Monthly Archives: September 2018

पायें देशी गायों से उनके रंगानुसार विशेष लाभ


वैसे तो सभी देशी गायों का दूध पुष्टीदायी तथा स्वास्थ्य, बल, बुद्धि व सात्त्विकता वर्धक होता है परंतु कैसी सूक्ष्म दृष्टि है भारत के संतों-महापुरुषों की, जिन्होंने अलग-अलग रंगों की गायों में पायी जाने वाली भिन्न-भिन्न विशेषताएँ भी खोज निकालीं !

सफेद रंग की गाय

श्वेत (सफेद) रंग की गायों में धी, धृति, स्मृति वर्धक सत्त्व सविशेष रहता है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि आदि ज्यादातर श्वेत गौ के दूध का सेवन करते थे क्योंकि उससे अध्यात्म बल एवं विद्या की अभिवृद्धि होती है।

प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थियों को श्वेत गौ के गो-रस (गाय का दूध, दही आदि) का सेवन कराया जाता था, जिससे उनकी बुद्धि वेदादि विद्या का कंठस्थ करने में समर्थ बनती थी।

इनका दूध कफकारक तथा पचने में भारी होता है पर उसमें सोंठ, काली मिर्च, पिप्ली, पिप्पलीमूल, हल्दी आदि डालकर पीने से वह त्रिदोषशामक व सुपाच्य हो जाता है।

सगर्भा  माताएँ अगर श्वेत बछड़ेवाली श्वेत गाय के दूध का चाँदी के पात्र में सेवन करें तो उन्हें दीर्घायु, गौरवर्ण की तथा ओजस्वी, तेजस्वी एवं निरामय संतान की प्राप्ति होती है।

यदि श्वेत गौ के दूध को मंडूकपर्णी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी आदि मेधाजनक औषधियों से सिद्ध करके उसका सेवन मनोरोगियों को कराया जाय तो उनका मानसिक रोग शांत होता है।

लाल रंग की गाय

लाल गाय सूर्यकिरणों का सेवन कर शौर्यशक्ति को अपने दूध में प्रवाहित करती है। ऐसी गायों का दूध वायु तथा कफशामक होता है वह शरीर को बलिष्ठ बनाता है। इनके दूध में शौर्यशक्ति सविशेष रहती है इसलिए क्षत्रिय युद्ध के लिए जाते समय भी अपने साथ लाल गायों के झुंड-के-झुंड ले जाते थे।

पीले रंग की गाय

पीले रंग की गाय का दूध वात-पित्तशामक होता है। इसके सेवन से व्यवहार पालन, व्यापार-वाणिज्य व नैतिकता की वृद्धि होती है। अतः वैश्य ऐसी गायें रखते थे।

चितकबरी गाय

इसका दूध वातशामक होता है, जिसे पीने से सेवाकार्यों में कुशलता आती है। इसीलिए चतुर्थ वर्ण के लोग चितकबरी गायें पालते थे।

काली गाय

काली गायों का दूध अन्य गायों की अपेक्षा अधिक गुणकारी होता है। इनका दूध अग्निमांद्यजनित रोग-नाशक व उत्तम वातशामक है। पंचगव्य-निर्माण में काली गौ के गोबर का रस लेना सबसे श्रेष्ठ माना  जाता है।

वर्तमान समय में गौ-हत्या में बढ़ोतरी और गौ-पालन हेतु लोगों की घटती हुई रूचि के कारण हमारे ऋषि-मुनियों की ऐसी महान खोजों का लाभ उठाना सबके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। अतः आज गौ-सेवा, गौ संरक्षण व संवर्धन हेतु सभी को अवश्य प्रयास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 27 अंक 309

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मन अपना समुझाय ले !


‘हे मन ! व्यर्थ क्यों चक्कर लगा रहा है ? कहीं विश्राम कर। जो काम या बात जैसे होने वाली होती है वह अपने-आप वैसे ही हो जाती है, और किसी प्रकार से नहीं होती। अतः मैं बीती बात का विचार न करते हुए और आगे आने वाली बात का भी विचार (चिंता) न करते हुए बिना सोचे (मन में भोगों की कामना न करते हुए अनासक्त भाव से) सहसा प्राप्त होने वाले भोगों को भोगता हूँ।

वैराग्य शतकः 62

हमारा मन कुछ पाकर, कुछ मिटा के, कुछ बना के संसार से सुख पाने की इच्छा से इधर-उधर भटकता रहता है लेकिन जो प्रारब्ध है वह बिना प्रयास के मिलकर ही रहता है और जो नहीं है वह खूब मेहनत करके पा भी लिया तो छूट ही जाता है। इसलिए विवेकीजन संसार के अनित्य भोगों के पीछे नहीं दौड़ते बल्कि प्रारब्धवश जो मिल जाता है, उसी को पाकर संतुष्ट रहते हैं और जो स्वतः प्राप्त है ऐसे परमात्मा का आश्रय ले के उसी में विश्रांति पाते हैं। संत कबीर  जी कहते हैं-

मन अपना समुझाय ले, आया गाफिल होय।

बिन समुझे उठि जायगा, फोकट फेरा तोय।।

‘ऐ मानव ! अपने मन को यह अच्छी तरह समझा ले कि अज्ञानी होकर तू जन्म ले के आया है और जानने योग्य अपने आत्मस्वरूप का, ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान पाये बिना ही दुनिया से उठ चलेगा तो तेरा यह चौरासी लाख योनियों का फेरा व्यर्थ ही चला जायेगा।’

पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता हैः “हमारा अधिकांश समय भूतकाल के चिंतन और भविष्य की कल्पनाओं में व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है जबकि बीती बातों के चिंतन  से कोई लाभ नहीं होता और भविष्य की कल्पनाओं में उलझने से कुछ हाथ नहीं लगता।

अरे, जो प्रारब्ध में होगा, आयेगा। बच्चा माँ के गर्भ से जन्म लेता है तो क्या कामना करता है कि ‘मेरे लिए दूध बन जाय, दूध बन जाय…’ ? प्रकृति और परमात्मा की व्यवस्था है, अपने आप दूध बन गया न ! तो प्रारब्ध वेग से सब मिलता रहता है। क्या आप कामना करते हो कि ‘श्वास मिल जाय, मिल जाय….’ ? अरे, आपकी आवश्यकता है तो श्वास मिलता रहता है। इसलिए कामना करके अपनी इज्जत मत बिगाड़ो, लालसा (परमात्मप्राप्ति की इच्छा) और जिज्ञासा करके उनको बढ़ाकर अपना आत्मखजाना पा लो बस !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 25, अंक 309

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नित्य प्राप्त होने पर भी जो ज्ञात नहीं !


किसी भी वस्तु का वर्णन करो, ऐसा कहने पड़ेगा कि ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है।’ इसके अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं है। सृष्टि का कारण, प्रलय का स्वरूप, ईश्वर, प्रकृति – किसी का भी वर्णन करो, कहना यही पड़ेगा कि ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है।’ बंधन भी प्रतीत होता है और मोक्ष भी। सुख भी प्रतीत होता है और दुःख भी। इस प्रतीति को जब हम सच्ची मान लेते हैं, तब सुखी-दुःखी होते हैं। भेद-प्रतीति के ज्ञान को हम पहले सच्चा मान लेते हैं, फिर अच्छा बुरा मानते है, तत्पश्चात् प्रिय-अप्रिय मानते हैं और तब फिर प्राप्ति और त्याग का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार हम भेद-प्रतीति में इतने निमग्न हो जाते हैं कि वह सत्य बन जाती है और राग-द्वेष बद्धमूल (दृढ़) हो जाते हैं। आत्मदेव तो सर्वथा शुद्ध और आनंदस्वरूप ही है।

आनंद के बारे में 5 बातें मन में बैठा लो

1.आनंद का कोई कारण नहीं होता अर्थात् आनंद उत्पन्न नहीं होता। उत्पन्न हुआ आनंद नाशवान होगा। अतः आनंद नित्य है।

2.आनंद का कोई कार्य नहीं होता। अर्थात् आनंद सबका फल है, आनंद का कोई फल नहीं है। अतः आनंद अपरिणामी निर्विकार है।

3.आनंद का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं होता जैसे कि सुख का प्रतिस्पर्धि दुःख होता है। इस अर्थ में आनंद सुख से विलक्षण है अतः आनंद अद्वितीय अथवा पूर्ण है। आनंद का कोई विजातीय (दो भिन्न जातियों के पदार्थों में विद्यमान भेद। जैसे पत्थर और पेड़ का भेद, गाय और मनुष्य का भेद। सच्चिदानंदस्वरूप ब्रह्म में उससे भिन्न कुछ भी नहीं है जो उसका विजातीय हो सके।) नहीं है।

4.क. आनंद में सजातीय भेद (एक ही जाति के दो पदार्थों में विद्यामान भेद। जैसे- मनुष्य-मनुष्य का भेद, वृक्ष-वृक्ष का भेद। जैसा यह ब्रह्म-परमात्मा है ऐसा दूसरा ब्रह्म-परमात्मा भी मौजूद है, ऐसा नहीं है। ब्रह्म एक और अद्वितीय है। अतः आनंदस्वरूप ब्रह्म में सजातीय भेद नहीं है।) नहीं है, अतः सर्वत्र आनंद एक ही है, भले वह किसी प्रकार भी (किसी भी उपाधि से) प्रकट हो। खट्टा खाने से आनंद एक और मीठा खाने से आनंद दो, ऐसा नहीं होता। विषय-भेद से आनंद में भेद का आरोप होता है पर आनंद एक ही है।

ख. आनंद में स्वगत भेद (एक ही वस्तु के विभिन्न अंगों में विद्यमान भेद। जैसे – एक ही शरीर में हाथ, पैर, नाक, कान आदि का भेद, एक ही वृक्ष में शाखा और फल का भेद। स्वगत भेद सावयव पदार्थों-प्राणियों में होता है। सच्चिदानंद ब्रह्म देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित है। वह निर्गुण-निराकार है, अंग-प्रत्यंगों से रहित है। अतः उसमें स्वगत भेद भी सम्भव नहीं है। इस प्रकार आनंदस्वरूप परमात्मा सजातीय, विजातीय में स्वगत – तीनों भेदों से रहित है।) भी नहीं होता। कम आनंद, अधिक आनंद, गाढ़ा आनंद, हलका आनंद आदि जो तारतम्य प्रतीत होता है, वह वृत्ति का है, आनंद का नहीं।

5.आनंद कभी परोक्ष नहीं होता। अज्ञात रूप से आनंद कभी नहीं होता।

अर्थात् आनंद कभी अज्ञान से ढकता नहीं है। आनंद सबका सबसे बड़ा प्रेमास्पद है। सब आनंद से ही प्यार करते हैं। तुम सबसे अधिक जिससे प्यार करते हो वही तुम्हारा आनंद है और सबसे अधिक प्यार अपने अतिरिक्त और किसी से नहीं होता। ‘नारद भक्ति-दर्शन’ में प्रेम के लक्षण में भी जहाँ ‘तत्सुखसुखित्वम्’ (उसके सुख से सुखी होना) कहा गया है वहाँ ‘सुखित्वम्’ (सुखी होना) आत्मगामी ही है। आनंद अन्य नहीं है। आप ही आनंद है।

अब सोचो पुरुषार्थ कहाँ है ? अपने पुरुषार्थ आप स्वयं हैं। अपने-आपको छोड़कर और कुछ पाना नहीं है और अपना-आपा नित्य प्राप्त है परंतु यह ज्ञात नहीं है, बस यही भूल है ! ज्ञात हो गया बस, दुःख निवृत्त हो गया, मोक्ष हो गया। ज्ञान से नित्य प्राप्त की ही प्राप्ति-सी होती है।

हाथ में कंगन हैं परंतु भूल गये। अब ढूँढते हैं इधर-उधर। किसी जानकार ने बता दिया, ‘वह हाथ में जो है वही तो कंगन है।’ बस, कंगन मिल गया। खोया नहीं था, खोया सा था, मिला नहीं, मिल सा गया। यही हाल अपने स्वरूप का है। उसकी ब्रह्मता खो-सी गयी है, जिसके फलस्वरूप अपने में मृत्यु, दुःख, अज्ञान, बंधन प्रतीत होता है। वेदांत-वाक्यों के द्वारा कोई सद्गुरु कृपा करके बता देते हैं, ‘वह ब्रह्म तो तुम आत्मा ही हो।’ बस, आत्मा की ब्रह्मता मिल-सी गयी और बंधनादि की निवृत्ति हो गयी। यही मोक्ष है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 309

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