ब्रह्मज्ञान का सत्संग पाये बिना जाता नहीं है। आत्मा में जगे महापुरुषों की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार करने पर अहंकार का विसर्जन तथा परम विश्रान्ति, परम ज्ञान की प्राप्ति वे महापुरुष हँसते-खेलते करवा देते हैं, जिसके आगे 1400 वर्ष की तपस्या से प्राप्त सिद्धियाँ भी कोई महत्त्व नहीं रखतीं। ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत ज्ञानेश्वर जी ने आलंदी में विक्रम संवत 1353 में मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी के दिन जीवित समाधि ली।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 18,19, दिसम्बर 2012, अंक 240

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *