Monthly Archives: March 2016

वेद भी पार नहीं पा सकते सद्गुरु का


 

(संत एकनाथ षष्ठीः 29 मार्च)

सद्गुरु की अनंत महिमा का बखान करते हुए संत एकनाथ जी कहते हैं- ‘हे सद्गुरु ! मेरा तुम्हें प्रणाम ! तुम स्वयं ही क्षीरसागर हो। तुम्हारे ज्ञानरूपी चन्द्रमा के उदय होने से प्रत्येक जीव प्रसन्न हो उठता है। जिस चन्द्रमा की चाँदनी ने हृदयाकाश को प्रकाशित कर घनघोर अज्ञानरूपी अंधकार के त्रिविध ताप दूर किये, जिस चन्द्रमा की किरणें (शिष्य या सत्संग रूपी) तृषाकांत चकोरों के लिए स्वानंदामृत का स्राव कर उन्हें सहज ही तृप्त करती हैं, वह तुम्हारा ज्ञानरूपी चन्द्रमा है। अविद्यारूपी अँधेरे में अंधकाररूपी बंधनों से जीवों के जो देहरूपी कमल मुरझाये रहते हैं, वे जिसके किरणरूपी ज्ञान से अत्यंत आनंदित होते हैं, जिस चन्द्रमा को देखते ही जीव के अंतःकरण में आनंद होता है और जो अहंकाररूपी चन्द्रकांत मणि का तत्काल विलय कर देता है, वह तुम्हारा ज्ञानरूपी चन्द्रमा है। अपने पुत्र को पूर्णिमा के काल में पूर्णत्व से पूर्ण वृद्धि मिली यह देखकर क्षीरसागर में ज्वार आता है, फिर भी उसकी गुरुगौरव की मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता। अद्वयानुभव के कारण अंतःकरण में आत्मानंद बढ़ता ही रहता है।

सद्गुरुरूपी क्षीरसागर अत्यंत गहरा है। उसकी ओर आदरपूर्वक देखने से उस पर हिलोरें मारने वाली वेदांतरूपी लहरों में शब्दरूपी ज्ञानरत्न दृष्टिगोचर होते हैं। उसमें विश्वासरूपी मंदराचल पर्वत तथा वैराग्यरूपी वासुकी के रूप में मथनी को बाँधने वाली डोर, इनकी सहायता से निज धैर्यरूपी देव-दानव सम-समान भाव से क्षीरसागर का मंथन करने के लिए तत्पर रहते हैं। उस मंथन की पहली ही खलबलाहट में लय, विक्षेप आदि हलाहल उत्पन्न हुए और विवेकरूपी नीलकंठ ने आत्मदृष्टि से उन्हें अपने ही गले में निगल लिया (धारण किया)। फिर अभ्यास की पुनरावृत्ति से सारे कर्मों को विश्राम मिला, उस समय श्रीपति जिसके वश हुए वह आत्मशांतिरूपी लक्ष्मी प्रकट हुई। फिर वहाँ ब्रह्मरस और भ्रमरस इन दोनों से भरा हुआ अमृतकलश, जो देव दानवों को अत्यंत प्रिय है, वह धीरे-धीरे उस मंथन से बाहर निकला। उसी का बँटवारा करने के लिए श्री हरि ने मोहिनीरूप लिया और अहंकाररूपी देवताओं को तृप्त किया। वह वृत्तिरूपी मोहिनी तत्काल अपना रूप बदलकर नारायण स्वरूप हो गयी। पूर्व की देहबुद्धि उसमें नहीं रही।

क्षीरसागर के वे नारायण जिस प्रकार आज भी स्वयं समाधिरूप शेष-शय्या पर सुखपूर्वक अत्यंत संतुष्ट हो अभी तक शयन कर रहे हैं, उस प्रकार सदगुरु ज्ञानरूपी समुद्र हैं। नारायण आदि अनेक अवतार सचमुच जिनके कारण उत्पन्न होते हैं ऐसे सदगुरु का पार वेदों की भी समझ में नहीं आता। जिसके सुंदर ज्ञानरूपी रत्न शंकर और विष्णु के गले में तथा मुकुट पर शोभायमान होते हैं और जिसका वेदपाठों ने तथा महान कवियों ने वर्णन किया है ऐसे अत्यंत गम्भीर वस्तु को कौन जानता है ? विचार की दृष्टि से भी वह नहीं दिखाई देता, वेद भी उसके स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकते तो यह मेरी मराठी उसका वर्णन करने में किस प्रकार समर्थ होगी ?

देखो ! सार्वभौम राजा  के मस्तक पर कोई सर्वथा नहीं बैठ सकता। लेकिन मक्खी को वहाँ बैठने में कोई कठिनाई नहीं होती। अथवा रानी के स्तन देखने में कौन समर्थ है ? परंतु उसका बालक बलपूर्वक  स्तनपान करता है। उसी प्रकार मेरी यह मराठी भाषा भी गुरु जनार्दन स्वामी की कृपा के सामर्थ्य से आत्मज्ञान के गले लगकर जो निःशब्द है, उस ब्रह्म का भी कथन कर रही है। अस्तु, आकाश घट के अंदर और बाहर व्याप्त रहता है। इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में व्यर्थ के शब्द घुसाने के लिए स्थान ही नहीं बचा है। बालक बोलना नहीं जानता इसलिए उसका पिता स्वयं बातें कर उससे बुलवाता रहता है। इस बात को भी उसी प्रकार समझना चाहिए क्योंकि मेरी वाणी को बुलवाने वाले मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी हैं। उन गुरुदेव की कृपादृष्टि से ‘भागवत’ मराठी भाषा में सुना रहा हूँ। करोड़ों ग्रंथों का अवलोकन करने के बाद भी उनके अर्थ में भागवत का ज्ञान दृष्टिगोचर नहीं होता। वही यह ‘श्रीमद्भागवत’ गुरु जनार्दन की कृपा से देशी भाषा में यथार्थ ढंग से सुनाया। भगवान कहते हैं- हे उद्धव ! एकनिष्ठा से मेरी भक्ति करने से उसके फलरूप ज्ञानरूपी तलवार की प्राप्ति होती है और उसी शस्त्र से संसार की आसक्ति को छेदकर मेरे भक्तों को सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है।’

(श्रीमद्भागवत एकनाथी भागवत से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 279

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रंगरेज की प्रीति जगाने का उत्सव होलिकोत्सव


पूज्य बापू जी

(होलीः 23 मार्च 2016)

संत-सम्मत होली खेलिये

होली एक सामाजिक, व्यापक त्यौहार है। शत्रुता पर विजय पाने का उत्सव, ‘एक में सब, सबमें एक’ उस रंगरेज साहेब की प्रीति जगाने वाला उत्सव है। यह दिन मौका देता है कि न कोई नीचा, न कोई ऊँचा। गुरुवाणी में आता हैः

एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे।।

365 दिनों में से 364 दिन तो तेरे मेरे के शिष्टाचार में हमने अपने को बाँधा लेकिन होली का दिन उस तेरे मेरे के रीति-रिवाज को हटाकर एकता की खबरें देता है कि सब भूमि गोपाल की और सब जीव शिवस्वरूप है, सबमें एक और एक में सब। सेठ भई आनंद चाहता है, गरीब भी आनंद चाहता है। तो इस दिन निखालिस जीवन जीकर आनंद लीजिये लेकिन उस आनंद के पीछे खतरा है। यदि वह आनंद संत-सम्मत नहीं होगा, संयम-सम्मत नहीं होगा तो वह आनंद विकारों का रूप ले लेगा और फिर पशुता आ जायेगी। इसलिए भोला बाबा कहते हैं-

होली अगर हो खेलनी, तो संत-सम्मत खेलिये।

तुम्हें आनंद लेने की इच्छा है। और जन्मों से तुम इन्द्रियों से आनंद ढूँढ रहे हो तो इस दिन भी यदि तुम्हें छूट दी जाय तो स्त्री-पुरुष भी होली खेलते हैं और न जाने होली खेलते-खेलते कितना पतन कर लेते हैं। तमाशबीन तमाशा देखने गये तो कई बार खुद का ही तमाशा हो जाता है। इसलिए होली सावधान भी करती है। होली के बाद आती है धुलेंडी।

तन की तंदुरुस्ती मन पर निर्भर है। मन तुम्हारा यदि प्रसन्न और प्रफुल्लित है तो तन भी तुम्हें सहयोग देता है। यदि तन से अधिक भोग भोगे जाते हैं, विकारी होली खेली जाती है, विकारी धुलेंडी की धूल डाल दी जाती है अपने पर तो तन का रोग मन को भी रोगी बना देता है, मन बूढ़ा हो जाता है, कमजोर हो जाता है। संत-सम्मत जो होली होती है उसका लक्ष्य होता है तुम्हारे तन को तंदुरुस्त और मन को प्रफुल्लित रखना।

होली और धुलेंडी हमें कहती है कि इस दिन हम जैसे रंग लगाते हैं तो अपना और पराया याद नहीं रखते हैं, ऐसे ही मेरे-तेरे के भाव और जो आपस में कुछ वैमनस्य है उन सबको ज्ञान की होली में जला दें।

होली की रात्रि का जागरण और जप बहुत ही फलदायी होता है, एक जप हजार गुना फलदायी है। इसलिए इस रात्रि में जागरण और जप कर सभी पुण्यलाभ लें।

कैसे पायें स्वास्थ्य लाभ ?

इन दिनों कोल्ड ड्रिंक्स, मैदा, दही, पचने में भारी व चिकनाई वाले पदार्थ, पिस्ता, बादाम, काजू आदि दूर से ही त्याग देने चाहिए। होली के बाद खजूर नहीं खानी चाहिए।

मुलतानी मिट्टी से स्नान, प्राणायाम, 15 दिन तक बिना नमक का भोजन, 20-25 नीम की कोंपलें व 1-2 काली मिर्च का सेवन स्वास्थ्य की शक्ति बढ़ायेगा। भुने हुए चने, पुराने जौ, लाई, खील (लावा) – ये चीजें कफ को शोषित करती हैं।

कफ अधिक है तो गजकरणी करें, एक डेढ़ लिटर पानी में 10-15 ग्राम नमक डाल दो। पंजों के बल बैठ के पियो, इतना पियो कि वह पानी बाहर आना चाहे। तब दाहिने हाथ की दो बड़ी उँगलियाँ मुँह में डालकर उलटी करो, पिया हुआ सब पानी बाहर निकाल दो। पेट बिलकुल हलका हो जाय तब पाँच मिनट तक आराम करो। दवाइयाँ कफ का इतना शमन नहीं करेंगी जितना यह प्रयोग करेगा। हफ्ते में एक बार ऐसा कर लें तो आराम से नींद आयेगी। इस ऋतु में हल्का फुलका भोजन करना चाहिए। (गजकरणी की विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम की पुस्तक ‘योगासन’)

होली के दिन सिर पर मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिएः ‘पृथ्वी देवी ! तुझे नमस्कार है। जैसे  विघ्न-बाधाओं को तू धारण करते हुए भी यशस्वी है, ऐसे ही मैं विघ्न-बाधाओं के बीच भी संतुलित रहूँ। मेरे शरीर का स्वास्थ्य और मन की प्रसन्नता बनी रहे इस हेतु मैं आज इस होली के पर्व पर, भगवान नारायण और वसुंधरा को प्रणाम करता हूँ।’

पलाश के रंगों से खेलें होली

होली की प्रदक्षिणा करके शरीर में गर्मी सहने की क्षमता का आवाहन किया जाता है। गर्मियों में सातों रंग, सातों धातु असंतुलित होंगे तो आप जरा-जरा बात में तनाव में आ सकते हैं। जो होली के दिन पलाश के फूलों के रंग से होली का फायदा उठाता है, उसके सप्तरंगों, सप्तधातुओं का संतुलन बना रहता है और वह तनाव आदि का शिकार नहीं होता। रात को नींद नहीं आती हो तो पलाश के फूलों के रंग से होली खेलो।

न अपना मुँह बंदर जैसा बनने दें, न दूसरे का बनायें। न अपने गले में जूतों की माला पहनें, न दूसरे के गले में पहनायें। बहू-बेटियों को शर्म में डालने वाली उच्छृंखलता की होली न आप खेलें, न दूसरों को खेलने का मौका दें।

यह होलिकोत्सव बाहर से तुम्हारा शारीरिक स्वास्थ्य आदि तो ठीक करता ही है, साथ ही तुम्हें आध्यात्मिक रंग से रँगने की व्यवस्था भी देता है।

होली का संदेश

फाल्गुनी पूर्णिमा चन्द्रमा का प्राकट्य दिवस है, प्रह्लाद का विजय दिवस है और होलिका का विनाश दिवस है। व्यवहारिक जगत में यह सत्य, न्याय, सरलता, ईश्वर-अर्पण भाव का विजय-दिवस है और अहंकार, शोषण व दुनियावी वस्तुओं के द्वारा बड़े होने की बेवकूफी का पराजय दिवस है। तो आप भी अपने जीवन में चिंतारूपी डाकिनी के विनाश-दिवस को मनाइये और प्रह्लाद के आनंद-दिवस को अपने चित्त में लाइये। होलिकोत्सव राग-द्वेष और ईर्ष्या को भूलाने वाला उत्सव है। हरि के रंग से हृदय को और पलाश के रंग से अपनी त्वचा को तथा दिलबर के ज्ञान-ध्यान से बुद्धि को रँगो।

परमात्मा की उपासना करने वाले अपनी संकीर्ण मान्यताएँ, संकीर्ण चिंतन, संकीर्ण ख्वाहिशों को छोड़कर ‘ॐ….ॐ….’ का रटन करें। पवित्र ॐकार का गुंजन करते हुए ‘ॐ आनंद…. ॐआनंद…. हरि ॐ….’ का उच्चारण करें। जो पाप-ताप हर ले और अपना आत्मबल भर दे वह है ‘हरि ॐ’

रासायनिक रंगों से कभी न खेलें होली

रासायनिक रंगों से होली खेलना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है, यहाँ तक कि इनसे मृत्यु भी हो जाती है। यदि किसी ने आप पर रासायनिक रंग लगा दिया हो तुरंत ही बेसन, आटा, दूध, हल्दी व तेल के मिश्रण से बना उबटन रँगे हुए अंगों पर लगाकर रंग को धो डालना चाहिए।

धुलेंडी के दिन पहले से ही शरीर पर नारियल या सरसों का तेल अच्छी प्रकार लगा लेना चाहिए, जिससे यदि कोई त्वचा पर रासायनिक रंग डाले तो उसका दुष्प्रभाव न पड़े और वह आसानी से छूट जाय।

होली पलाश के रंग एवं प्राकृतिक रंगों से ही खेलनी चाहिए। (पलाश के फूलों का रंग सभी संत श्री आशाराम जी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों में उपलब्ध है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, अंक 279, पृष्ठ संख्या 7-9

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मायारूपी नर्तकी से कैसे बचें ?


भगवान के नामों के जप कीर्तन की शास्त्रों ने बड़ी महिमा गायी है। भगवन्नाम की महिमा स्वयं भगवान से बढ़कर सिद्ध हुई है। भगवन्नाम एक चतुर ‘दुभाषिया’ है। जैसे एक ग्रामीण किसान और विदेशी पर्यटक के बीच अगर दुभाषिया है तो वह दोनों के बीच संवाद करा सकता है, उसी प्रकार ‘भगवान का नाम’ भी भगवान के स्वरूप को जानने में सर्वथा मददरूप सिद्ध होता है। शास्त्रों में आता हैः

जितं तेन जितं तेन जितं तेनेति निश्चितम्।

जिह्वाग्रे वर्तते यस्य हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

जिसकी जिह्वा के अग्रभाग पर ‘हरि’ ये दो अक्षर विद्यमान हैं उसकी जीत हो गयी, निश्चय ही उसकी जीत हो गयी।

मायारूपी नर्तकी के भय से छुटकारा पाना हो तो नर्तकी को उलटो और भगवान के नाम का कीर्तन करो। (नर्तकी शब्द का उलटा कीर्तन)

कीर्तन शब्द कीर्ति से बना है और कीर्ति का अर्थ है यश। भगवान का यशोगान, उनकी लीला, नाम, रूप, गुण आदि का गान कीर्तन है। प्रेमपूर्वक कीर्तन ही संकीर्तन है। यह व्यक्तिगत रूप से भी कर सकते हैं तथा साज-बाज, लय, ध्वनि के साथ समूह में कर सकते हैं। भगवन्नाम-कीर्तन में अमोघ शक्ति है।

भगवान कहते हैं- ‘जो मेरे नामों का गान (कीर्तन) करके मेरे समीप रो पड़ते हैं, मैं उनका खरीदा हुआ गुलाम हूँ, यह जनार्दन किसी दूसरे के हाथ नहीं बिका है।’ (आदि पुराण)

भगवान का स्मरण प्रतिक्षण होना चाहिए। उनकी विस्मृति होना महान अपराध है। नाम ही ऐसी वस्तु है जो भगवान की रसमयी मूर्ति हमारे नेत्रों के सामने सर्वदा उपस्थित कर देती है।

गोपियाँ गद्गद कंठ से पुकारते हुए अपने इष्ट का गुणगान करती थीं। सीता जी अशोक वाटिका में बस प्रभु-नाम का ही स्मरण करती रहती थीं। जब दुष्ट ने द्रौपदी के चीर को पकड़ा, जल में गज का पैर ग्राह ने पकड़ा तो उन्होंने भगवान का नाम ही पुकार के रक्षा पायी थी।

एक बार एक किसान खेत को कुएँ के पानी से सींच रहा था। हरि बाबा जी विचरते हुए उसके पास पहुँचे और बोलेः “भाई ! क्या कभी हरिनाम भी लेते हो ?”

किसानः “बाबा ! यह तो आपका काम है। यदि मैं आपकी तरह में भी हरि नाम लेने लगूँ तो क्या खाऊँगा और क्या अपने परिवार को खिलाऊँगा ? आप जैसे बाबाजियों को यदा-कदा भिक्षा में क्या दूँगा ?”

इतना सुनते ही बाबा जी ने उसकी पानी खींचने की रस्सी पकड़ ली और कहाः “भाई ! तुम हरिनाम लो, तुम्हारे खेत में सिंचाई मैं करूँगा।”

उसने बहुत मना किया किंतु बाबा जी ने एक न सुनी और पानी खींच कर सिंचाई करने लगे। स्वयं हरिनाम बोलते हुए पानी खींचते रहे और उससे भी उच्चारण करवाते रहे। इस तरह दोपहर तक बाबा जी ने पूरे दिन की सिंचाई कर दी। जब किसान के घर से भोजन आया तो बाबा जी उसके विशेष हठ करने पर थोड़ा सा मट्ठा मात्र लिया और उसमें जल मिलाकर पी लिया। मध्याह्न काल की भिक्षा गाँव पहुँचकर ही की।

बाद में उस खेत में इतनी अधिक मात्रा में अन्न पैदा हुआ कि देखने वाले अचम्भित रह गये। तभी से उस किसान की सम्पत्ति में असाधारण वृद्धि हो गयी और वह भी हरि-कीर्तन का प्रेमी बन गया। फिर तो जब भी कहीं कीर्तन होता तो वह अपना सारा काम छोड़कर उसमें सम्मिलित होता था। कीर्तन करते समय उसे शरीर आदि का भी बाह्य ज्ञान नहीं रहता था। इस तरह संत की कृपा से उसके भगवत्प्रेम तथा सम्पत्ति में उत्तरोत्तर विकास होता गया।

लुटेरों ने किसी सम्पत्तिवान को लूट लिया हो तो चिल्लाना स्वाभाविक ही होता है। उसी प्रकार यदि हमारे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि लुटेरे आयें तो हमें स्वाभाविक ही तत्परतापूर्वक भगवान के नाम की पुकार लगानी चाहिए, उनकी प्रार्थना करनी चाहिए, ‘ॐ…ॐ… हे प्रभु…. हे प्यारे…. हे अन्तर्यामी…. हे चैतन्य…. हरि हरि… ॐॐ…. नारायण….’ आदि। इससे निश्चित ही सहायता मिलेगी और मायारूपी नर्तकी हमें नचा नहीं पायेगी अपितु वह माया ‘योगमाया’ बनकर हमें साधना में उन्नति हेतु मातृवत मदद करेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 279

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