मायारूपी नर्तकी से कैसे बचें ?

मायारूपी नर्तकी से कैसे बचें ?


भगवान के नामों के जप कीर्तन की शास्त्रों ने बड़ी महिमा गायी है। भगवन्नाम की महिमा स्वयं भगवान से बढ़कर सिद्ध हुई है। भगवन्नाम एक चतुर ‘दुभाषिया’ है। जैसे एक ग्रामीण किसान और विदेशी पर्यटक के बीच अगर दुभाषिया है तो वह दोनों के बीच संवाद करा सकता है, उसी प्रकार ‘भगवान का नाम’ भी भगवान के स्वरूप को जानने में सर्वथा मददरूप सिद्ध होता है। शास्त्रों में आता हैः

जितं तेन जितं तेन जितं तेनेति निश्चितम्।

जिह्वाग्रे वर्तते यस्य हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

जिसकी जिह्वा के अग्रभाग पर ‘हरि’ ये दो अक्षर विद्यमान हैं उसकी जीत हो गयी, निश्चय ही उसकी जीत हो गयी।

मायारूपी नर्तकी के भय से छुटकारा पाना हो तो नर्तकी को उलटो और भगवान के नाम का कीर्तन करो। (नर्तकी शब्द का उलटा कीर्तन)

कीर्तन शब्द कीर्ति से बना है और कीर्ति का अर्थ है यश। भगवान का यशोगान, उनकी लीला, नाम, रूप, गुण आदि का गान कीर्तन है। प्रेमपूर्वक कीर्तन ही संकीर्तन है। यह व्यक्तिगत रूप से भी कर सकते हैं तथा साज-बाज, लय, ध्वनि के साथ समूह में कर सकते हैं। भगवन्नाम-कीर्तन में अमोघ शक्ति है।

भगवान कहते हैं- ‘जो मेरे नामों का गान (कीर्तन) करके मेरे समीप रो पड़ते हैं, मैं उनका खरीदा हुआ गुलाम हूँ, यह जनार्दन किसी दूसरे के हाथ नहीं बिका है।’ (आदि पुराण)

भगवान का स्मरण प्रतिक्षण होना चाहिए। उनकी विस्मृति होना महान अपराध है। नाम ही ऐसी वस्तु है जो भगवान की रसमयी मूर्ति हमारे नेत्रों के सामने सर्वदा उपस्थित कर देती है।

गोपियाँ गद्गद कंठ से पुकारते हुए अपने इष्ट का गुणगान करती थीं। सीता जी अशोक वाटिका में बस प्रभु-नाम का ही स्मरण करती रहती थीं। जब दुष्ट ने द्रौपदी के चीर को पकड़ा, जल में गज का पैर ग्राह ने पकड़ा तो उन्होंने भगवान का नाम ही पुकार के रक्षा पायी थी।

एक बार एक किसान खेत को कुएँ के पानी से सींच रहा था। हरि बाबा जी विचरते हुए उसके पास पहुँचे और बोलेः “भाई ! क्या कभी हरिनाम भी लेते हो ?”

किसानः “बाबा ! यह तो आपका काम है। यदि मैं आपकी तरह में भी हरि नाम लेने लगूँ तो क्या खाऊँगा और क्या अपने परिवार को खिलाऊँगा ? आप जैसे बाबाजियों को यदा-कदा भिक्षा में क्या दूँगा ?”

इतना सुनते ही बाबा जी ने उसकी पानी खींचने की रस्सी पकड़ ली और कहाः “भाई ! तुम हरिनाम लो, तुम्हारे खेत में सिंचाई मैं करूँगा।”

उसने बहुत मना किया किंतु बाबा जी ने एक न सुनी और पानी खींच कर सिंचाई करने लगे। स्वयं हरिनाम बोलते हुए पानी खींचते रहे और उससे भी उच्चारण करवाते रहे। इस तरह दोपहर तक बाबा जी ने पूरे दिन की सिंचाई कर दी। जब किसान के घर से भोजन आया तो बाबा जी उसके विशेष हठ करने पर थोड़ा सा मट्ठा मात्र लिया और उसमें जल मिलाकर पी लिया। मध्याह्न काल की भिक्षा गाँव पहुँचकर ही की।

बाद में उस खेत में इतनी अधिक मात्रा में अन्न पैदा हुआ कि देखने वाले अचम्भित रह गये। तभी से उस किसान की सम्पत्ति में असाधारण वृद्धि हो गयी और वह भी हरि-कीर्तन का प्रेमी बन गया। फिर तो जब भी कहीं कीर्तन होता तो वह अपना सारा काम छोड़कर उसमें सम्मिलित होता था। कीर्तन करते समय उसे शरीर आदि का भी बाह्य ज्ञान नहीं रहता था। इस तरह संत की कृपा से उसके भगवत्प्रेम तथा सम्पत्ति में उत्तरोत्तर विकास होता गया।

लुटेरों ने किसी सम्पत्तिवान को लूट लिया हो तो चिल्लाना स्वाभाविक ही होता है। उसी प्रकार यदि हमारे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि लुटेरे आयें तो हमें स्वाभाविक ही तत्परतापूर्वक भगवान के नाम की पुकार लगानी चाहिए, उनकी प्रार्थना करनी चाहिए, ‘ॐ…ॐ… हे प्रभु…. हे प्यारे…. हे अन्तर्यामी…. हे चैतन्य…. हरि हरि… ॐॐ…. नारायण….’ आदि। इससे निश्चित ही सहायता मिलेगी और मायारूपी नर्तकी हमें नचा नहीं पायेगी अपितु वह माया ‘योगमाया’ बनकर हमें साधना में उन्नति हेतु मातृवत मदद करेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 279

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